Bhagwat puran skandh 3 chapter 2 ( भागवत पुराण तृतीय स्कंध:द्वितीयोऽध्यायः उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
अथ द्वितीयोऽध्यायः उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन
संस्कृत श्लोक: –
श्रीशुक उवाच
इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्ता प्रियाश्रयाम् । प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात्स्मारितेश्वरः ।।१
यः पञ्चहायनो मात्रा प्रातराशाय याचितः । तन्नैच्छद्रचयन् यस्य सपर्या बाललीलया ।।२
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः । पृष्टो वार्ता प्रतिब्रूयाद्भर्तुः पादावनुस्मरन् ।।३
स मुहूर्तमभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्घ्रिसुधया भृशम् । तीव्रण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ।।४
पुलकोद्भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलदृशा शुचः । पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुतः ।।५
हिन्दी अनुवाद: –
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- जब विदुरजीने परम भक्त उद्धवसे इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्णसे सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामीका स्मरण हो आया और वे हृदय भर आनेके कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ।।१।।
जब ये पाँच वर्षके थे, तब बालकोंकी तरह खेलमें ही श्रीकृष्णकी मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजामें ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवेके लिये माताके बुलानेपर भी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे ।।२।।
अब तो दीर्घकालसे उन्हींकी सेवामें रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अतः विदुरजीके पूछनेसे उन्हें अपने प्यारे प्रभुके चरणकमलोंका स्मरण हो आया- उनका चित्त विरहसे व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे ।।३।।
उद्धवजी श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्दसुधासे सराबोर होकर दो घड़ीतक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोगसे उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्न हो गये ।।४।।
उनके सारे शरीरमें रोमांच हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहने लगी। उद्धवजीको इस प्रकार प्रेमप्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजीने उन्हें कृतकृत्य माना ।।५।।
संस्कृत श्लोक: –
शनकैर्भगवल्लोकान्नृलोकं पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रत्याहोद्धव उत्स्मयन् ।।६
उद्धव उवाच
कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह । किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ।।७
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि । ये संवसन्तो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम् ।।८
इङ्गितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः । सात्वतामृषभं सर्वे भूतावासममंसत ।।९
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यदसदाश्रिताः । भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैरात्मन्युप्तात्मनो हरौ ।।१०
प्रदर्थ्यातप्ततपसामवितृप्तदृशां नृणाम् । आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ।।११
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग- मायाबलं दर्शयता गृहीतम् । विस्मापनं स्वस्य च सौभगद्धेः परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ।।१२
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः । कार्येन चाद्येह गतं विधातु- रर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ।।१३
हिन्दी अनुवाद: –
कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान्के प्रेमधामसे उतरकर पुनः धीरे-धीरे संसारमें आये, तब अपने नेत्रोंको पोंछकर भगवल्लीलाओंका स्मरण हो आनेसे विस्मित हो विदुरजीसे इस प्रकार कहने लगे ।।६।।
उद्धवजी बोले-विदुरजी! श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जानेसे हमारे घरोंको कालरूप अजगरने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ ।।७।।
ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना – जिस तरह अमृतमय चन्द्रमाके समुद्रमें रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं ।।८।।
यादवलोग मनके भावको ताड़नेवाले, बड़े समझदार और भगवान्के साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ।।९।।
किंतु भगवान्की मायासे मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थका वैर ठाननेवाले शिशुपाल आदिके अवहेलना और निन्दासूचक वाक्योंसे भगवत्प्राण महानुभावोंकी बुद्धि भ्रममें नहीं पड़ती थी ।।१०।।
जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगोंको भी इतने दिनोंतक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसाको तृप्त किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रहको छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है ।।११।।
भगवान्ने अपनी योगमायाका प्रभाव दिखानेके लिये मानवलीलाओंके योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अंगोंके गहने) भी विभूषित हो जाते थे ।।१२।।
धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान्के उस नयनाभिराम रूपपर लोगोंकी दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकीने यही माना था कि मानव सृष्टिकी रचनामें विधाताकी जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ।।१३।।
संस्कृत श्लोक: –
यस्यानुरागप्लुतहासरास- लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः । व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त- धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ।।१४
स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपै- रभ्यद्यमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तो ह्यजोऽपि जातो भगवान् यथाग्निः ।।१५
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म- विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।
व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं
पुराद् व्यवात्सीद्यदनन्तवीर्यः ।।१६
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद् यदाह पादावभिवन्द्य पित्रोः ।
ताताम्ब कंसादुरुशङ्कितानां प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम् ।।१७
को वा अमुष्याङ्घ्रिसरोजरेणुं विस्मर्तुमीशीत पुमान् विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्भूविटपेन भूमे- र्भारं कृतान्तेन तिरश्चकार ।।१८
दृष्टा भवद्भिर्ननु राजसूये चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः ।
यां योगिनः संस्पृहयन्ति सम्यग् योगेन कस्तद्विरहं सहेत ।।१९
तथैव चान्ये नरलोकवीरा य आहवे कृष्णमुखारविन्दम् । नेत्रैः पिबन्तो नयनाभिरामं पार्थास्त्रपूताः पदमापुरस्य ।।२०
हिन्दी अनुवाद: –
उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवनसे सम्मानित होनेपर व्रजबालाओंकी आँखें उन्हींकी ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोड़कर जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं ।।१४।।
चराचर जगत् और प्रकृतिके स्वामी भगवान्ने जब अपने शान्तरूप महात्माओंको अपने ही घोररूप असुरोंसे सताये जाते देखा, तब वे करुणाभावसे द्रवित हो गये और अजन्मा होनेपर भी अपने अंश बलरामजीके साथ काष्ठमें अग्निके समान प्रकट हुए ।।१५।।
अजन्मा होकर भी वसुदेवजीके यहाँ जन्म लेनेकी लीला करना, सबको अभय देनेवाले होनेपर भी मानो कंसके भयसे व्रजमें जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होनेपर भी कालयवनके सामने मथुरापुरीको छोड़कर भाग जाना – भगवान्की ये लीलाएँ याद आ- आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं ।।१६।।
उन्होंने जो देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था- ‘पिताजी, माताजी ! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ।।१७।।
जिन्होंने कालरूप अपने भुकुटिविलाससे ही पृथ्वीका सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्णके पादपद्मपरागका सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ।।१८।।
आपलोगोंने राजसूय यज्ञमें प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाले शिशुपालको वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भलीभाँति योग साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ।।१९।।
शिशुपालके ही समान महाभारत-युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओंने अपनी आँखोंसे भगवान् श्रीकृष्णके नयनाभिराम मुखकमलका मकरन्द पान करते हुए अर्जुनके बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्के परमधामको प्राप्त हो गये ।। २० ।।
संस्कृत श्लोक: –
स्वयं त्वसाम्यातिशयत्र्यधीशः स्वाराज्यलक्ष्म्याप्तसमस्तकामः १ ।
बलिं हरद्भिश्चिरलोकपालैः किरीटकोट्येडितपादपीठः ।।२१
तत्तस्य कैङ्कर्यमलं भृतान्नो विग्लापयत्यङ्ग यदुग्रसेनम् । तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्ये न्यबोधयद्देव निधारयेति ।। २२ अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ।। २३ मन्येऽसुरान् भागवतांत्र्यधीशे संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् । ये संयुगेऽचक्षत तार्क्ष्यपुत्र- मंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ।।२४ वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने । चिकीर्षुर्भगवानस्याः शमजेनाभियाचितः ।।२५ ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद्विबिभ्यता । एकादश समास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत् ।।२६ परीतो वत्सपैर्वत्सांश्चारयन् व्यहरद्विभुः । यमुनोपवने कूजद्विजसंकुलिताङ्घ्रिपे ।।२७ कौमारीं दर्शयंश्चेष्टां प्रेक्षणीयां व्रजौकसाम् । रुदन्निव हसन्मुग्धबालसिंहावलोकनः ।।२८
हिन्दी अनुवाद: –
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकोंके अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। वे अपने स्वतःसिद्ध ऐश्वर्यसे ही सर्वदा पूर्णकाम हैं।
इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकारकी भेंटें ला-लाकर अपने-अपने मुकुटोंके अग्रभागसे उनके चरण रखनेकी चौकीको प्रणाम किया करते हैं ।। २१ ।।
विदुरजी ! वे ही भगवान् श्रीकृष्ण रादसिंहासनपर बैठे हुए उग्रसेनके सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव! हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा-भावकी याद आते ही हम-जैसे सेवकोंका चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ।।२२।।
पापिनी पूतनाने अपने स्तनोंमें हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्णको मार डालनेकी नियतसे उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान्ने वह परम गति दी, जो धायको मिलनी चाहिये। उन भगवान् श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें ।।२३।।
मैं असुरोंको भी भगवान्का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोधके कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्णमें लगा रहता था और उन्हें रणभूमिमें सुदर्शनचक्रधारी भगवान्को कंधेपर चढ़ाकर झपटते हुए गरुड़जीके दर्शन हुआ करते थे ।।२४।।
ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारकर उसे सुखी करनेके लिये कंसके कारागारमें वसुदेव-देवकीके यहाँ भगवान्ने अवतार लिया था ।। २५।।
उस समय कंसके डरसे पिता वसुदेवजीने उन्हें नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजीके साथ ग्यारह वर्षतक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रजके बाहर किसीपर प्रकट नहीं हुआ ।।२६।।
यमुनाके उपवनमें, जिसके हरे-भरे वृक्षोंपर कलरव करते हुए पक्षियोंके झुंड- के-झुंड रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ोंको चराते हुए ग्वालबालोंकी मण्डलीके साथ विहार किया था ।। २७।।
वे व्रजवासियोंकी दृष्टि आकृष्ट करनेके लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने से लगते, कभी हँसते और कभी सिंहशावकके समान मुग्ध दृष्टिसे देखते ।।२८।।
फिर कुछ बड़े होनेपर वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभाकी मूर्ति गौओंको चराते हुए अपने साथी गोपोंको बाँसुरी बजा-बजाकर रिझाने लगे ।। २९।।
इसी समय जब कंसने उन्हें मारनेके लिये बहुत-से मायावी और मनमाना रूप धारण करनेवाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेलमें भगवान्ने मार डाला-जैसे बालक खिलौनोंको तोड़-फोड़ डालता है ।।३०।।
कालियनागका दमन करके विष मिला हुआ जल पीनेसे मरे हुए ग्वालबालों और गौओंको जीवितकर उन्हें कालियदहका निर्दोष जल पीनेकी सुविधा कर दी ।।३१।।
भगवान् श्रीकृष्णने बढ़े हुए धनका सद्व्यय करानेकी इच्छासे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा नन्दबाबासे गोवर्धनपूजारूप गोयज्ञ करवाया ।।३२।।
भद्र ! इससे अपना मानजब इन्द्रभंग होनेके कारण ने क्रोधित होकर व्रजका विनाश करनेके लिये मूसलधार जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवान्ने करुणावश खेल-ही-खेलमें छत्तेके समान गोवर्धन पर्वतको उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियोंकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा की ।।३३।।
सन्ध्याके समय जब सारे वृन्दावनमें शरत्के चन्द्रमाकी चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियोंके मण्डलकी शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते ।।३४।।
संस्कृत श्लोक: –
स एव गोधनं लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम् । चारयन्ननुगान् गोपान् रणद्वेणुररीरमत् ।।२९
प्रयुक्तान् भोजराजेन मायिनः कामरूपिणः । लीलया व्यनुदत्तांस्तान् बालः क्रीडनकानिव ।।३०
विपन्नान् विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम् । उत्थाप्यापाययद्गावस्तत्तोयं प्रकृतिस्थितम् ।।३१
अयाजयद्गोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमैः । वित्तस्य चोरुभारस्य चिकीर्षन् सद्व्ययं विभुः ।।३२
वर्षतीन्द्रे व्रजः कोपाद्भग्नमानेऽतिविह्वलः । गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्रानुगृह्णता ।।३३
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् । गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डनः ।।३४
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ।।२।।
१. प्रा० पा० – साम्राज्य०। २. प्रा० पा० – व्यचरद् भुवि।