Bhagwat puran skandh 3 chapter 20( भागवत पुराण तृतीय स्कंध: विंशोऽध्यायः ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन)

Bhagwat puran  skandh 3 chapter 20( भागवत पुराण तृतीय स्कंध: विंशोऽध्यायः ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन)

अथ विंशोऽध्यायः ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

शौनक उवाच

संस्कृत श्लोक :-

महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायम्भुवो मनुः । कान्यन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गायावरजन्मनाम् ।।१ क्षत्ता महाभागवतः कृष्णस्यैकान्तिकः सुहृत् । यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यमघवानिति ।।२ द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः । सर्वात्मना श्रितः कृष्णं तत्परांश्चाप्यनुव्रतः ।।३ किमन्वपृच्छन्मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया । उपगम्य कुशावर्त आसीनं तत्त्ववित्तमम् ।।४ तयोः संवदतोः सूत प्रवृत्ता ह्यमलाः कथाः । आपो गांगा इवाघघ्नीहरेः पादाम्बुजाश्रयाः ।।५ ता नः कीर्तय भद्रं ते कीर्तन्योदारकर्मणः । रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं पिबन् ।।६ एवमुग्रश्रवाः पृष्ट ऋषिभिर्नैमिषायनैः । भगवत्यर्पिताध्यात्मस्तानाह श्रूयतामिति ।।७

सूत उवाच

संस्कृत श्लोक :-

हरेधृतक्रोडतनोः स्वमायया निशम्य गोरुद्धरणं रसातलात् । लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतं संजातहर्षो मुनिमाह भारतः २ ।।८

हिंदी अनुवाद :-

शौनकजी कहते हैं-सूतजी ! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनुने आगे होनेवाली सन्ततिको उत्पन्न करनेके लिये किन-किन उपायोंका अवलम्बन किया? ।।१।।

विदुरजी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रको, उनके पुत्र दुर्योधनके सहित, भगवान् श्रीकृष्णका अनादर करनेके कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था ।।२।।

वे महर्षि द्वैपायनके पुत्र थे और महिमामें उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके आश्रित और कृष्णभक्तोंके अनुगामी थे ।।३।।

तीर्थसेवनसे उनका अन्तःकरण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त्तक्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेयजीके पास जाकर और क्या पूछा? ।।४।।

सूतजी! उन दोनोंमें वार्तालाप होनेपर श्रीहरिके चरणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणोंसे निकले हुए गंगाजलके समान सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली होंगी ।।५।।

सूतजी ! आपका मंगल हो, आप हमें भगवान्‌की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभुके उदार चरित्र तो कीर्तन करनेयोग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा जो श्रीहरिके लीलामृतका पान करते-करते तृप्त हो जाय ।।६।।

नैमिषारण्यवासी मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर उग्रश्रवा सूतजीने भगवान्में चित्त लगाकर उनसे कहा- ‘सुनिये’ ।।७।।

सूतजीने कहा-मुनिगण! अपनी मायासे वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी रसातलसे पृथ्वीको निकालने और खेलमें ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्षको मार डालनेकी लीला सुनकर विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेयजीसे कहा ।।८।।

विदुर उवाच

संस्कृत श्लोक :-

प्रजापतिपतिः सृष्ट्वा प्रजासर्गे प्रजापतीन् ।किमारभत मे ब्रह्मन् प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ।।९ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु स्वायम्भुवो मनुः ।ते वै ब्रह्मण आदेशात्कथमेतदभावयन् ।।१०सद्वितीयाः किमसृजन् स्वतन्त्रा उत कर्मसु ।आहोस्वित्संहताः सर्व इदं स्म समकल्पयन् ।।११

मैत्रेय उवाच

दैवेन दुर्वितर्येण परेणानिमिषेण च ।जातक्षोभाद्भगवतो महानासीद् गुणत्रयात् ।।१२रजः प्रधानान्महतस्त्रिलिंगो दैवचोदितात् ।जातः ससर्ज भूतादिर्वियदादीनि पंचशः ।।१३तानि चैकैकशः स्रष्टुमसमर्थानि भौतिकम् ।संहत्य दैवयोगेन हैममण्डमवासृजन् ।।१४सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः । साग्रं वै वर्षसाहस्रमन्ववात्सीत्तमीश्वरः ।।१५तस्य नाभेरभूत्पद्म सहस्रार्कोरूदीधिति । सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयमभूत्स्वराट् ।।१६सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये । लोकसंस्थां यथापूर्व निर्ममे संस्थया स्वया ।।१७

हिंदी अनुवाद :-

विदुरजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप परोक्ष विषयोंको भी जाननेवाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियोंके पति श्रीब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंको उत्पन्न करके फिर सृष्टिको बढ़ानेके लिये क्या किया ।।९।।

मरीचि आदि मुनीश्वरोंने और स्वायम्भुव मनुने भी ब्रह्माजीकी आज्ञासे किस प्रकार प्रजाकी वृद्धि की? ।।१०।।

क्या उन्होंने इस जगत्‌को पत्नियोंके सहयोगसे उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्यमें स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत्की रचना की? ।।११।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! जिसकी गतिको जानना अत्यन्त कठिन है-उस जीवोंके प्रारब्ध, प्रकृतिके नियन्ता पुरुष और काल- इन तीन हेतुओंसे तथा भगवान्‌की सन्निधिसे त्रिगुणमय प्रकृतिमें क्षोभ होनेपर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ।।१२।।

दैवकी प्रेरणासे रजःप्रधान महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस – तीन प्रकारका अहङ्कार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वोंके अनेक वर्ग प्रकट किये ।।१३।।

वे सब अलग-अलग रहकर भूतोंके कार्यरूप ब्रह्माण्डकी रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्‌की शक्तिसे परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्डकी रचना की ।।१४।।

वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्थामें एक हजार वर्षोंसे भी अधिक समयतक कारणाब्धिके जलमें पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान्ने प्रवेश किया ।।१५।।

उसमें अधिष्ठित होनेपर उनकी नाभिसे सहस्र सूर्योंके समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदायका आश्रय था। उसीसे स्वयं ब्रह्माजीका भी आविर्भाव हुआ है ।।१६।।

जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणदेवने ब्रह्माजीके अन्तःकरणमें प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्थाके अनुसार लोकोंकी रचना करने लगे ।।१७।।

संस्कृत श्लोक :-

ससर्जच्छाययाविद्यां पंचपर्वाणमग्रतः । तामिस्रमन्धतामिस्रं तमो मोहो महातमः ।।१८विससर्जात्मनः कायं नाभिनन्दंस्तमोमयम् !जगृहुर्यक्षरक्षांसि रात्रिं क्षुत्तृट्समुद्भवाम् ।।१९क्षुत्तृड्भ्यामुपसृष्टास्ते तं जग्धुमभिदुद्रुवुः । मा रक्षतैनं जक्षध्वमित्यूचुः क्षुत्तृडर्दिताः ।।२०देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत रक्षत । अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं बभूविथ ।।२१देवताः प्रभया या या दीव्यन् प्रमुखतोऽसृजत् । ते अहार्षुर्देवयन्तो विसृष्टां तां प्रभामहः ।।२२देवोऽदेवाञ्जघनतः सृजति स्मातिलोलुपान् । त एनं लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिरे ।। २३ततो हसन् स भगवानसुरैर्निरपत्रपैः । अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः परापतत् ।।२४स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् । अनुग्रहाय भक्तानामनुरूपात्मदर्शनम् ।।२५पाहि मां परमात्मंस्ते प्रेषणेनासृजं प्रजाः । ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति मां प्रभो ।।२६त्वमेकः किल लोकानां क्लिष्टानां क्लेशनाशनः । त्वमेकः क्लेशदस्तेषामनासन्नपदां तव ।।२७

हिंदी अनुवाद :-

सबसे पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह-यों पाँच प्रकारकी अविद्या उत्पन्न की ।।१८।।

ब्रह्माजीको अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती है-ऐसे रात्रिरूप उस शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोंने ग्रहण कर लिया ।।१९।।

उस समय भूख-प्याससे अभिभूत होकर वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे – ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’ क्योंकि वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे ।।२०।।

ब्रह्माजीने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो!’ (उनमेंसे जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये) ।।२१।।

फिर ब्रह्माजीने सात्त्विकी प्रभासे देदीप्यमान होकर मुख्य मुख्य देवताओंकी रचना की। उन्होंने क्रीडा करते हुए, ब्रह्माजीके त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया ।।२२।।

इसके पश्चात् ब्रह्माजीने अपने जघनदेशसे कामासक्त असुरोंको उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते ही मैथुनके लिये ब्रह्माजीकी ओर चले ।।२३।।

यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरोंको अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे भागे ।। २४।।

तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरिके पास जाकर कहा- ।।२५।।

‘परमात्मन् ! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पापमें प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है ।। २६ ।।

नाथ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवोंका दुःख दूर करनेवाले हैं और जो आपकी चरणशरणमें नहीं आते, उन्हें दुःख देनेवाले भी एकमात्र आप ही हैं’ ।। २७।।

संस्कृत श्लोक :-

सोऽवधार्यास्य कार्पण्यं विविक्ताध्यात्मदर्शनः । विमुञ्चात्मतनुं घोरामित्युक्तो विमुमोच ह ।।२८तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्वललोचनाम् कांचीकलापविलसद्दुकूलच्छन्नरोधसम् ।।२९अन्योन्यश्लेषयोत्तुंगनिरन्तरपयोधराम् ।सुनासां सुद्विजां स्निग्धहासलीलावलोकनाम् ।।३०गूहन्तीं व्रीडयाऽऽत्मानं नीलालकवरूथिनीम् ।उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ।।३१अहो रूपमहो धैर्यमहो अस्या नवं वयः ।मध्ये कामयमानानामकामेव विसर्पति ।।३२वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् । अभिसम्भाव्य विश्रम्भात्पर्यपृच्छन् कुमेधसः ।।३३कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ।।३४या वा काचित्त्वमबले दिष्टया सन्दर्शनं तव । उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मनः ।।३५नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्म घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतंगम् । मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ।।३६

हिंदी अनुवाद :-

प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदयकी जाननेवाले हैं। उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा- ‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।’ भगवान्‌के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ।। २८ ।।

(ब्रह्माजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री- संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके चरणकमलोंके पायजेब झंकृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनीकी लड़ोंसे सुशोभित सजीली साड़ीसे ढकी हुई थी ।। २९।।

उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरेसे सटे हुए थे कि उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर- मधुर मुसकराती हुई असुरोंकी ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टिसे देख रही थी ।।३०।।

वह नीली- नीली अलकावलीसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे अपने अंचलमें ही सिमिटी जाती थी।

विदुरजी ! उस सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ।। ३१।।

‘अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीड़ितोंके बीचमें यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है’ ।।३२।।

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योंने स्त्रीरूपिणी संध्याके विषयमें तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ।।३३।।

‘सुन्दरि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूपका यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोंको क्यों तरसा रही हो ।। ३४ ।।

अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ-यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकोंके मनको मथे डालती हो ।। ३५।।

सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर अपनी हथेलीकी थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’ ।। ३६।।

संस्कृत श्लोक :-

इति सायन्तनीं सन्ध्यामसुराः प्रमदायतीम् । प्रलोभयन्तीं जगृहुर्मत्वा मूढधियः स्त्रियम् ।।३७प्रहस्य भावगम्भीरं जिघ्रन्त्यात्मानमात्मना । कान्त्या ससर्ज भगवान् गन्धर्वाप्सरसां गणान् ।।३८विससर्ज तनुं तां वै ज्योत्स्नां कान्तिमतीं प्रियाम् । त एव चाददुः प्रीत्या विश्वावसुपुरोगमाः ।।३९सृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च भगवानात्मतन्द्रिणा । दिग्वाससो मुक्तकेशान् वीक्ष्य चामीलयद् दृशौ ।।४०जगृहुस्तद्विसृष्टां तां जृम्भणाख्यां तनुं प्रभोः । निद्रामिन्द्रियविक्लेदो यया भूतेषु दृश्यते । येनोच्छिष्टान्धर्षयन्ति तमुन्मादं प्रचक्षते ।।४१ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं भगवानजः । साध्यान् गणान् पितृगणान् परोक्षेणासृजत्प्रभुः ।।४२त आत्मसर्गं तं कायं पितरः प्रतिपेदिरे । साध्येभ्यश्च पितृभ्यश्च कवयो यद्वितन्वते ।।४३सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तिरोधानेन सोऽसृजत् । तेभ्योऽददात्तमात्मानमन्तर्धानाख्यमद्भुतम् ।।४४स किन्नरान् किम्पुरुषान् प्रत्यात्म्येनासृजत्प्रभुः । मानयन्नात्मनाऽऽत्मानमात्माभासं विलोकयन् ।।४५ते तु तज्जगृहू रूपं त्यक्तं यत्परमेष्ठिना । मिथुनीभूय गायन्तस्तमेवोषसि कर्मभिः ।।४६

हिंदी अनुवाद :-

इस प्रकार स्त्रीरूपसे प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्याने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ोंने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ।।३७।।

तदनन्तर ब्रह्माजीने गम्भीर भावसे हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्तिसे, जो अपने सौन्दर्यका मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओंको उत्पन्न किया ।।३८।।

उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीरको त्याग दिया। उसीको विश्वावसु आदि गन्धर्वोंने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया ।।३९।।

इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्माने अपनी तन्द्रासे भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं ।। ४० ।।

ब्रह्माजीके त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीरको भूत-पिशाचोंने ग्रहण किया। इसीको निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवोंकी इन्द्रियोंमें शिथिलता आती देखी जाती है।

यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उसपर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसीको उन्माद कहते हैं ।।४१।।

फिर भगवान् ब्रह्माने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्य रूपसे साध्यगण एवं पितृगणको उत्पन्न किया ।।४२।।

पितरोंने अपनी उत्पत्तिके स्थान उस अदृश्य शरीरको ग्रहण कर लिया। इसीको लक्ष्यमें रखकर पण्डितजन श्राद्धादिके द्वारा पितर और साध्यगणोंको क्रमशः कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं ।।४३।।

अपनी तिरोधानशक्तिसे ब्रह्माजीने सिद्ध और विद्याधरोंकी सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया ।।४४।।

एक बार ब्रह्माजीने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपनेको बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्बसे किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये ।।४५।।

उन्होंने ब्रह्माजीके त्याग देनेपर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उषःकालमें अपनी पत्नियोंके साथ मिलकर ब्रह्माजीके गुण-कर्मादिका गान किया करते हैं ।।४६।।

संस्कृत श्लोक :-

देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया । सर्गेऽनुपचिते क्रोधादुत्ससर्ज ह तद्वपुः ।।४७ येऽहीयन्तामुतः केशा अहयस्तेऽङ्ग जज्ञिरे । सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा भोगोरुकन्धराः ।।४८ स आत्मानं मन्यमानः कृतकृत्यमिवात्मभूः । तदा मनून् ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् ।।४९ तेभ्यः सोऽत्यसृजत्स्वीयं पुरं पुरुषमात्मवान् । तान् दृष्ट्वा ये पुरा सृष्टाः प्रशशंसुः प्रजापतिम् ।।५० अहो एतज्जगत्स्रष्टः सुकृतं बत ते कृतम् । प्रतिष्ठिताः क्रिया यस्मिन् साकमन्नमदामहे ।।५१ तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना । ऋषीनृषिर्हषीकेशः ससर्जाभिमताः प्रजाः ।।५२ तेभ्यश्चैकैकशः स्वस्य देहस्यांशमदादजः । यत्तत्समाधियोगर्द्धितपोविद्याविरक्तिमत् ।।५३

हिंदी अनुवाद :-

एक बार ब्रह्माजी सृष्टिकी वृद्धि न होनेके कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवोंको फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीरको त्याग दिया ।।४७।।

उससे जो बाल झड़कर गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर चलनेसे क्रूरस्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूपसे कंधेके पास बहुत फैला होता है ।।४८।।

एक बार ब्रह्माजीने अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्तमें उन्होंने अपने मनसे मनुओंकी सृष्टि की। ये सब प्रजाकी वृद्धि करनेवाले हैं ।।४९।।

मनस्वी ब्रह्माजीने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओंको देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्माजीकी स्तुति करने लगे ।।५०।।

वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्माजी! आपकी यह (मनुओंकी) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्निहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायतासे हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’ ।।५१।।

फिर आदिऋषि ब्रह्माजीने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधिसे सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगणकी रचना की और उनमेंसे प्रत्येकको अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीरका अंश दिया ।।५२-५३।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विंशोऽध्यायः ।।२०।।

१. प्रा० पा०- मध्यास्य। २. प्रा० पा०-सारवित्। १. प्रा० पा०- सर्वमकल्पयन्। २. प्रा० पा०- भूतानि विय० ।

* पंच तन्मात्र, पंच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवता – इन्हीं छः वर्गोंका यहाँ संकेत समझना चाहिये।

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