Bhagwat puran skandh 3 chapter 31( भागवत पुराण तृतीय स्कंध: अथैकत्रिंशोऽध्यायः मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन)

Bhagwat puran skandh 3 chapter 31( भागवत पुराण तृतीय स्कंध: अथैकत्रिंशोऽध्यायः मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन)

अथैकत्रिंशोऽध्यायः

मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन

संस्कृत श्लोक :-

श्रीभगवानुवाच

कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये । स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ।।१

हिंदी अनुवाद :-

श्रीभगवान् कहते हैं- माताजी! जब जीवको मनुष्य-शरीरमें जन्म लेना होता है, तो वह भगवान्‌की प्रेरणासे अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्तिके लिये पुरुषके वीर्यकणके द्वारा स्त्रीके उदरमें प्रवेश करता है ।।१।।

वहाँ वह एक रात्रिमें स्त्रीके रजमें मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रिमें बुद‌बुदरूप हो जाता है, दस दिनमें बेरके समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियोंमें अण्डेके रूपमें परिणत हो जाता है ।।२।।

संस्कृत श्लोक :-

कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुदम् । दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यण्डं वा ततः परम् ।।२

मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्वङ्ख्याद्यङ्गविग्रहः । नखलोमास्थिचर्माणि लिङ्गच्छिद्रोद्भवस्त्रिभिः ।।३

चतुर्भिर्धातवः सप्त पञ्चभिः क्षुत्तृडुद्भवः । षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे ।।४

मातुर्जग्धान्नपानाद्यैरेधद्धातुरसम्मते । शेते विण्मूत्रयोर्गर्ते स जन्तुर्जन्तुसम्भवे ।।५

कृमिभिः क्षतसर्वाङ्गः सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् । मूर्च्छामाप्नोत्युरुक्लेशस्तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः ।।६

कटुतीक्ष्णोष्णलवणरूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः । मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः सर्वाङ्गोत्थितवेदनः ।।७

उल्बेन संवृतस्तस्मिन्नन्त्रैश्च बहिरावृतः ।

आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधरः ।।८

अकल्पः स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरे । तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात्कर्म जन्मशतोद्भवम् । स्मरन्दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विन्दते ।।९

हिंदी अनुवाद :-

एक महीनेमें उसके सिर निकल आता है, दो मासमें हाथ-पाँव आदि अंगोंका विभाग हो जाता है और तीन मासमें नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुषके चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ।। ३ ।।

चार मासमें उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीनेमें भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मासमें झिल्लीसे लिपटकर वह दाहिनी कोखमें घूमने लगता है ।।४।।

उस समय माताके खाये हुए अन्न-जल आदिसे उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जन्तुओंके उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्रके गढ़ेमें पड़ा रहता है ।।५।।

वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँके भूखे कीड़े उसके अंग-प्रत्यंग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेशके कारण वह क्षण-क्षणमें अचेत हो जाता है ।।६।।

माताके खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थोंका स्पर्श होनेसे उसके सारे शरीरमें पीड़ा होने लगती है ।।७।।

वह जीव माताके गर्भाशयमें झिल्लीसे लिपटा और आँतोंसे घिरा रहता है। उसका सिर पेटकी ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ।।८।।

वह पिंजड़ेमें बंद पक्षीके समान पराधीन एवं अंगोंको हिलाने-डुलानेमें भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्टकी प्रेरणासे उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैकड़ों जन्मोंके कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्थामें उसे क्या शान्ति मिल सकती है? ।।९।।

संस्कृत श्लोक :-

आरभ्य सप्तमान्मासाल्लब्धबोधोऽपि वेपितः । नैकत्रास्ते सूतिवातैर्विष्ठाभूरिव सोदरः ।।१० नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवधिः कृताञ्जलिः । स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेऽर्पितः ।।११

जन्तुरुवाच

तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त-नानातनोर्भुवि चलच्चरणारवि न्दम् । सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे येनेदृशी गतिरदर्थ्यसतोऽनुरूपा ।।१२ यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा भूतेन्द्रियाशयमयीमवलम्ब्य मायाम् । आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोध- मातप्यमानहृदयेऽवसितं नमामि ।।१३ यः पञ्चभूतरचिते रहितः शरीरे- च्छन्नो यथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोऽहम् । तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनं वन्दे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ।।१४ यन्माययोरुगुणकर्मनिबन्धनेऽस्मिन् सांसारिके पथि चरंस्तदभिश्रमेण । नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकं युक्त्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ।।१५

हिंदी अनुवाद :-

सातवाँ महीना आरम्भ होनेपर उसमें ज्ञान-शक्तिका भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायुसे चलायमान रहनेके कारण वह उसी उदरमें उत्पन्न हुए विष्ठाके कीड़ोंके समान एक स्थानपर नहीं रह सकता ।।१०।।

तब सप्तधातुमय स्थूलशरीरसे बँधा हुआ वह देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणीसे कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोड़कर उस प्रभुकी स्तुति करता है, जिसने उसे माताके गर्भमें डाला है ।।११।।

जीव कहता है- मैं बड़ा अधम हूँ; भलवान्ने मुझे जो इस प्रकारकी गति दिखायी है, वह मेरे योग्स ही है। वे अपनी शरणमें आये हुए इस नश्वर जगत्‌की रक्षाके लिये ही अनेक प्रकारके रूप धारण करते हैं; अतः मैं भी भूतलपर विचरण करनेवाले उन्हींके निर्भय चरणारविन्दोंकी शरण लेता हूँ ।। १२।

जो मैं (जीव) इस माताके उदरमें देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा मायाका आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मोंसे आच्छादित रहनेके कारण बद्धकी तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदयमें प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्माको नमस्कार करता हूँ ।।१३।।

मैं वस्तुतः शरीरादिसे रहित (असंग) होनेपर भी देखनेमें पांचभौतिक शरीरसे सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार)- रूप जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादिके आवरणसे जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुषके नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुषकी मैं वन्दना करता हूँ ।।१४।।

उन्हींकी मायासे अपने स्वरूपकी स्मृति नष्ट हो जानेके कारण यह जीव अनेक प्रकारके सत्त्वादि गुण और कर्मके बन्धनसे युक्त इस संसारमार्गमें तरह-तरहके कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्माकी कृपाके बिना और किस युक्तिसे इसे अपने स्वरूपका ज्ञान हो सकता है ।।१५।।

संस्कृत श्लोक :-

ज्ञानं यदेतददधात्कतमः स देव- स्त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः । तं जीवकर्मपदवीमनुवर्तमाना- स्तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ।।१६

देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग् विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः । इच्छन्नितो विवसितुं गणयन् स्वमासान् निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ।।१७

येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश संग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।

स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ।।१८

पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवधिः शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे । यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणं पश्ये बहिर्हदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ।।१९

सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुः खवासं गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे । यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया मिथ्यामतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ।।२०

हिंदी अनुवाद :-

मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियोंमें एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंशसे विद्यमान हैं। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवीका अनुवर्तन करनेवाले हम अपने त्रिविध तापोंकी शान्तिके लिये उन्हींका भजन करते हैं ।।१६।।

भगवन्! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देहके उदरके भीतर मल, मूत्र और रुधिरके कुएँमें गिरा हुआ है, उसकी जठराग्निसे इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलनेकी इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन् ! अब इस दीनको यहाँसे कब निकाला जायगा? ।।१७।।

स्वामिन् ! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभुने ही इस दस मासके जीवको ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकारसे ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोड़नेके सिवा आपके उस उपकारका बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ।।१८।।

प्रभो! संसारके ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धिके अनुसार अपने शरीरमें होनेवाले सुख-दुःखादिका ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपासे शम- दमादि साधनसम्पन्न शरीरसे युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धिसे आप पुराणपुरुषको अपने शरीरके बाहर और भीतर अहंकारके आश्रयभूत आत्माकी भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ।।१९।।

भगवन् ! इस अत्यन्त दुःखसे भरे हुए गर्भाशयमें यद्यपि मैं बड़े कष्टसे रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूपमें गिरनेकी मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जानेवाले जीवको आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीरमें अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाममें उसे फिर इस संसारचक्रमें ही पड़ना होता है ।। २० ।।

संस्कृत श्लोक :-

तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य आत्मानमाशु तमसः सुहृदाऽऽत्मनैव । भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्र

मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ।।२१

कपिल उवाच

एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः । सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः ।।२२

तेनावसृष्टः सहसा कृत्वावाक् शिर आतुरः । विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ।।२३

पतितो भुव्यसृमूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते । रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः ।।२४

परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः । अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ।।२५

शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुः स्वेदजदूषिते । नेशः कण्डूयनेऽङ्गानामासनोत्थानचेष्टने ।।२६

तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।

रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ।। २७

हिंदी अनुवाद :-

अतः मैं व्याकुलताको छोड़कर हृदयमें श्रीविष्णुभगवान्‌के चरणोंको स्थापितकर अपनी बुद्धिकी सहायतासे ही अपनेको बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्रके पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकारके दोषोंसे युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो ।।२१।।

कपिलदेवजी कहते हैं- माता! वह दस महीनेका जीव गर्भमें ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान्‌की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालकको प्रसवकालकी वायु तत्काल बाहर आनेके लिये ढकेलती है ।। २२ ।।

उसके सहसा ठेलनेपर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्टसे बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वासकी गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ।। २३ ।।

पृथ्वीपर माताके रुधिर और मूत्रमें पड़ा हुआ वह बालक विष्ठाके कीड़ेके समान छटपटाता है। उसका गर्भवासका सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोरसे रोता है ।। २४।।

फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करनेकी शक्ति भी उसमें नहीं होती ।।२५।।

जब उस जीवको शिशु-अवस्थामें मैली-कुचैली खाटपर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीरको खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलनेकी भी सामर्थ्य न होनेके कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ।।२६।।

उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़ेको छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्थाका सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोनेके वह कुछ नहीं कर सकता ।। २७।।

संस्कृत श्लोक :-

इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च । अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानादिद्धमन्युः शुचार्पितः ।।२८

सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना । करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ।।२९

भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे देह्यबुधोऽसकृत् । अहंममेत्यसद्‌ग्राहः करोति कुमतिर्मतिम् ।।३०

तदर्थं कुरुते कर्म यद्बद्धो याति संसृतिम् । योऽनुयाति ददत्क्लेशमविद्याकर्मबन्धनः ।।३१

यद्यसद्भिः पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।

आस्थितो रमते जन्तुस्तमो विशति पूर्ववत् ।।३२

सत्यं शौचं दया मौनं बुद्धिः श्रीर्तीर्यशः क्षमा । शमो दमो भगश्चेति यत्सङ्गाद्याति सङ्क्षयम् ।।३३

तेष्वशान्तेषु मूढेषु खण्डितात्मस्वसाधुषु । सङ्ग न कुर्याच्छोच्येषु योषित्क्रीडामृगेषु च ।।३४

न तथास्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः २ । योषित्सङ्गाद्यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसंगतः ।।३५

प्रजापतिः स्वां दुहितरं दृष्ट्वा तद्रूपधर्षितः । रोहिद्भूतां सोऽन्वधावदृक्षरूपी हतत्रपः ।।३६

हिंदी अनुवाद :-

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड – अवस्थाओंके दुःख भोगकर वह बालक युवावस्थामें पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ।। २८।।

देहके साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जानेके कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करनेके लिये दूसरे कामी पुरुषोंके साथ वैर ठानता है ।।२९।।

खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पंचभूतोंसे रचे हुए इस देहमें मिथ्याभिनिवेशके कारण निरन्तर मैं-मेरेपनका अभिमान करने लगता है ।। ३० ।।

शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रसे बँधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह- तरहके कर्म करता रहता है- जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसारचक्रमें पड़ना होता है ।।३१।।

सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगोंमें लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है और यह उनमें आस्था करके उन्हींका अनुगमन करने लगता है, तो पहलेके समान ही फिर नारकी योनियोंमें पड़ता है ।। ३२ ।।

जिनके संगसे इसके सत्य, शौत (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, वाणीका संयम, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्‌गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शोचनीय, स्त्रियोंके क्रीडामृग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ और देहात्मदर्शी असत्पुरुषोंका संग कभी नहीं करना चाहिये ।। ३३-३४।।

क्योंकि इस जीवको किसी औरका संग करनेसे ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियोंके संगियोंका संग करनेसे होता है ।। ३५।।

एक बार अपनी पुत्री सरस्वतीको देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप लावण्यसे मोहित हो गये थे और उसके मृगीरूप होकर भागनेपर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे ।। ३६।।

संस्कृत श्लोक :-

तत्सृष्टसृष्टसृष्टेषु को न्वखण्डितधीः पुमान् । ऋषि नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ।।३७

बलं मे पश्य मायायाः स्त्रीमय्या जयिनो दिशाम् । या करोति पदाक्रान्तान् भूविजृम्भेण केवलम् ।।३८

सङ्गं न कुर्यात्प्रमदासु जातु योगस्य पारं परमारुरुक्षुः । मत्सेवया प्रतिलब्धात्मलाभो वदन्ति या निरयद्वारमस्य ।। ३९

योपयाति शनैर्माया योषिद्देवविनिर्मिता । तामीक्षेतात्मनो मृत्युं तृणैः कूपमिवावृतम् ।।४०

यां मन्यते पतिं मोहान्मन्मायामृषभायतीम् । स्त्रीत्वं स्त्रीसङ्गतः प्राप्तो वित्तापत्यगृहप्रदम् ।।४१

तामात्मनो विजानीयात्पत्यपत्यगृहात्मकम् । दैवोपसादितं मृत्युं मृगयोर्गायनं यथा ।।४२

देहेन जीवभूतेन लोकाल्लोकमनुव्रजन् । भुञ्जान एव कर्माणि करोत्यविरतं पुमान् ।।४३

जीवो ह्यस्यानुगो देहो भूतेन्द्रियमनोमयः । तन्निरोधोऽस्य मरणमाविर्भावस्तु सम्भवः ।।४४

हिंदी अनुवाद :-

उन्हीं ब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंकी तथा मरीचि आदिने कश्यपादिकी और कश्यपादिने देव-मनुष्यादि प्राणियोंकी सृष्टि की। अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायणको छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी मायासे मोहित न हो ।।३७।।

अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी मायाका बल तो देखो, जो अपने भुकुटि- विलासमात्रसे बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरोंको पैरोंसे कुचल देती है ।। ३८।।

जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा-अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ।।३९।।

भगवान्‌की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदिके मिससे पास आती है, इसे तिनकोंसे ढके हुए कुएँके समान अपनी मृत्यु ही समझे ।।४० ।।

स्त्रीमें आसक्त रहनेके कारण तथा अन्त समयमें स्त्रीका ही ध्यान रहनेसे जीवको स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनिको प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूपमें प्रतीत होनेवाली मेरी मायाको ही धन, पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधेका गान कानोंको प्रिय लगनेपर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियोंको फँसाकर उनके नाशका ही कारण होता है-उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदिको विधाताकी निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ।।४१-४२।।

देवि ! जीवके उपाधिभूत लिंगदेहके द्वारा पुरुष एक लोकसे दूसरे लोकमें जाता है और अपने प्रारब्धकर्मोंको भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहोंकी प्राप्तिके लिये दूसरे कर्म करता रहता है ।।४३।।

जीवका उपाधिरूप लिंगशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मनका कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनोंका परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणीकी ‘मृत्यु’ है और दोनोंका साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है ।।४४।।

संस्कृत श्लोक :-

द्रव्योपलब्धिस्थानस्य द्रव्येक्षायोग्यता यदा । तत्पञ्चत्वमहं मानादुत्पत्तिर्द्रव्यदर्शनम् ।।४५

यथाक्ष्णोर्द्रव्यावयवदर्शनायोग्यता यदा । तदैव चक्षुषो द्रष्टुर्द्रष्टृत्वायोग्यतानयोः ।।४६

तस्मान्न कार्यः सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रमः । बुद्ध्वा जीवगतिं धीरो मुक्तसङ्गश्चरेदिह ।।४७

सम्यग्दर्शनया बुद्ध्या योगवैराग्ययुक्तया । मायाविरचिते लोके चरेन्न्यस्य कलेवरम् ।।४८

हिंदी अनुवाद :-

पदार्थोंकी उपलब्धिके स्थानरूप इस स्थूलशरीरमें जब उनको ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं हूँ- इस अभिमानके साथ उसे देखना उसका जन्म है ।।४५।।

नेत्रोंमें जब किसी दोषके कारण रूपादिको देखनेकी योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखनेमें असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखनेमें असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनोंके साक्षी जीवमें भी वह योग्यता नहीं रहती ।।४६।।

अतः मुमुक्ष पुरुषको मरणादिसे भय, दीनता अथवा मोह नहीं होना चाहिये। उसे जीवके स्वरूपको जानकर धैर्यपूर्वक निःसंगभावसे विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसारमें योग-वैराग्य-युक्त सम्यक् ज्ञानमयी बुद्धिसे शरीरको निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ।।४७-४८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने जीवगतिर्नामैकत्रिंशोऽध्यायः ।।३१।।

१. प्रा० पा०- सङ्गात् किं।

१. प्रा० पा० – दैवमिति प्रतीतः।

१. प्रा० पा० – तपो मौनं बुद्धिर्तीः श्रीर्यशः। २. प्रा० पा० – चास्य प्र०।

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