Bhagwat puran skandh 4 chapter 12( भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःद्वादशोऽध्यायः ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति)

Bhagwat puran skandh 4 chapter 12( भागवत पुराण चतुर्थःस्कन्धःद्वादशोऽध्यायः ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति)

अथ द्वादशोऽध्यायः ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति

 संस्कृत श्लोक: –

मैत्रेय उवाच

ध्रुवं निवृत्तं प्रतिबुद्धय वैशसा- दपेतमन्युं भगवान् धनेश्वरः । तत्रागतश्चारणयक्षकिन्नरैः संस्तूयमानोऽभ्यवदत्कृतांजलिम् ।।१

धनद उवाच

भो भोः क्षत्रियदायाद परितुष्टोऽस्मि तेऽनघ । यस्त्वं पितामहादेशाद्वैरं दुस्त्यजमत्यजः ।।२

हिन्दी अनुवाद: –

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! ध्रुवका क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षोंके वधसे निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नरलोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेरने कहा ।।१।।

श्रीकुबेरजी बोले-शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार ! तुमने अपने दादाके उपदेशसे ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग दिया; इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ।।२।।

संस्कृत श्लोक: –

न भवानवधीद्यक्षान्न यक्षा भ्रातरं तव । काल एव हि भूतानां प्रभुरप्ययभावयोः ।।३ अहं त्वमित्यपार्था धीरज्ञानात्पुरुषस्य हि । स्वाप्नीवाभात्यतद्ध्यानाद्यया बन्धविपर्ययौ ।।४ तद्गच्छ ध्रुव भद्रं ते भगवन्तमधोक्षजम् । सर्वभूतात्मभावेन सर्वभूतात्मविग्रहम् ।।५ भजस्व भजनीयाङ्घ्रिमभवाय भवच्छिदम् । युक्तं विरहितं शक्त्या गुणमय्याऽऽत्ममायया ।।६ वृणीहि कामं नृप यन्मनोगतं

मत्तस्त्वमौत्तानपदेऽविशङ्कितः । वरं वरार्होऽम्बुजनाभपादयो-

रनन्तरं त्वां वयमङ्ग शुश्रुम ।।७

मैत्रेय उवाच

स राजराजेन वराय चोदितो ध्रुवो महाभागवतो महामतिः ।

हरौ स वनेऽचलितां स्मृतिं यया तरत्ययत्नेन दुरत्ययं तमः ।।८ तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः । पश्यतोऽन्तर्दधे सोऽपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ।।९ अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः । द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ।।१० सर्वात्मन्यच्युतेऽसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्वहन् । ददर्शात्मनि भूतेषु तमेवावस्थितं विभुम् ।।११ तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् । गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजाः ।।१२

हिन्दी अनुवाद: –

वास्तवमें न तुमने यक्षोंको मारा है और न यक्षोंने तुम्हारे भाईको। समस्त जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण तो एकमात्र काल ही है ।।३।।

यह मैं-तू आदि मिथ्याबुद्धि तो जीवको अज्ञानवश स्वप्नके समान शरीरादिको ही आत्मा माननेसे उत्पन्न होती है। इसीसे मनुष्यको बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओंकी प्राप्ति होती है ।।४।।

ध्रुव ! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपाशसे मुक्त होनेके लिये सब जीवोंमें समदृ‌ष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरिका भजन करो।

वे संसारपाशका छेदन करनेवाले हैं तथा संसारकी उत्पत्ति आदिके लिये अपनी त्रिगुणात्मिका मायाशक्तिसे युक्त होकर भी वास्तवमें उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करनेयोग्य हैं ।।५-६।।

प्रियवर ! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंके समीप रहनेवाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पानेयोग्य हो। ध्रुव ! तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो ।।७।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! यक्षराज कुबेरने जब इस प्रकार वर माँगनेके लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजीने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरिकी अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागरको पार कर जाता है ।।८।।

इडविडाके पुत्र कुबेरजीने बड़े प्रसन्न मनसे उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते- ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुवजी भी अपनी राजधानीको लौट आये ।।९।।

वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफलके दाता भी हैं ।।१०।।

सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युतमें प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुवजी अपनेमें और समस्त प्राणियोंमें सर्वव्यापक श्रीहरिको ही विराजमान देखने लगे ।।११।।

ध्रुवजी बड़े ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादाके रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिताके समान मानती थी ।।१२।।

संस्कृत श्लोक: –

षट्त्रिंशद्वर्षसाहस्रं शशास क्षितिमण्डलम् । भोगैः पुण्यक्षयं कुर्वन्नभोगैरशुभक्षयम् ।।१३ एवं बहुसवं कालं महात्माविचलेन्द्रियः । त्रिवर्गोपयिकं नीत्वा पुत्रायादान्नृपासनम् ।।१४ मन्यमान इदं विश्वं मायारचितमात्मनि । अविद्यारचित स्वप्नगन्धर्वनगरोपमम् ।।१५ आत्मत्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोश- मन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्याः । भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ।।१६ तस्यां विशुद्धकरणः शिववार्विगाह्य बद्ध्वाऽऽसनं जितमरुन्मनसाऽऽहृताक्षः । स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद् ध्यायंस्तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ।।१७ भक्तिं हरौ भगवति प्रवहन्नजस्र- मानन्दबाष्पकलया मुहुरर्धमानः । विक्लिद्यमानहृदयः पुलकाचिताङ्गो नात्मानमस्मरदसाविति मुक्तलिंगः ।।१८ स ददर्श विमानाग्रयं नभसोऽवतरद् ध्रुवः । विभ्राजयद्दश दिशो राकापतिमिवोदितम् ।।१९ तत्रानु देवप्रवरौ चतुर्भुजौ श्यामौ किशोरावरुणाम्बुजेक्षणौ । स्थिताववष्टभ्य गदां सुवाससौ किरीटहारांगदचारुकुण्डलौ ।।२०

हिन्दी अनुवाद: –

इस प्रकार तरह-तरहके ऐश्वर्यभोगसे पुण्यका और भोगोंके त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मोंके अनुष्ठानसे पापका क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्षतक पृथ्वीका शासन किया ।।१३।।

जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुवने इसी तरह अर्थ, धर्म और कामके सम्पादनमें बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कलको राजसिंहासन सौंप दिया ।।१४।।

इस सम्पूर्ण दृश्य- प्रपंचको अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगरके समान मायासे अपनेमें ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहारभूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य- ये सभी कालके गालमें पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रमको चले गये ।।१५-१६।।

वहाँ उन्होंने पवित्र जलमें स्नानकर इन्द्रियोंको विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसनसे बैठकर प्राणायामद्वारा वायुको वशमें किया। तदनन्तर मनके द्वारा इन्द्रियोंको बाह्य विषयोंसे हटाकर मनको भगवान्‌के स्थूल विराट्स्वरूपमें स्थिर कर दिया।

उसी विराटूपका चिन्तन करते-करते वे अन्तमें ध्याता और ध्येयके भेदसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें लीन हो गये और उस अवस्थामें विरारूपका भी परित्याग कर दिया ।।१७।।

इस प्रकार भगवान् श्रीहरिके प्रति निरन्तर भक्तिभावका प्रवाह चलते रहनेसे उनके नेत्रोंमें बार-बार आनन्दाश्रुओंकी बाढ़-सी आ जाती थी।

इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीरमें रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जानेसे उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही ।।१८।।

इसी समय ध्रुवजीने आकाशसे एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमाका चन्द्र ही उदय हुआ हो ।।१९।।

उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओंका सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमलके समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे ।।२०।।

संस्कृत श्लोक: –

विज्ञाय तावुत्तमगायकिङ्करा- वभ्युत्थितः साध्वसविस्मृतक्रमः । ननाम नामानि गृणन्मधुद्विषः पार्षत्प्रधानाविति संहतांजलिः ।।२१ तं कृष्णपादाभिनिविष्टचेतसं बद्धाञ्जलिं प्रश्रयनम्रकन्धरम् ।

सुनन्दनन्दावुपसृत्य सस्मितं

प्रत्यूचतुः पुष्करनाभसम्मतौ ।। २२

सुनन्दनन्दावूचतुः

भो भो राजन् सुभद्रं ते वाचं नोऽवहितः शृणु ।

यः पंचवर्षस्तपसा भवान्देवमतीतृपत् ।।२३ तस्याखिलजगद्धातुरावां देवस्य शाङ्गिणः ।

पार्षदाविह सम्प्राप्तौ नेतुं त्वां भगवत्पदम् ।। २४ सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वया यत्सूरयोऽप्राप्य विचक्षते परम् । आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयो ग्रहर्क्षताराः परियन्ति दक्षिणम् ।।२५ अनास्थितं ते पितृभिरन्यैरप्यंग कर्हिचित् । आतिष्ठ जगतां वन्द्यं तद्विष्णोः परमं पदम् ।।२६ एतद्विमानप्रवरमुत्तमश्लोकमौलिना । उपस्थापितमायुष्मन्नधिरोढुं त्वमर्हसि ।।२७

मैत्रेय उवाच

निशम्य वैकुण्ठनियोज्यमुख्ययो- र्मधुच्युतं वाचमुरुक्रमप्रियः । कृताभिषेकः कृतनित्यमंगलो मुनीन् प्रणम्याशिषमभ्यवादयत् ।।२८ परीत्याभ्यर्च्य धिष्ण्याग्रयं पार्षदावभिवन्द्य च । इयेष तदधिष्ठातुं बिभ्रद्रूपं हिरण्मयम् ।।२९

हिन्दी अनुवाद: –

उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरिके सेवक जान ध्रुवजी हड़बड़ाहटमें पूजा आदिका क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान्‌के पार्षदोंमें प्रधान हैं- ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदनके नामोंका कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।।२१।।

ध्रुवजीका मन भगवान्के चरणकमलोंमें तल्लीन हो गया और वे हाथ जोड़कर बड़ी नम्रतासे सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरिके प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्दने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा ।। २२ ।।

सुनन्द और नन्द कहने लगे – राजन् ! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान्‌को प्रसन्न कर लिया था ।।२३।।

हम उन्हीं निखिलजगन्नियन्ता शार्ङ्गपाणि भगवान् विष्णुके सेवक हैं और आपको भगवान्‌के धाममें ले जानेके लिये यहाँ आये हैं ।। २४।।

आपने अपनी भक्तिके प्रभावसे विष्णुलोकका अधिकार प्राप्त किया है, जो औरोंके लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँतक नहीं पहुँच सके, वे नीचेसे केवल उसे देखते रहते हैं।

सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाममें निवास कीजिये ।।२५।।

प्रियवर ! आजतक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पदपर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णुका वह परमधाम सारे संसारका वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों ।। २६।।

आयुष्मन् ! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोकशिखामणि श्रीहरिने आपके लिये ही भेजा है, आप इसपर चढ़नेयोग्य हैं ।। २७ ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवान्‌के प्रमुख पार्षदोंके ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुवजीने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्मसे निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रममें रहनेवाले मुनियोंको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया ।।२८।।

इसके बाद उस श्रेष्ठ विमानकी पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदोंको प्रणाम कर सुवर्णके समान कान्तिमान् दिव्य रूप धारणकर उसपर चढ़नेको तैयार हुए ।। २९।।

तदोत्तानपदः पुत्रो ददर्शान्तकमागतम् । मृत्योर्मूर्ध्नि पदं दत्त्वा आरुरोहाद्भुतं गृहम् ।।३० तदा दुन्दुभयो नेदुर्मृदंगपणवादयः । गन्धर्वमुख्याः प्रजगुः पेतुः कुसुमवृष्टयः ।।३१ स च स्वर्लोकमारोक्ष्यन् सुनीतिं जननीं ध्रुवः । अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ।।३२ इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ । दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ।। ३३ तत्र तत्र प्रशंसद्भिः पथि वैमानिकैः सुरैः । अवकीर्यमाणो ददृशे कुसुमैः क्रमशो ग्रहान् ।।३४ त्रिलोकीं देवयानेन सोऽतिव्रज्य मुनीनपि । परस्ताद्यद् ध्रुवगतिर्विष्णोः पदमथाभ्यगात् ।।३५ यद् भ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतो लोकास्त्रयो ह्यनु विभ्राजन्त एते । यन्नाव्रजंजन्तुषु येऽननुग्रहा व्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येऽनिशम् ।।३६ शान्ताः समदृशः शुद्धाः सर्वभूतानुरंजनाः । यान्त्यञ्जसाच्युतपदमच्युतप्रियबान्धवाः ।।३७ इत्युत्तानपदः पुत्रो ध्रुवः कृष्णपरायणः । अभूत्त्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ।।३८ गम्भीरवेगोऽनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् । यस्मिन् भ्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गणः ।।३९ महिमानं विलोक्यास्य नारदो भगवानृषिः । आतोद्यं वितुदन् श्लोकान् सत्रेऽगायत्प्रचेतसाम् ।।४०

हिन्दी अनुवाद: –

इतनेमें ही ध्रुवजीने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्युके सिरपर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमानपर चढ़ गये ।। ३० ।।

उस समय आकाशमें दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलोंकी वर्षा होने लगी ।।३१।।

विमानपर बैठकर ध्रुवजी ज्यों-ही भगवान्‌के धामको जानेके लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें अपनी माता सुनीतिका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माताको छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधामको जाऊँगा?’ ।।३२।।

नन्द और सुनन्दने ध्रुवके हृदयकी बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे- आगे दूसरे विमानपर जा रही हैं ।। ३३।।

उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्गमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलोंकी वर्षा करते जाते थे ।। ३४।।

उस दिव्य विमानपर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकीको पारकर सप्तर्षिमण्डलसे भी ऊपर भगवान् विष्णुके नित्यधाममें पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की ।।३५।।

यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है, इसीके प्रकाशसे तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवोंपर निर्दयता करनेवाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हींकी पहुँच होती है, जो दिन- रात प्राणियोंके कल्याणके लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं ।। ३६ ।।

जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियोंको प्रसन्न रखनेवाले हैं तथा भगवद्भक्तोंको ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमतासे ही इस भगवद्धामको प्राप्त कर लेते हैं ।। ३७।।

इस प्रकार उत्तानपादके पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुवजी तीनों लोकोंके ऊपर उसकी निर्मल चूडामणिके समान विराजमान हुए ।। ३८ ।।

कुरुनन्दन ! जिस प्रकार दायँ चलानेके समय खम्भेके चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेगवाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोकके आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है ।। ३९।।

उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारदने प्रचेताओंकी यज्ञशालामें वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे ।।४०।।

संस्कृत श्लोक: –

नारद उवाच

नूनं सुनीतेः परिदेवताया-

स्तपः प्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् । दृष्ट्वाभ्युपायानपि वेदवादिनो नैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति किं नृपाः ।।४१

यः पंचवर्षो गुरुदारवाक्शरै- र्भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।

वनं मदादेशकरोऽजितं प्रभुं

जिगाय तद्भक्तगुणैः पराजितम् ।।४२ यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढ-

मन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः । षट्पंचवर्षो यदहोभिरल्यैः प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ।।४३

मैत्रेय उवाच

एतत्तेऽभिहितं सर्वं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया । ध्रुवस्योद्दामयशसश्चरितं सम्मतं सताम् ।।४४ धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् । स्वर्यं ध्रौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ।।४५ श्रुत्वैतच्छ्रद्धयाभीक्ष्णमच्युतप्रियचेष्टितम् । भवेद्भक्तिर्भगवति यया स्यात्क्लेशसंक्षयः ।।४६ महत्त्वमिच्छतां तीर्थं श्रोतुः शीलादयो गुणाः । यत्र तेजस्तदिच्छूनां मानो यत्र मनस्विनाम् ।।४७ प्रयतः कीर्तयेत्प्रातः समवाये द्विजन्मनाम् । सायं च पुण्यश्लोकस्य ध्रुवस्य चरितं महत् ।।४८ पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेऽथवा । दिनक्षये व्यतीपाते सङ्क्रमेऽर्कदिनेऽपि वा ।।४९

हिन्दी अनुवाद: –

नारदजीने कहा था- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीतिके पुत्र ध्रुवने तपस्याद्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मोंकी आलोचना करके वेदवादी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओंकी तो बात ही क्या है ।।४१।।

अहो ! वे पाँच वर्षकी अवस्थामें ही सौतेली माताके वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर दुःखी हृदयसे वनमें चले गये और मेरे उपदेशके अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभुको जीत लिया, जो केवल अपने भक्तोंके गुणोंसे ही वशमें होते हैं ।।४२।।

ध्रुवजीने तो पाँच-छः वर्षकी अवस्थामें कुछ दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान्‌को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पदको भूमण्डलमें कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षांतक तपस्या करके भी पा सकता है? ।।४३।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुवजीके चरित्रके विषयमें पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्रकी बड़ी प्रशंसा करते हैं ।।४४।।

यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्वकी प्राप्ति करानेवाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है ।।४५।।

भगवद्भक्त ध्रुवके इस पवित्र चरित्रको जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान्‌की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखोंका नाश हो जाता है ।।४६।।

इसे श्रवण करनेवालेको शीलादि गुणोंकी प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्वकी प्राप्ति करानेवाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियोंका मान बढ़ता है ।।४७।।

पवित्रकीर्ति ध्रुवजीके इस महान् चरित्रका प्रातः और सायंकाल ब्राह्मणादि द्विजातियोंके समाजमें एकाग्र चित्तसे कीर्तन करना चाहिये ।।४८।।

भगवान्‌के परम पवित्र चरणोंकी शरणमें रहनेवाला जो पुरुष इसे निष्कामभावसे पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवारके दिन श्रद्धालु पुरुषोंको सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मामें ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है ।।४९-५०।।

संस्कृत श्लोक: –

श्रावयेच्छ्रद्दधानानां तीर्थपादपदाश्रयः । नेच्छंस्तत्रात्मनाऽऽत्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ।।५०

ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेऽमृतम् । कृपालोर्दीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्णते ।।५१

इदं मया तेऽभिहितं कुरूद्वह ध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मणः । हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातु- गृहं च विष्णुं शरणं यो जगाम ।।५२

हिन्दी अनुवाद: –

यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्गक मर्मसे अनभिज्ञ हैं – उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुषपर देवता अनुग्रह करते हैं ।। ५१।।

ध्रुवजीके कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्थामें ही माताके घर और खिलौनोंका मोह छोड़कर श्रीविष्णुभगवान्‌की शरणमें चले गये थे। कुरुनन्दन ! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया ।।५२।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरितं नाम द्वादशोऽध्यायः ।।१२।।

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