Bhagwat puran fourth skandh chapter 18(भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःअथाष्टादशोऽध्यायः पृथ्वी-दोहन)
संस्कृत श्लोक :-
मैत्रेय उवाच
इत्थं पृथुमभिष्ट्रय रुषा प्रस्फुरिताधरम् । पुनराहावनिर्भीता संस्तभ्यात्मानमात्मना ।।१ संनियच्छाभिभो मन्युं निबोध श्रावितं च मे । सर्वतः सारमादत्ते यथा मधुकरो बुधः ।।२ अस्मिल्लोकेऽथवामुष्मिन्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । दृष्टा योगाः प्रयुक्ताश्च पुंसां श्रेयः प्रसिद्धये ।।३ तानातिष्ठति यः सम्यगुपायान् पूर्वदर्शितान् । अवरः २ श्रद्धयोपेत उपेयान् विन्दतेऽञ्जसा ।।४ ताननादृत्य यो विद्वानर्थानारभते स्वयम् । तस्य व्यभिचरन्त्यर्था आरब्धाश्च पुनः पुनः ।।५ पुरा सृष्टा ह्योषधयो ब्रह्मणा या विशाम्पते । भुज्यमाना मया दृष्टा असद्भिरधृतव्रतैः ।।६ अपालितानादृता च भवद्भिर्लोकपालकैः । चोरीभूतेऽथ लोकेऽहं यज्ञार्थेऽग्रसमोषधीः ।।७ नूनं ता वीरुधः क्षीणा मयि कालेन भूयसा । तत्र योगेन दृष्टेन भवानादातुमर्हति ।।८ वत्सं कल्पय मे वीर येनाहं वत्सला तव । धोक्ष्ये क्षीरमयान् कामाननुरूपं च दोहनम् ।।९ दोग्धारं च महाबाहो भूतानां भूतभावन । अन्नमीप्सितमूर्जस्वद्भगवान् वाञ्छते यदि ।।१०
हिंदी अनुवाद :-
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! इस समय महाराज पृथुके होठ क्रोधसे काँप रहे थे। उनकी इस प्रकार स्तुति कर पृथ्वीने अपने हृदयको विचारपूर्वक समाहित किया और डरते- डरते उनसे कहा ।।१।।
‘प्रभो! आप अपना क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो प्रार्थना करती हूँ, उसे ध्यान देकर सुनिये। बुद्धिमान् पुरुष भ्रमरके समान सभी जगहसे सार ग्रहण कर लेते हैं ।।२।।
तत्त्वदर्शी मुनियोंने इस लोक और परलोकमें मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये कृषि, अग्निहोत्र आदि बहुत-से उपाय निकाले और काममें लिये हैं ।।३।।
उन प्राचीन ऋषियोंके बताये हुए उपायोंका इस समय भी जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमतासे अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है ।।४।।
परन्तु जो अज्ञानी पुरुष उनका अनादर करके अपने मनःकल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सभी उपाय और प्रयत्न बार-बार निष्फल होते रहते हैं ।।५।।
राजन् ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने जिन धान्य आदिको उत्पन्न किया था, मैंने देखा कि यम-नियमादि व्रतोंका पालन न करनेवाले दुराचारीलोग ही उन्हें खाये जा रहे हैं ।।६।।
लोकरक्षक ! आप राजालोगोंने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया; इसलिये सब लोग चोरोंके समान हो गये हैं। इसीसे यज्ञके लिये ओषधियोंको मैंने अपनेमें छिपा लिया ।। ७ ।।
अब अधिक समय हो जानेसे अवश्य ही वे धान्य मेरे उदरमें जीर्ण हो गये हैं; आप उन्हें पूर्वाचार्योंके बतलाये हुए उपायसे निकाल लीजिये ।।८।।
लोकपालक वीर ! यदि आपको समस्त प्राणियोंके अभीष्ट एवं बलकी वृद्धि करनेवाले अन्नकी आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य बछड़ा, दोहनपात्र और दुहनेवालेकी व्यवस्था कीजिये; मैं उस बछड़ेके स्नेहसे पिन्हाकर दूधके रूपमें आपको सभी अभीष्ट वस्तुएँ दे दूँगी ।।९-१०।।
संस्कृत श्लोक :-
समां च कुरु मां राजन्देववृष्टं यथा पयः ।अपर्तावपि भद्रं ते उपावर्तेत मे विभो ।।११इति प्रियं हितं वाक्यं भुव आदाय भूपतिः ।वत्सं कृत्वा मनुं पाणावदुहत्सकलौषधीः ।।१२तथा परे च सर्वत्र सारमाददते बुधाः ।ततोऽन्ये च यथाकामं दुदुहुः पृथुभाविताम् ।।१३ऋषयो दुदुहुर्देवीमिन्द्रियेष्वथ सत्तम ।वत्सं बृहस्पतिं कृत्वा पयश्छन्दोमयं शुचि ।।१४कृत्वा वत्सं सुरगणा इन्द्रं सोममदूदुहन् ।हिरण्मयेन पात्रेण वीर्यमोजो बलं पयः ।।१५दैतेया दानवा वत्सं प्रह्लादमसुरर्षभम् ।विधायादृदुहन् क्षीरमयः पात्रे सुरासवम् ।।१६गन्धर्वाप्सरसोऽधुक्षन् पात्रे पद्ममये पयः ।वत्सं विश्वावसुं कृत्वा गान्धर्वं मधु सौभगम् ।।१७वत्सेन पितरोऽर्यम्णा कव्यं क्षीरमधुक्षत ।आमपात्रे महाभागाः श्रद्धया श्राद्धदेवताः ।।१८प्रकल्प्य वत्सं कपिलं सिद्धाः सङ्कल्पनामयीम् ।सिद्धिं नभसि विद्यां च ये च विद्याधरादयः ।।१९अन्ये च मायिनो मायामन्तर्धानाद्भुतात्मनाम् । मयं प्रकल्प्य वत्सं ते दुदुहुर्धारणामयीम् ।।२० यक्षरक्षांसि भूतानि पिशाचाः पिशिताशनाः । भूतेशवत्सा दुदुहुः कपाले क्षतजासवम् ।।२१
हिंदी अनुवाद :-
राजन् ! एक बात और है; आपको मुझे समतल करना होगा, जिससे कि वर्षा-ऋतु बीत जानेपर भी मेरे ऊपर इन्द्रका बरसाया हुआ जल सर्वत्र बना रहे- मेरे भीतरकी आर्द्रता सूखने न पावे। यह आपके लिये बहुत मंगलकारक होगा’ ।।११।।
पृथ्वीके कहे हुए ये प्रिय और हितकारी वचन स्वीकार कर महाराज पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बना अपने हाथमें ही समस्त धान्योंको दुह लिया ।।१२।।
पृथुके समान अन्य विज्ञजन भी सब जगहसे सार ग्रहण कर लेते हैं, अतः उन्होंने भी पृथुजीके द्वारा वशमें की हुई वसुन्धरासे अपनी-अपनी अभीष्ट वस्तुएँ दुह लीं ।।१३।।
ऋषियोंने बृहस्पतिजीको बछड़ा बनाकर इन्द्रिय (वाणी, मन और श्रोत्र) रूप पात्रमें पृथ्वीदेवीसे वेदरूप पवित्र दूध दुहा ।।१४।।
देवताओंने इन्द्रको बछड़ेके रूपमें कल्पना कर सुवर्णमय पात्रमें अमृत, वीर्य (मनोबल), ओज (इन्द्रियबल) और शारीरिक बलरूप दूध दुहा ।।१५।।
दैत्य और दानवोंने असुरश्रेष्ठ प्रह्लादजीको वत्स बनाकर लोहेके पात्रमें मदिरा और आसव (ताड़ी आदि) रूप दूध दुहा ।।१६।।
गन्धर्व और अप्सराओंने विश्वावसुको बछड़ा बनाकर कमलरूप पात्रमें संगीतमाधुर्य और सौन्दर्यरूप दूध दुहा ।।१७।।
श्राद्धके अधिष्ठाता महाभाग पितृगणने अर्यमा नामके पित्रीश्वरको वत्स बनाया तथा मिट्टीके कच्चे पात्रमें श्रद्धापूर्वक कव्य (पितरोंको अर्पित किया जानेवाला अन्न) रूप दूध दुहा ।।१८।।
फिर कपिलदेवजीको बछड़ा बनाकर आकाशरूप पात्रमें सिद्धोंने अणिमादि अष्टसिद्धि तथा विद्याधरोंने आकाशगमन आदि विद्याओंको दुहा ।।१९।।
किम्पुरुषादि अन्य मायावियोंने मयदानवको बछड़ा बनाया तथा अन्तर्धान होना, विचित्र रूप धारण कर लेना आदि संकल्पमयी मायाओंको दुग्धरूपसे दुहा ।।२०।।
इसी प्रकार यक्ष-राक्षस तथा भूत-पिशाचादि मांसाहारियोंने भूतनाथ रुद्रको बछड़ा बनाकर कपालरूप पात्रमें रुधिरासवरूप दूध दुहा ।।२१।।
संस्कृत श्लोक :-
तथाहयो दन्दशूकाः सर्पा नागाश्च तक्षकम् । विधाय वत्सं दुदुहुर्बिलपात्रे विषं पयः ।।२२पशवो यवसं क्षीरं वत्सं कृत्वा च गोवृषम् । अरण्यपात्रे चाधुक्षन्मृगेन्द्रेण च दंष्ट्रिणः ।।२३क्रव्यादाः प्राणिनः क्रव्यं दुदुहुः स्वे कलेवरे । सुपर्णवत्सा विहगाश्चरं चाचरमेव च ।।२४वटवत्सा वनस्पतयः पृथग्रसमयं पयः । गिरयो हिमवद्वत्सा नानाधातून् स्वसानुषु ।।२५सर्वे स्वमुख्यवत्सेन स्वे स्वे पात्रे पृथक् पयः । सर्वकामदुघां पृथ्वीं दुदुहुः पृथुभाविताम् ।।२६एवं पृथ्वादयः पृथ्वीमन्नादाः स्वन्नमात्मनः । दोहवत्सादिभेदेन क्षीरभेदं कुरूद्वह ।। २७ततो महीपतिः प्रीतः सर्वकामदुघां पृथुः । दुहितृत्वे चकारेमां प्रेम्णा दुहितृवत्सलः ।।२८चूर्णयन् स्वधनुष्कोट्या गिरिकूटानि राजराट् । भूमण्डलमिदं वैन्यः प्रायश्चक्रे समं विभुः ।।२९अथास्मिन् भगवान् वैन्यः प्रजानां वृत्तिदः पिता । निवासान् कल्पयांचक्रे तत्र तत्र यथार्हतः ।।३०ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च । घोषान् व्रजान् सशिविरानाकरान् खेटखर्वटान् ।।३१
हिंदी अनुवाद :-
बिना फनवाले साँप, फनवाले साँप, नाग और बिच्छू आदि विषैले जन्तुओंने तक्षकको बछड़ा बनाकर मुखरूप पात्रमें विषरूप दूध दुहा ।। २२ ।।
पशुओंने भगवान् रुद्रके वाहन बैलको वत्स बनाकर वनरूप पात्रमें तृणरूप दूध दुहा। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले मांसभक्षी जीवोंने सिंहरूप बछड़ेके द्वारा अपने शरीररूप पात्रमें कच्चा मांसरूप दूध दुहा तथा गरुडजीको वत्स बनाकर पक्षियोंने कीट-पतंगादि चर और फलादि अचर पदार्थोंको दुग्धरूपसे दुहा ।।२३-२४।।
वृक्षोंने वटको वत्स बनाकर अनेक प्रकारका रसरूप दूध दुहा और पर्वतोंने हिमालयरूप बछड़ेके द्वारा अपने शिखररूप पात्रोंमें अनेक प्रकारकी धातुओंको दुहा ।।२५।।
पृथ्वी तो सभी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है और इस समय वह पृथुजीके अधीन थी। अतः उससे सभीने अपनी-अपनी जातिके मुखियाको बछड़ा बनाकर अलग- अलग पात्रोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके पदार्थोंको दूधके रूपमें दुह लिया ।।२६।।
कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! इस प्रकार पृथु आदि सभी अन्न-भोजियोंने भिन्न-भिन्न दोहन-पात्र और वत्सोंके द्वारा अपने-अपने विभिन्न अन्नरूप दूध पृथ्वीसे दुहे ।। २७ ।।
इससे महाराज पृथु ऐसे प्रसन्न हुए कि सर्वकामदुहा पृथ्वीके प्रति उनका पुत्रीके समान स्नेह हो गया और उसे उन्होंने अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार कर लिया ।। २८ ।।
फिर राजाधिराज पृथुने अपने धनुषकी नोकसे पर्वतोंको फोड़कर इस सारे भूमण्डलको प्रायः समतल कर दिया ।। २९।।
वे पिताके समान अपनी प्रजाके पालन-पोषणकी व्यवस्थामें लगे हुए थे। उन्होंने इस समतल भूमिमें प्रजावर्गके लिये जहाँ-तहाँ यथायोग्य निवासस्थानोंका विभाग किया ।। ३० ।।
अनेकों गाँव, कस्बे, नगर, दुर्ग, अहीरोंकी बस्ती, पशुओंके रहनेके स्थान, छावनियाँ, खानें, किसानोंके गाँव और पहाड़ोंकी तलहटीके गाँव बसाये ।।३१।।
संस्कृत श्लोक :-
प्राक्पृथोरिह नैवैषा पुरग्रामादिकल्पना ।यथासुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः ।।३२
हिंदी अनुवाद :-
महाराज पृथुसे पहले इस पृथ्वीतलपर पुर-ग्रामादिका विभाग नहीं था; सब लोग अपने- अपने सुभीतेके अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे ।।३२।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुविजयेऽष्टादशोऽध्यायः ।।१८।।
१. प्रा० पा०- क्रोधं। २. प्रा० पा०- अथवा। ३. प्रा० पा०- प्रारब्धा० । ४. प्रा० पा०- दृष्टेन योगेन।
१. प्रा० पा०- ततः सर्वे। २. प्रा० पा०- गन्धं। ३. प्रा० पा०- ससौभगम्। १. प्रा० पा०- स्वकले ०। २. प्रा० पा० – चूर्णयंश्च धनु०।