Bhagwat puran skandh 3 chapter 26( भागवत पुराण तृतीय स्कंध:षड्विंशोऽध्यायः महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन)
अथ षड्विंशोऽध्यायः
महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन
संस्कृत श्लोक :-
श्रीभगवानुवाच
अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् । यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ।।१
ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् । यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रन्थिभेदनम् ।।२
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः । प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम् ।।३
स एष प्रकृतिं सूक्ष्मां दैवीं गुणमयीं विभुः । यदृच्छयैवोपगतामभ्यपद्यत लीलया ।।४
गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः । विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगृहया ।।५
एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान् । कर्मसु क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते ।।६
तदस्य संसृतिर्बन्धः पारतन्त्र्यं च तत्कृतम् । भवत्यकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः ।।७
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः । भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुषं प्रकृतेः परम् ।।८
देवहूतिरुवाच
प्रकृतेः पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम । ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ।।९
हिंदी अनुवाद :-
श्रीभगवान्ने कहा- माताजी ! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वोंके अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृतिके गुणोंसे मुक्त हो जाता है ।।१।।
आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुषके मोक्षका कारण है और वही उसकी अहंकाररूप हृदयग्रन्थिका छेदन करनेवाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञानका मैं तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ ।।२।।
यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, अन्तःकरणमें स्फुरित होनेवाला और स्वयंप्रकाश है ।।३।।
उस सर्वव्यापक पुरुषने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको स्वेच्छासे स्वीकार कर लिया ।।४।।
लीलापरायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणोंद्वारा उन्हींके अनुरूप प्रजाकी सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञानको आच्छादित करनेवाली उसकी आवरणशक्तिसे मोहित हो गया, अपने स्वरूपको भूल गया ।।५।।
इस प्रकार अपनेसे भिन्न प्रकृतिको ही अपना स्वरूप समझ लेनेसे पुरुष प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जानेवाले कर्मोंमें अपनेको ही कर्ता मानने लगता है ।।६।।
इस कर्तृत्वाभिमानसे ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुषको जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रताकी प्राप्ति होती है ।।७।।
कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओंमें पुरुष जो अपनेपनका आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन प्रकृतिको ही कारण मानते हैं तथा वास्तवमें प्रकृतिसे परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुषको सुख-दुःखोंके भोगनेमें कारण मानते हैं ।।८।।
देवहूतिने कहा-पुरुषोत्तम! इस विश्वके स्थूल-सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं उन प्रकृति और पुरुषका लक्षण भी आप मुझसे कहिये ।।९।।
संस्कृत श्लोक :-
श्रीभगवानुवाच
यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत् ।।१०
पंचभिः पंचभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः ।।११
महाभूतानि पंचैव भूरापोऽग्निर्मरुन्नभः । तन्मात्राणि च तावन्ति गन्धादीनि मतानि मे ।।१२
इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग्दृग्रसननासिकाः । वाक्करौ चरणौ मेद्रं पायुर्दशम उच्यते ।।१३
मनो बुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।
चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्या लक्षणरूपया ।।१४
एतावानेव सङ्ख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह । सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पंचविंशकः ।।१५
प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् । अहङ्कारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ।।१६
प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि । चेष्टा यतः स भगवान् काल इत्युपलक्षितः ।।१७
अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः । समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवानात्ममायया ।।१८
दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परः पुमान् । आधत्त वीर्यं सासूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ।।१९
हिंदी अनुवाद :-
श्रीभगवान्ने कहा- जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी सम्पूर्ण विशेष धर्मोंका आश्रय है, उस प्रधान नामक तत्त्वको ही प्रकृति कहते हैं ।।१०।।
पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन चौबीस तत्त्वोंके समूहको विद्वान् लोग प्रकृतिका कार्य मानते हैं ।।११।।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द- ये पाँच तन्मात्र माने गये हैं ।।१२।।
श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु – ये दस इन्द्रियाँ हैं ।।१३।।
मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चारके रूपमें एक ही अन्तःकरण अपनी संकल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूपा चार प्रकारकी वृत्तियोंसे लक्षित होता है ।।१४।।
इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषोंने सगुण ब्रह्मके सन्निवेशस्थान इन चौबीस तत्त्वोंकी संख्या बतलायी है। इनके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है ।।१५।।
कुछ लोग कालको पुरुषसे भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुषका प्रभाव अर्थात् ईश्वरकी संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे मायाके कार्यरूप देहादिमें आत्मत्वका अभिमान करके अहंकारसे मोहित और अपनेको कर्ता माननेवाले जीवको निरन्तर भय लगा रहता है ।।१६।।
मनुपुत्रि ! जिनकी प्रेरणासे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृतिमें गति उत्पन्न होती है, वास्तवमें वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं ।।१७।।
इस प्रकार जो अपनी मायाके द्वारा सब प्राणियोंके भीतर जीवरूपसे और बाहर कालरूपसे व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं ।।१८।।
जब परमपुरुष परमात्माने जीवोंके अदृष्टवश क्षोभको प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवोंकी उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी मायामें चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ।।१९।।
संस्कृत श्लोक :-
विश्वमात्मगतं व्यंजन् कूटस्थो जगदङ्करः । स्वतेजसापिबत्तीव्रमात्मप्रस्वापनं तमः ।।२०
यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छं शान्तं भगवतः पदम् । यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम् ।।२१
स्वच्छत्वमविकारित्वं शान्तत्वमिति चेतसः । वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथापां प्रकृतिः परा ।।२२
महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यसम्भवात् । क्रियाशक्तिरहङ्कारस्त्रिविधः समपद्यत ।।२३
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भवः । मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ।।२४
सहस्रशिरसं साक्षाद्यमनन्तं प्रचक्षते । सङ्कर्षणाख्यं पुरुषं भूतेन्द्रियमनोमयम् ।।२५
कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् । शान्तघोरविमूढत्वमिति वा स्यादहंकृतेः ।।२६
वैकारिकाद्विकुर्वाणान्मनस्तत्त्वमजायत । यत्सङ्कल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसम्भवः ।।२७
यद्विदुर्हानिरुद्धाख्यं हृषीकाणामधीश्वरम् । शारदेन्दीवरश्यामं संराध्यं योगिभिः शनैः ।।२८
हिंदी अनुवाद :-
लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत्के अंकुररूप इस महत्तत्त्वने अपनेमें स्थित विश्वको प्रकट करनेके लिये अपने स्वरूपको आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकारको अपने ही तेजसे पी लिया ।।२०।।
जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान्की उपलब्धिका स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसीको ‘वासुदेव’ कहते हैं ।।२१।।
जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थोंके संसर्गसे पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन-तरंगादिरहित) अवस्थामें अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविकी अवस्थाकी दृष्टिसे स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्व ही वृत्तियोंसहित चित्तका लक्षण कहा गया है ।।२२।।
तदनन्तर भगवान्की वीर्यरूप चित्-शक्तिसे उत्पन्न हुए महत्तत्त्वके विकृत होनेपर उससे क्रिया- शक्तिप्रधान अहंकार उत्पन्न हुआ। वह वैकारिक, तैजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है। उसीसे क्रमशः मन, इन्द्रियों और पंचमहाभूतोंकी उत्पत्ति हुई ।।२३-२४।।
इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहंकारको ही पण्डितजन साक्षात् ‘संकर्षण’ नामक सहस्र सिरवाले अनन्तदेव कहते हैं ।।२५।।
इस अहंकारका देवतारूपसे कर्तृत्व, इन्द्रियरूपसे करणत्व और पंचभूतरूपसे कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणोंके सम्बन्धसे शान्तत्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसीके लक्षण हैं ।। २६ ।।
उपर्युक्त तीन प्रकारके अहंकारमेंसे वैकारिक अहंकारके विकृत होनेपर उससे मन हुआ, जिसके संकल्प-विकल्पोंसे कामनाओंकी उत्पत्ति होती है ।।२७।।
यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नामसे प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमलके समान श्याम वर्णवाले इन अनिरुद्धजीकी शनैः शनैः मनको वशीभूत करके आराधना करते हैं ।। २८ ।।
संस्कृत श्लोक :-
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् बुद्धितत्त्वमभूत्सति । द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिन्द्रियाणामनुग्रहः ।।२९
संशयोऽथ विपर्यासो निश्चयः स्मृतिरेव च ।
स्वाप इत्युच्यते बुद्धेर्लक्षणं वृत्तितः पृथक् ।।३०
तैजसानीन्द्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागशः । प्राणस्य हि क्रिया शक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ।।३१
तामसाच्च विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यचोदितात् ।
शब्दमात्रमभूत्तस्मान्नभः श्रोत्रं तु शब्दगम् ।।३२
अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिंगत्वमेव च । तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ।।३३
भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरन्तरमेव च । प्राणेन्द्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ।।३४
नभसः शब्दतन्मात्रात्कालगत्या विकुर्वतः । स्पर्शोऽभवत्ततो वायुस्त्वक् स्पर्शस्य च संग्रहः ।।३५
मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च । एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ।।३६
चालनं व्यूहनं प्राप्तिर्नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः । सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ।।३७
वायोश्च स्पर्शतन्मात्राद्रूपं दैवेरितादभूत् । समुत्थितं ततस्तेजश्चक्षू रूपोपलम्भनम् ।।३८
हिंदी अनुवाद :-
साध्वि ! फिर तैजस अहंकारमें विकार होनेपर उससे बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। वस्तुका स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियोंके व्यापारमें सहायक होना – पदार्थोंका विशेष ज्ञान करना – ये बुद्धिके कार्य हैं ।।२९।।
वृत्तियोंके भेदसे संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निश्चय, स्मृति और निद्रा भी बुद्धिके ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्न’ है ।। ३० ।।
इन्द्रियाँ भी तैजस अहंकारका ही कार्य हैं। कर्म और ज्ञानके विभागसे उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राणकी शक्ति है और ज्ञान बुद्धिकी ।।३१।।
भगवान्की चेतनशक्तिकी प्रेरणासे तामस अहंकारके विकृत होनेपर उससे शब्दतन्मात्रका प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्रसे आकाश तथा शब्दका ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ।।३२।।
अर्थका प्रकाशक होना, ओटमें खड़े हुए वक्ताका भी ज्ञान करा देना और आकाशका सूक्ष्म रूप होना- विद्वानोंके मतमें यही शब्दके लक्षण हैं ।।३३।।
भूतोंको अवकाश देना, सबके बाहर भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मनका आश्रय होना-ये आकाशके वृत्ति (कार्य) रूप लक्षण हैं ।। ३४।।
फिर शब्दतन्मात्रके कार्य आकाशमें कालगतिसे विकार होनेपर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्शका ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ।।३५।।
कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायुका सूक्ष्म रूप होना- ये स्पर्शके लक्षण हैं ।। ३६।।
वृक्षकी शाखा आदिको हिलाना, तृणादिको इकट्ठा कर देना, सर्वत्र पहुँचना, गन्धादियुक्त द्रव्यको घ्राणादि इन्द्रियोंके पास तथा शब्दको श्रोत्रेन्द्रियके समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियोंको कार्यशक्ति देना-ये वायुकी वृत्तियोंके लक्षण हैं ।। ३७।।
तदनन्तर दैवकी प्रेरणासे स्पर्शतन्मात्रविशिष्ट वायुके विकृत होनेपर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूपको उपलब्ध करानेवाली नेत्रेन्द्रियका प्रादुर्भाव हुआ ।।३८ ।।
संस्कृत श्लोक :-
द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च । तेजस्त्वं तेजसः साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तयः ।।३९
द्योतनं पचनं पानमदनं हिममर्दनम् । तेजसो वृत्तयस्त्वेताः शोषणं क्षुत्तृडेव च ।।४०
रूपमात्राद्विकुर्वाणात्तेजसो दैवचोदितात् । रसमात्रमभूत्तस्मादम्भो जिह्वा रसग्रहः ।।४१
कषायो मधुरस्तिक्तः कट्वम्ल इति नैकधा । भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ।।४२
क्लेदनं पिण्डनं तृप्तिः प्राणनाप्यायनोन्दनम् । तापापनोदो भूयस्त्वमम्भसो वृत्तयस्त्विमाः ।।४३
रसमात्राद्विकुर्वाणादम्भसो दैवचोदितात् । गन्धमात्रमभूत्तस्मात्पृथ्वी घ्राणस्तु गन्धगः ।।४४
करम्भपूतिसौरभ्यशान्तोग्राम्लादिभिः पृथक् । द्रव्यावयववैषम्याद्गन्ध एको विभिद्यते ।।४५
भावनं ब्रह्मणः स्थानं धारणं सद्विशेषणम् । सर्वसत्त्वगुणोद्भेदः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ।।४६
नभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्छ्रोत्रमुच्यते । वायोर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य तत्स्पर्शनं विदुः ।।४७
हिंदी अनुवाद :-
साध्वि! वस्तुके आकारका बोध कराना, गौण होना – द्रव्यके अंगरूपसे प्रतीत होना, द्रव्यका जैसा आकार-प्रकार और परिमाण आदि हो, उसी रूपमें उपलक्षित होना तथा तेजका स्वरूपभूत होना- ये सब रूपतन्मात्रकी वृत्तियाँ हैं ।। ३९।।
चमकना, पकाना, शीतको दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा करना और उनकी निवृत्तिके लिये भोजन एवं जलपान कराना- ये तेजकी वृत्तियाँ हैं ।।४०।।
फिर दैवकी प्रेरणासे रूपतन्मात्रमय तेजके विकृत होनेपर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रसको ग्रहण करानेवाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई ।।४१।।
रस अपने शुद्ध स्वरूपमें एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थोंके संयोगसे वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकारका हो जाता है ।।४२।।
गीला करना, मिट्टी आदिको पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, पदार्थोंको मृदु कर देना, तापकी निवृत्ति करना और कूपादिमेंसे निकाल लिये जानेपर भी वहाँ बार-बार पुनः प्रकट हो जाना- ये जलकी वृत्तियाँ हैं ।।४३।।
इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जलके विकृत होनेपर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्धको ग्रहण करानेवाली घ्राणेन्द्रिय प्रकट हुई ।।४४।।
गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्यभागोंकी न्यूनाधिकतासे वह मिश्रितगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकारका हो जाता है ।।४५।।
प्रतिमादि रूपसे ब्रह्मकी साकार-भावनाका आश्रय होना, जल आदि कारणतत्त्वोंसे भिन्न किसी दूसरे आश्रयकी अपेक्षा किये बिना ही स्थित रहना, जल आदि अन्य पदार्थोंको धारण करना, आकाशादिका अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदोंको सिद्ध करना) तथा परिणामविशेषसे सम्पूर्ण प्राणियोंके [स्त्रीत्व, पुरुषत्व आदि] गुणोंको प्रकट करना-ये पृथ्वीके कार्यरूप लक्षण हैं ।।४६।।
आकाशका विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय है; वायुका विशेष गुण स्पर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है ।।४७।।
संस्कृत श्लोक :-
तेजोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्चक्षुरुच्यते । अम्भोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तद्रसनं विदुः । भूमेर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य स घ्राण उच्यते ।।४८
परस्य दृश्यते धर्मो ह्यपरस्मिन् समन्वयात् । अतो विशेषो भावानां भूमावेवोपलक्ष्यते ।।४९
एतान्यसंहत्य यदा महदादीनि सप्त वै । कालकर्मगुणोपेतो जगदादिरुपाविशत् ।।५०
ततस्तेनानुविद्धेभ्यो युक्तेभ्योऽण्डमचेतनम् । उत्थितं पुरुषो यस्मादुदतिष्ठदसौ विराट् ।।५१
एतदण्डं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरैः । तोयादिभिः परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहिः २ । यत्र लोकवितानोऽयं रूपं भगवतो हरेः ।।५२
हिरण्मयादण्डकोशादुत्थाय सलिलेशयात् । तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ।।५३
निरभिद्यतास्य प्रथमं मुखं वाणी ततोऽभवत् । वाण्या वह्निरथो नासे प्राणोतो घ्राण एतयोः ।।५४
घ्राणाद्वायुरभिद्येतामक्षिणी चक्षुरेतयोः ।
तस्मात्सूर्यो व्यभिद्येतां कर्णो श्रोत्रं ततो दिशः ।।५५
हिंदी अनुवाद :-
तेजका विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जलका विशेष गुण रस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और पृथ्वीका विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं ।।४८।।
वायु आदि कार्य-तत्त्वोंमें आकाशादि कारण-तत्त्वोंके रहनेसे उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतोंके गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वीमें ही पाये जाते हैं ।।४९।।
जब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचभूत- ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके- पृथक् पृथक् ही रह गये, तब जगत्के आदिकारण श्रीनारायणने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणोंके सहित उनमें प्रवेश किया ।।५०।।
फिर परमात्माके प्रवेशसे क्षुब्ध और आपसमें मिले हुए उन तत्त्वोंसे एक जड अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्डसे इस विराट् पुरुषकी अभिव्यक्ति हुई ।।५१।।
इस अण्डका नाम विशेष है, इसीके अन्तर्गत श्रीहरिके स्वरूपभूत चौदहों भुवनोंका विस्तार है। यह चारों ओरसे क्रमशः एक-दूसरेसे दसगुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार और महत्तत्त्व- इन छः आवरणोंसे घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृतिका है ।। ५२।।
कारणमय जलमें स्थित उस तेजोमय अण्डसे उठकर उस विराट् पुरुषने पुनः उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकारके छिद्र किये ।। ५३ ।।
सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाक्- इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक्का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाकके छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई ।।५४।।
घ्राणके बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानोंके छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत्र और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए ।।५५।।
संस्कृत श्लोक :-
निर्बिभेद विराजस्त्वग्रोमश्मश्वादयस्ततः । तत ओषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे ततः ।।५६
रेतस्तस्मादाप आसन्निरभिद्यत वै गुदम् । गुदादपानोऽपानाच्च मृत्युर्लोकभयङ्करः ।।५७
हस्तौ च निरभिद्येतां बलं ताभ्यां ततः स्वराट् । पादौ च निरभिद्येतां गतिस्ताभ्यां ततो हरिः ।।५८
नाड्योऽस्य निरभिद्यन्त ताभ्यो लोहितमाभृतम् । नद्यस्ततः समभवन्नुदरं निरभिद्यत ।।५९
क्षुत्पिपासे ततः स्यातां समुद्रस्त्वेतयोरभूत् ।
अथास्य हृदयं भिन्नं हृदयान्मन उत्थितम् ।। ६०
मनसश्चन्द्रमा जातो बुद्धिर्बुद्धेर्गिरां पतिः । अहङ्कारस्ततो रुद्रश्चित्तं चैत्यस्ततोऽभवत् ।।६१
एते ह्यभ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेऽशकन् । पुनराविविशुः खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् ।।६२
वह्निर्वाचा मुखं भेजे नोदतिष्ठत्तदा विराट् । घ्राणेन नासिके वायुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६३
हिंदी अनुवाद :-
इसके बाद उस विराट् पुरुषके त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिरके बाल प्रकट हुए और उनके बाद त्वचाकी अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुईं। इसके पश्चात् लिंग प्रकट हुआ ।।५६।।
उससे वीर्य और वीर्यके बाद लिंगका अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपानके बाद उसका अभिमानी लोकोंको भयभीत करनेवाला मृत्युदेवता उत्पन्न हुआ ।।५७।।
तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बलके बाद हस्तेन्द्रियका अभिमानी इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमनकी क्रिया) और फिर पादेन्द्रियका अभिमानी विष्णुदेवता उत्पन्न हुआ ।।५८।।
इसी प्रकार जब विराट् पुरुषके नाडियाँ प्रकट हुईं, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुईं। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट हुआ ।। ५९।।
उससे क्षुधा-पिपासाकी अभिव्यक्ति हुई और फिर उदरका अभिमानी समुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदयसे मनका प्राकट्य हुआ ।।६०।।
मनके बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदयसे ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहंकार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ ।। ६१।।
जब ये क्षेत्रज्ञके अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुषको उठानेमें असमर्थ रहे, तो उसे उठानेके लिये क्रमशः फिर अपने-अपने उत्पत्तिस्थानोंमें प्रविष्ट होने लगे ।। ६२।।
अग्निने वाणीके साथ मुखमें प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायुने घ्राणेन्द्रियके सहित नासाछिद्रोंमें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६३ ।।
संस्कृत श्लोक :-
अक्षिणी चक्षुषाऽऽदित्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् । श्रोत्रेण कर्णौ च दिशो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६४
त्वचं रोमभिरोषध्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् । रेतसा शिश्नमापस्तु नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६५
गुदं मृत्युरपानेन नोदतिष्ठत्तदा विराट् । हस्ताविन्द्रो बलेनैव नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६६
विष्णुर्गत्यैव चरणौ नोदतिष्ठत्तदा विराट् । नाडीर्नद्यो लोहितेन नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६७
क्षुत्तृड्भ्यामुदरं सिन्धुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् । हृदयं मनसा चन्द्रो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६८
बुद्धया ब्रह्मापि हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् । रुद्रोऽभिमत्या हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।।६९
चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञः प्राविशद्यदा । विराट् तदैव पुरुषः सलिलादुदतिष्ठत ।।७०
यथा प्रसुप्तं पुरुषं प्राणेन्द्रियमनोधियः । प्रभवन्ति विना येन नोत्थापयितुमोजसा ।।७१
तमस्मिन् प्रत्यगात्मानं धिया योगप्रवृत्तया । भक्त्या विरक्त्या ज्ञानेन विविच्यात्मनि चिन्तयेत् ।।७२
हिंदी अनुवाद :-
सूर्यने चक्षुके सहित नेत्रोंमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओंने श्रवणेन्द्रियके सहित कानोंमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६४।।
ओषधियोंने रोमोंके सहित त्वचामें प्रवेश किया फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जलने वीर्यके साथ लिंगमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६५।।
मृत्युने अपानके साथ गुदामें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्रने बलके साथ हाथोंमें प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६६।।
विष्णुने गतिके सहित चरणोंमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। नदियोंने रुधिरके सहित नाडियोंमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६७।।
समुद्रने क्षुधा-पिपासाके सहित उदरमें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमाने मनके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६८ ।।
ब्रह्माने बुद्धिके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्रने अहंकारके सहित उसी हृदयमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। ६९।।
किन्तु जब चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञने चित्तके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जलसे उठकर खड़ा हो गया ।।७०।।
जिस प्रकार लोकमें प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञकी सहायताके बिना सोये हुए प्राणीको अपने बलसे नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुषको भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्माके बिना नहीं उठा सके ।।७१।।
अतः भक्ति, वैराग्य और चित्तकी एकाग्रतासे प्रकट हुए ज्ञानके द्वारा उस अन्तरात्मस्वरूप क्षेत्रज्ञको इस शरीरमें स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये ।। ७२ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेये तत्त्वसमाम्नाये षड्विंशोऽध्यायः ।।२६।।
१. प्रा० पा०- प्रधानं पुरुषं प्रा०।
* जिसे अध्यात्ममें चित्त कहते हैं; उसीको अधिभूतमें महत्तत्त्व कहा जाता है। चित्तमें अधिष्ठाता ‘क्षेत्रज्ञ’ और उपास्यदेव ‘वासुदेव’ हैं। इसी प्रकार अहंकारमें अधिष्ठाता ‘रुद्र’ और उपास्यदेव ‘संकर्षण’ है, बुद्धिमें अधिष्ठाता ‘ब्रह्मा’ और उपास्यदेव ‘प्रद्युम्न’ है तथा मनमें अधिष्ठाता ‘चन्द्रमा’ और उपास्यदेव ‘अनिरुद्ध’ है।
१. प्रा० पा०- क्वचित्। २. प्रा० पा० – तत्त्वन्नभः । १. प्रा० पा०- लभ्यते। २. प्रा० पा०- नेन वृतै०।
१. प्रा० पा०- माश्रितम् ।