Bhagwat puran skandh 3 chapter 24( भागवत पुराण तृतीय स्कंध:चतुर्विंशोऽध्यायः श्रीकपिलदेवजीका जन्म)

Bhagwat puran skandh 3 chapter 24( भागवत पुराण तृतीय स्कंध:चतुर्विंशोऽध्यायः श्रीकपिलदेवजीका जन्म)

अथ चतुर्विंशोऽध्यायः श्रीकपिलदेवजीका जन्म

संस्कृत श्लोक :-

मैत्रेय उवाच

निर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनिः । दयालुः शालिनीमाहशुक्लाभिव्याहृतं स्मरन् ।।१

ऋषिरुवाच

मा खिदो राजपुत्रीत्थमात्मानं प्रत्यनिन्दिते । भगवांस्तेऽक्षरो गर्भमदूरात्सम्प्रपत्स्यते ।।२ धृतव्रतासि भद्रं ते दमेन नियमेन च । तपोद्रविणदानैश्च श्रद्धया चेश्वरं भज ।।३ स त्वयाऽऽराधितः शुक्लो वितन्वन्मामकं यशः । छेत्ता ते हृदयग्रन्थिमौदर्यो ब्रह्मभावनः ।।४

मैत्रेय उवाच

देवहूत्यपि संदेशं गौरवेण प्रजापतेः । सम्यक् श्रद्धाय पुरुषं कूटस्थमभजद्गुरुम् ।।५ तस्यां बहुतिथे काले भगवान्मधुसूदनः । कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि ।।६

हिंदी अनुवाद :-

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनिको भगवान् विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ।।१।।

कर्दमजी बोले-दोषरहित राजकुमारी ! तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमें अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ।।२।।

प्रिये! तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अतः तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का भजन करो ।।३।।

इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहंकारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे ।।४।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव-बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्‌गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी ।।५।।

इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान् मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठमेंसे अग्नि ।।६।।

संस्कृत श्लोक :-

अवादयंस्तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघनाः । गायन्ति तं स्म गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसो मुदा ।।७ पेतुः सुमनसो दिव्याः खेचरैरपवर्जिताः । प्रसेदुश्च दिशः सर्वा अम्भांसि च मनांसि च ।।८ तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम् । स्वयम्भूः साकमृषिभिर्मरीच्यादिभिरभ्ययात् ।।९ भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन् । तत्त्वसंख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानजः स्वराट् ।।१० सभाजयन् विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम् । प्रहृष्यमाणैरसुभिः कर्दमं चेदमभ्यधात् ।।११

ब्रह्मोवाच

त्वया मेऽपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः । यन्मे संजगृहे वाक्यं भवान्मानद मानयन् ।।१२ एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकैः । बाढमित्यनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वचः ।।१३ इमा दुहितरः सभ्य तव वत्स सुमध्यमाः । सर्गमेतं प्रभावैः स्वैर्वृहयिष्यन्त्यनेकधा ।।१४ अतस्त्वमृषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि । आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि ।।१५ वेदाहमाद्यं पुरुषमवतीर्णं स्वमायया । भूतानां शेवधिं देहं बिभ्राणं कपिलं मुने ।।१६ ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणामुद्धरन् जटाः । हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदाम्बुजः ।।१७

हिंदी अनुवाद :-

उस समय आकाशमें मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं ।।७।।

आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये ।।८।।

इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रममें मरीचि आदि मुनियोंके सहित श्रीब्रह्माजी आये ।।९।।

शत्रुदमन विदुरजी ! स्वतःसिद्ध ज्ञानसे सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं ।।१०।।

अतः भगवान् जिस कार्यको करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्तसे अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजीसे इस प्रकार कहा ।।११।।

श्रीब्रह्माजीने कहा-प्रिय कर्दम ! तुम दूसरोंको मान देनेवाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भावसे मेरी पूजा सम्पन्न हुई है ।।१२।।

पुत्रोंको अपने पिताकी सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेशको स्वीकार करें ।।१३।।

बेटा! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशोंद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी ।।१४।।

अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरोंको इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ ।।१५।।

मुने ! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं- उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमायासे कपिलके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ।।१६।।

[फिर देवहूतिसे बोले-] राजकुमारी ! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलांकित चरण-कमलोंवाले शिशुके रूपमें कैटभासुरको मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोंकी वासनाओंका मूलोच्छेदन करनेके लिये, तेरे गर्भमें प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियोंको काटकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरेंगे ।।१७-१८।।

ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचार्योंके भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नामसे विख्यात होंगे ।।१९।।

संस्कृत श्लोक :-

एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः ।

अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति ।।१८

अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः ।

लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः ।।१९

मैत्रेय उवाच

तावाश्वास्य जगत्स्रष्टा कुमारैः सहनारदः । हंसो हंसेन यानेन त्रिधामपरमं ययौ ।।२० गते शतधृतौ क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः ।

यथोदितं स्वदुहितृः प्रादाद्विश्वसृजां ततः ।।२१ मरीचये कलां प्रादादनसूयामथात्रये । श्रद्धामङ्गिरसेऽयच्छत्पुलस्त्याय हविर्भुवम् ।।२२ पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम् । ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद्वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम् ।।२३ अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते । विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत् ।।२४ ततस्त ऋषयः क्षत्तः कृतदारा निमन्त्र्य तम् । प्रातिष्ठन्नन्दिमापन्नाः स्वं स्वमाश्रममण्डलम् ।।२५ स चावतीर्णं त्रियुगमाज्ञाय विबुधर्षभम् । विविक्त उपसंगम्य प्रणम्य समभाषत ।।२६ अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमंगलैः । कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः ।।२७ बहुजन्मविपक्वेन सम्यग्योगसमाधिना । द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम् ।। २८ स एव भगवानद्य हेलनं नगणय्य नः । गृहेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषणः ।।२९

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! जगत्‌की सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनोंको

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