Bhagwat puran skandh 4 chapter 17(भागवत पुराण चतुर्थः स्कन्धःसप्तदशोऽध्यायः महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना)

Bhagwat puran  skandh 4 chapter 17(भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःसप्तदशोऽध्यायः महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना)

अथ सप्तदशोऽध्यायः

महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना और पृथ्वीके द्वारा उनकी स्तुति करना

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

एवं स भगवान् वैन्यः ख्यापितो गुणकर्मभिः । छन्दयामास तान् कामैः प्रतिपूज्याभिनन्द्य च ।।१ब्राह्मणप्रमुखान् वर्णान् भृत्यामात्यपुरोधसः । पौरांजानपदान् श्रेणीः प्रकृतीः समपूजयत् ।।२

हिंदी अनुवाद :-

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- इस प्रकार जब वन्दीजनने महाराज पृथुके गुण और कर्मोंका बखान करके उनकी प्रशंसा की, तब उन्होंने भी उनकी बड़ाई करके तथा उन्हें मनचाही वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया ।।१।।

उन्होंने ब्राह्मणादि चारों वर्णों, सेवकों, मन्त्रियों, पुरोहितों, पुरवासियों, देशवासियों, भिन्न-भिन्न व्यवसायियों तथा अन्यान्य आज्ञानुवर्तियोंका भी सत्कार किया ।।२।।

संस्कृत श्लोक :-

विदुर उवाच

कस्माद्दधार गोरूपं धरित्री बहुरूपिणी । यां दुदोह पृथुस्तत्र को वत्सो दोहनं च किम् ।।३ प्रकृत्या विषमा देवी कृता तेन समा कथम् । तस्य मेध्यं हयं देवः कस्य हेतोरपाहरत् ।।४ सनत्कुमाराद्भगवतो ब्रह्मन् ब्रह्मविदुत्तमात् । लब्ध्वा ज्ञानं सविज्ञानं राजर्षिः कां गतिं गतः ।।५ यच्चान्यदपि कृष्णस्य भवान् भगवतः प्रभोः । श्रवः सुश्रवसः पुण्यं पूर्वदेहकथाश्रयम् ।।६ भक्ताय मेऽनुरक्ताय तव चाधोक्षजस्य च । वक्तुमर्हसि योऽदुह्यद्वैन्यरूपेण गामिमाम् ।।७

सूत उवाच

चोदितो विदुरेणैवं वासुदेवकथां प्रति ।प्रशस्य तं प्रीतमना मैत्रेयः प्रत्यभाषत ।।८

मैत्रेय उवाच

यदाभिषिक्तः पृथुरंग विप्रै- रामन्त्रितो जनतायाश्च पालः । प्रजा निरन्ने क्षितिपृष्ठ एत्य क्षुत्क्षामदेहाः पतिमभ्यवोचन् ।।९वयं राजंजाठरेणाभितप्ता यथाग्निना कोटरस्थेन वृक्षाः । त्वामद्य याताः शरणं शरण्यं यः साधितो वृत्तिकरः पतिर्नः ।।१० तन्नो भवानीहतु रातवेऽन्नं क्षुधार्दितानां नरदेवदेव । यावन्न नक्ष्यामह उज्झितोर्जा वार्तापतिस्त्वं किल लोकपालः ।।११

हिंदी अनुवाद :-

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! पृथ्वी तो अनेक रूप धारण कर सकती है, उसने गौका रूप ही क्यों धारण किया? और जब महाराज पृथुने उसे दुहा, तब बछड़ा कौन बना? और दुहनेका पात्र क्या हुआ? ।।३।।

पृथ्वी देवी तो पहले स्वभावसे ही ऊँची-नीची थी। उसे उन्होंने समतल किस प्रकार किया और इन्द्र उनके यज्ञसम्बधी घोड़ेको क्यों हर ले गये? ।।४।।

ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमारजीसे ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करके वे राजर्षि किस गतिको प्राप्त हुए? ।।५।।

पृथुरूपसे सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ही अवतार ग्रहण किया था; अतः पुण्यकीर्ति श्रीहरिके उस पृथु-अवतारसे सम्बन्ध रखनेवाले जो और भी पवित्र चरित्र हों, वे सभी आप मुझसे कहिये। मैं आपका और श्रीकृष्णचन्द्रका बड़ा अनुरक्त भक्त हूँ ।।६-७।।

श्रीसूतजी कहते हैं- जब विदुरजीने भगवान् वासुदेवकी कथा कहनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, तब श्रीमैत्रेयजी प्रसन्नचित्तसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ।।८।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! ब्राह्मणोंने महाराज पृथुका राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजाका रक्षक उद्घोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, इसलिये भूखके कारण प्रजाजनोंके शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। उन्होंने अपने स्वामी पृथुके पास आकर कहा ।।९।।

‘राजन् ! जिस प्रकार कोटरमें सुलगती हुई आगसे पेड़ जल जाता है, उसी प्रकार हम पेटकी भीषण ज्वालासे जले जा रहे हैं। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं और हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, इसलिये हम आपकी शरणमें आये हैं ।।१०।।

आप समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाले हैं, आप ही हमारी जीविकाके भी स्वामी हैं। अतः राजराजेश्वर ! आप हम क्षुधापीड़ितोंको शीघ्र ही अन्न देनेका प्रबन्ध कीजिये; ऐसा न हो कि अन्न मिलनेसे पहले ही हमारा अन्त हो जाय’ ।।११।।

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

पृथुः प्रजानां करुणं निशम्य परिदेवितम् । दीर्घ दध्यौ कुरुश्रेष्ठ निमित्तं सोऽन्वपद्यत ।।१२इति व्यवसितो बुद्ध्या प्रगृहीतशरासनः । सन्दधे विशिखं भूमेः क्रुद्धस्त्रिपुरहा यथा ।।१३प्रवेपमाना धरणी निशाम्योदायुधं च तम् । गौः सत्यपाद्रवद्भीता मृगीव मृगयुद्रुता ।।१४तामन्वधावत्तद्वैन्यः कुपितोऽत्यरुणेक्षणः । शरं धनुषि संधाय यत्र यत्र पलायते ।।१५सा दिशो विदिशो देवी रोदसी चान्तरं तयोः । धावन्ती तत्र तत्रैनं ददर्शानूद्यतायुधम् ।।१६लोके नाविन्दत त्राणं वैन्यान्मृत्योरिव प्रजाः । त्रस्ता तदा निववृते हृदयेन विदूयता ।।१७उवाच च महाभागं धर्मज्ञापन्नवत्सल । त्राहि मामपि भूतानां पालनेऽवस्थितो भवान् ।।१८स त्वं जिघांससे कस्माद्दीनामकृतकिल्बिषाम् । अहनिष्यत्कथं योषां धर्मज्ञ इति यो मतः ।।१९प्रहरन्ति न वै स्त्रीषु कृतागःस्वपि जन्तवः । किमुत त्वद्विधा राजन् करुणा दीनवत्सलाः ।।२०मां विपाट्याजरां नावं यत्र विश्वं प्रतिष्ठितम् । आत्मानं च प्रजाश्चेमाः कथमम्भसि धास्यसि ।।२१

हिंदी अनुवाद :-

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- कुरुवर ! प्रजाका करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देरतक विचार करते रहे। अन्तमें उन्हें अन्नाभावका कारण मालूम हो गया ।।१२।।

‘पृथ्वीने स्वयं ही अन्न एवं औषधादिको अपने भीतर छिपा लिया है’ अपनी बुद्धिसे इस बातका निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और त्रिपुरविनाशक भगवान् शंकरके समान अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वीको लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया ।।१३।।

उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याधके पीछा करनेपर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौका रूप धारण करके भागने लगी ।।१४।।

यह देखकर महाराज पृथुकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे जहाँ-जहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुषपर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे ।।१५।।

दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जहाँ-जहाँ भी वह दौड़कर जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते ।।१६।।

जिस प्रकार मनुष्यको मृत्युसे कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकीमें वेनपुत्र पृथुसे बचानेवाला कोई भी न मिला। तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्तसे पीछेकी ओर लौटी ।।१७।।

और महाभाग पृथुजीसे कहने लगी – ‘धर्मके तत्त्वको जाननेवाले शरणागतवत्सल राजन् ! आप तो सभी प्राणियोंकी रक्षा करनेमें तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये ।।१८।।

मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्रीका वध आप कैसे कर सकेंगे? ।।१९।।

स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उनपर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं? ।। २० ।।

मैं तो एक सुदृढ़ नौकाके समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधारपर स्थित हैं। मुझे तोड़कर आप अपनेको और अपनी प्रजाको जलके ऊपर कैसे रखेंगे?’ ।।२१।।

संस्कृत श्लोक :-

पृथुरुवाच

वसुधे त्वां वधिष्यामि मच्छासनपराङ्‌मुखीम् । भागं बर्हिषि या वृते न तनोति च नो वसु ।।२२ यवसं जग्ध्यनुदिनं नैव दोग्ध्यौधसं पयः । तस्यामेवं हि दुष्टायां दण्डो नात्र न शस्यते ।।२३ त्वं खल्वोषधिबीजानि प्राक् सृष्टानि स्वयम्भुवा । न मुंचस्यात्मरुद्धानि मामवज्ञाय मन्दधीः ।।२४ अमूषां क्षुत्परीतानामार्तानां परिदेवितम् । शमयिष्यामि मद्वाणैर्भिन्नायास्तव मेदसा ।। २५ पुमान् योषिदुत क्लीब आत्मसम्भावनोऽधमः । भूतेषु निरनुक्रोशो नृपाणां तद्वधोऽवधः ।।२६ त्वां स्तब्धां दुर्मदां नीत्वा मायागां तिलशः शरैः ।आत्मयोगबलेनेमा धारयिष्याम्यहं प्रजाः ।।२७ एवं मन्युमयीं मूर्ति कृतान्तमिव बिभ्रतम् । प्रणता प्राञ्जलिः प्राह मही संजातवेपथुः ।।२८

धरोवाच

नमः परस्मै पुरुषाय मायया विन्यस्तनानातनवे गुणात्मने ।नमः स्वरूपानुभवेन निर्धत- द्रव्यक्रियाकारकविभ्रमोर्मये ।।२९ येनाहमात्मायतनं विनिर्मिता धात्रा यतोऽयं गुणसर्गसङ्ग्रहः । स एव मां हन्तुमुदायुधः स्वरा-डुपस्थितोऽन्यं शरणं कमाश्रये ।।३०

हिंदी अनुवाद :-

महाराज पृथुने कहा- पृथ्वी ! तू मेरी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाली है। तू यज्ञमें देवतारूपसे भाग तो लेती है, किन्तु उसके बदलेमें हमें अन्न नहीं देती; इसलिये आज मैं तुझे मार डालूँगा ।।२२।।

तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने थनका दूध नहीं देती-ऐसी दुष्टता करनेपर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता ।।२३।।

तू नासमझ है, तूने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके उत्पन्न किये हुए अन्नादिके बीजोंको अपनेमें लीन कर लिया है और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भसे निकालती नहीं ।। २४।।

अब मैं अपने बाणोंसे तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदेसे इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनोंका करुण-क्रन्दन शान्त करूँगा ।।२५।।

जो दुष्ट अपना ही पोषण करनेवाला तथा अन्य प्राणियोंके प्रति निर्दय हो – वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो- उसका मारना राजाओंके लिये न मारनेके ही समान है ।। २६।।

तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय मायासे ही यह गौका रूप बनाये हुए है। मैं बाणोंसे तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबलसे प्रजाको धारण करूँगा ।। २७।।

इस समय महाराज पृथु कालकी भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभावसे हाथ जोड़कर कहा ।। २८।।

पृथ्वीने कहा- आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा अपनी मायासे अनेक प्रकारके शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते हैं; वास्तवमें आत्मानुभवके द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादिसे सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ।। २९।।

आप सम्पूर्ण जगत्‌के विधाता हैं; आपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवोंका आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो! जब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारनेको तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरणमें जाऊँ? ।।३०।।

संस्कृत श्लोक :-

य एतदादावसृजच्चराचरं स्वमाययाऽऽत्माश्रययावितर्व्यया ।तयैव सोऽयं किल गोप्तुमुद्यतः कथं नु मां धर्मपरो जिघांसति ।। ३१नूनं बतेशस्य समीहितं जनै- स्तन्मायया दुर्जययाकृतात्मभिः ।न लक्ष्यते यस्त्वकरोदकारयद्- योऽनेक एकः परतश्च ईश्वरः ।।३२सर्गादि योऽस्यानुरुणद्धि शक्तिभि- र्द्रव्यक्रियाकारकचेतनात्मभिः ।तस्मै समुन्नद्धनिरुद्धशक्तये नमः परस्मै पुरुषाय वेधसे ।।३३स वै भवानात्मविनिर्मितं जगद् भूतेन्द्रियान्तःकरणात्मकं विभो ।संस्थापयिष्यन्नज मां रसातला- दभ्युज्जहाराम्भस आदिसूकरः ।।३४अपामुपस्थे मयि नाव्यवस्थिताः प्रजा भवानद्य रिरक्षिषुः किल । स वीरमूर्तिः समभूद्धराधरो यो मां पयस्युग्रशरो जिघांससि ।।३५नूनं जनैरीहितमीश्वराणा- मस्मद्विधैस्तद्गुणसर्गमायया ।न ज्ञायते मोहितचित्तवत्र्मभि २- स्तेभ्यो नमो वीरयशस्करेभ्यः ।।३६

हिंदी अनुवाद :-

कल्पके आरम्भमें आपने अपने आश्रित रहनेवाली अनिर्वचनीया मायासे ही इस चराचर जगत्की रचना की थी और उस मायाके ही द्वारा आप इसका पालन करनेके लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूपधारिणीको किस प्रकार मारना चाहते हैं? ।।३१।।

आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्माको रचकर उनसे विश्वकी रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओंको अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय मायासे विक्षिप्त हो रही है ।।३२।।

आप ही पंचभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहंकाररूप अपनी शक्तियोंके द्वारा क्रमशः जगत्‌की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये समय-समयपर आपकी शक्तियोंका आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परमपुरुष और जगद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है ।। ३३ ।।

अजन्मा प्रभो ! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप जगत्‌की स्थितिके लिये आदिवराहरूप होकर मुझे रसातलसे जलके बाहर लाये थे ।। ३४।।

इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने धराधर नाम पाया था; आज वही आप वीरमूर्तिसे जलके ऊपर नौकाके समान स्थित मेरे ही आश्रय रहनेवाली प्रजाकी रक्षा करनेके अभिप्रायसे पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देनेके अपराधमें मुझे मारना चाहते हैं ।। ३५।।

इस त्रिगुणात्मक सृष्टिकी रचना करनेवाली आपकी मायासे मेरे-जैसे साधारण जीवोंके चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ जैसे लोग तो आपके भक्तोंकी लीलाओंका भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रियाका उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अतः जो इन्द्रिय-संयमादिके द्वारा वीरोचित यज्ञका विस्तार करते हैं, ऐसे आपके भक्तोंको भी नमस्कार है ।।३६।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुविजये धरित्रीनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ।।१७।।

१. प्रा० पा०- न्यस्तमायात ०।

१. प्रा० पा०- विरुद्ध०। २० प्रा० पा० – चित्तकर्म ०।

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