Bhagwat puran skandh 2 chapter 6( भागवत पुराण द्वितीय स्कन्ध:षष्ठोऽध्यायः विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन)
अथ षष्ठोऽध्यायः विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन
ब्रह्मोवाच
संस्कृत श्लोक :-
वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः । हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च ।।१सर्वासूनां च वायोश्च तन्नासे परमायने । अश्विनोरोषधीनां च घ्राणो मोदप्रमोदयोः ।।२रूपाणां तेजसां चक्षुर्दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी । कर्णों दिशां च तीर्थानां श्रोत्रमाकाशशब्दयोः । तद्गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ।।३त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि । रोमाण्युद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः ।।४
हिंदी अनुवाद :-
ब्रह्माजी कहते हैं- उन्हीं विराट् पुरुषके मुखसे वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द उनकी सात धातुओंसे निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओंके भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकारके रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुषकी जिह्वासे उत्पन्न हुए हैं ।।१।।
उनके नासाछिद्रोंसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रियसे अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ।। २ ।।
उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेजकी तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्यकी जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानोंसे तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रियसे निकले हैं। उनका शरीर संसारकी सभी वस्तुओंके सारभाग तथा सौन्दर्यका खजाना है ।।३।।
सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचासे निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थोंके जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हींके, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ।।४।।
संस्कृत श्लोक :-
केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम् । बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ।।५ विक्रमो भूर्भुवः स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च । सर्वकामवरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ।।६अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः । पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्दनिर्वृतेः ।।७ पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद । हिंसाया निर्ऋतेर्मृत्योर्निरयस्य गुदः स्मृतः ।।८ पराभूतेरधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः । नाड्यो नदनदीनां तु गोत्राणामस्थिसंहतिः ।।९ अव्यक्तरससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च । उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ।।१० धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च । विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्यात्मा परायणम् ।।११ अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः । सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ।।१२ गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः । पशवः पितरः सिद्धा विद्याधाश्चारणा द्रुमाः ।।१३ अन्ये च विविधा जीवा जलस्थलनभौकसः । ग्रहक्षकेतवस्तारास्तडितः स्तनयित्नवः ।।१४ सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् । तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति ।।१५
हिंदी अनुवाद :-
उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखोंसे मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओंसे प्रायः संसारकी रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ।।५।।
उनका चलना-फिरना भूः, भुवः, स्वः- तीनों लोकोंका आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्तकी रक्षा करते हैं और भयोंको भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति उन्हींसे होती है ।।६।।
विराट् पुरुषका लिंग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापतिका आधार है तथा उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्दका उद्गम है ।।७।।
नारदजी ! विराट् पुरुषकी पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्यागका तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरकका उत्पत्तिस्थान है ।।८।।
उनकी पीठसे पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाड़ियोंसे नद-नदी और हड्डियोंसे पर्वतोंका निर्माण हुआ है ।।९।।
उनके उदरमें मूल प्रकृति, रस नामकी धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मनकी जन्मभूमि है ।।१०।।
नारद! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शंकर, विज्ञान और अन्तःकरण- सब-के-सब उनके चित्तके आश्रित हैं ।।११।।
(कहाँतक गिनायें-) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शंकर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकारके जीव-जो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैं- ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे) तारे, बिजली और बादल- ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं।
यह सम्पूर्ण विश्व-जो कुछ कभी था, है या होगा- सबको वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके * परिमाणमें ही स्थित है ।।१२-१५।।
संस्कृत श्लोक :-
स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ । एवं विराजं प्रतपंस्तपत्यन्तर्बहिः पुमान् ।।१६सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यमन्नं यदत्यगात् । महिमैष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ।।१७पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः । अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्धोऽधायि मूर्धसु ।।१८पादास्त्रयो बहिश्चासन्नप्रजानां य आश्रमाः । अन्तस्त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्मतः ।।१९सृती विचक्रमे विष्वङ् साशनानशने उभे । यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तूभयाश्रयः ।।२०यस्मादण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रियगुणात्मकः ६ । तद् द्रव्यमत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवातपन् ।।२१यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मनः । नाविदं यज्ञसम्भारान् पुरुषावयवादृते ।।२२
हिंदी अनुवाद :-
जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रहको प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर – सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ।।१६।।
मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और संकल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ।।१७।।
सम्पूर्ण लोक भगवान्के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं, तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकोंमें क्रमशः अमृत, क्षेम एवं अभयका नित्य निवास है ।।१८।।
जन, तप और सत्य- इन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते हैं ।।१९।।
शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैं- एक अविद्यारूप कर्ममार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है।
मनुष्य दोनोंमेंसे किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान् दोनोंके आधारभूत हैं ।।२०।।
जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे इस अण्डकी और पंचभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की उत्पत्ति हुई है-वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ।। २१।।
जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभिकमलसे मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुषके अंगोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री नहीं मिली ।।२२।।
तब मैंने उनके अंगोंमें ही यज्ञके पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ।।२३।।
ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः, साम, चातुर्होत्र, यज्ञोंके नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ, संकल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण – यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुषके अंगोंसे ही इकट्ठी की ।।२४-२६।।
इस प्रकार विराट् पुरुषके अंगोंसे ही सारी सामग्रीका संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियोंसे उन यज्ञस्वरूप परमात्माका यज्ञके द्वारा यजन किया ।। २७ ।।
तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियोंने अपने चित्तको पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूपसे स्थित उस पुरुषकी आराधना की ।। २८ ।।
इसके पश्चात् समय-समयपर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्योंने यज्ञोंके द्वारा भगवान्की आराधना की ।।२९।।
नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायणमें स्थित है जो स्वयं तो प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, परन्तु सृष्टिके प्रारम्भमें मायाके द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं ।।३०।।
उन्हींकी प्रेरणासे मैं इस संसारकी रचना करता हूँ। उन्हींके अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णुके रूपसे इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तमकी तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ।। ३१ ।।
बेटा! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारणके रूपमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो भगवान्से भिन्न हो ।।३२।।
संस्कृत श्लोक :-
तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः । इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वितः ।।२३ वस्तून्योषधयः स्नेहा रसलोहमृदो जलम् । ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ।।२४ नामधेयानि मन्त्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च । देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पस्तन्त्रमेव च ।।२५गतयो मतयः श्रद्धा प्रायश्चित्तं समर्पणम् । पुरुषावयवैरेते सम्भाराः सम्भृता मया ।।२६ इति सम्भृतसम्भारः पुरुषावयवैरहम् । तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ।।२७ ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव । अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ।।२८ ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे । पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ।।२९ नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् । गृहीतमायोरुगुणः सर्गादावगुणः स्वतः ।।३० सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः । विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ।।३१ इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि । नान्यद्भगवतः किञ्चिद्भाव्यं सदसदात्मकम् ।।३२ न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते ने वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः । न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे यन्मे हृदौत्कण्ठ्यवता धृतो हरिः ।।३३
हिंदी अनुवाद :-
प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदयसे भगवान्के स्मरणमें मग्न रहता हूँ, इसीसे मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादाका उल्लंघन करके कुमार्गमें नहीं जातीं ।। ३३।।
मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठासे योगका सर्वांग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्माके स्वरूपको नहीं जान सका ।।३४।।
(क्योंकि वे तो एकमात्र भक्तिसे ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मंगलमय एवं शरण आये हुए भक्तोंको जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले परम कल्याणस्वरूप भगवान्के चरणोंको ही नमस्कार करता हूँ। उनकी मायाकी शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्तको नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमाका विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थितिमें दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं? ।।३५।।
मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शंकरजी भी उनके सत्यस्वरूपको नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी मायाके द्वारा रचे हुए जगत्को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही अटकल लगाते हैं ।। ३६।।
संस्कृत श्लोक :-
सोऽहं समाम्नायमयस्तपोमयः प्रजापतीनामभिवन्दितः पतिः । आस्थाय योगं निपुणं समाहित- स्तं नाध्यगच्छं यत आत्मसम्भवः ।।३४नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद् यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः ।।३५नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदु- र्न वामदेवः किमुतापरे सुराः । तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ।।३६
यस्यावतारकर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः । न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः ।।३७स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः । आत्माऽऽत्मन्यात्मनाऽऽत्मानं संयच्छति च पाति च ।।३८विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यगवस्थितम् । सत्यं पूर्णमनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् ।।३९ऋषे विदन्ति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः । यदा तदेवासत्तकैस्तिरोधीयेत विप्लुतम् ।।४०
हिंदी अनुवाद :-
हमलोग केवल जिनके अवतारकी लीलांओंका गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्वको नहीं जानते-उन भगवान्के श्रीचरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ।।३७।।
वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्पमें वे स्वयं अपने-आपमें अपने-आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ।। ३८।।
वे मायाके लेशसे रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्माके रूपमें एकरस स्थित हैं। वे तीनों कालमें सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणोंसे रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ।। ३९ ।।
नारद ! महात्मालोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीरको शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषोंके द्वारा कुतर्कोंका जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ।।४०।।
संस्कृत श्लोक :-
आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य कालः स्वभावः सदसन्मनश्च ।द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ।।४१अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा दक्षादयो ये भवदादयश्च ।स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला नृलोकपालास्तललोकपालाः ।।४२गन्धर्वविद्याधरचारणेशा ये यक्षरक्षोरगनागनाथाः ।ये वा ऋषीणामृषभाः पितॄणां दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः ।अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत- कूष्माण्डयादोमृगपक्ष्यधीशाः ।।४३यत्किञ्च लोके भगवन्महस्व- दोजः सहस्वद् बलवत् क्षमावत् । श्रीह्रीविभूत्यात्मवदद्भुतार्णं तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम् ।।४४प्राधान्यतो यानृष आमनन्ति लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।आपीयतां कर्णकषायशोषा- ननुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ।।४५
हिंदी अनुवाद :-
परमात्माका पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जंगम जीव-सब-के-सब उन अनन्तभगवान्के ही रूप हैं ।।४१।।
मैं, शंकर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोकके रक्षक, पक्षियोंके राजा, मनुष्यलोकके राजा, नीचेके लोकोंके राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणोंके अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागोंके स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियोंके स्वामी; एवं संसारमें और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमासे युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा विभूतिसे युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अद्भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं- वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्त्वरूप ही हैं ।।४२-४४।।
नारद! इनके सिवा परम पुरुष परमात्माके परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रोंमें वर्णित हैं। उनका मैं क्रमशः वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुननेमें बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रियके दोषोंको दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ।।६।।
* गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगती – ये सात छन्द हैं।
* ब्रह्माण्डके सात आवरणोंका वर्णन करते हुए वेदान्त प्रक्रियामें ऐसा माना गया है कि – पृथ्वीसे दसगुना जल है, जलसे दसगुना अग्नि, अग्निसे दसगुना वायु, वायुसे दसगुना आकाश, आकाशसे दसगुना अहंकार, अहंकारसे दसगुना महत्तत्त्व और महत्तत्त्वसे दसगुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान्के केवल एक पादमें है। इस प्रकार भगवान्की महत्ता प्रकट की गयी है। यह दशांगुलन्याय कहलाता है। १. प्रा० पा०- प्रातपत्प्राणो। २. प्रा० पा० – वापि । ३. प्रा० पा०- बहिस्त्वासन् प्रजानां
त्रय आश्रमाः। ४. प्रा० पा० – महद्रुतम्। ५. प्रा० पा० – विष्वक्। ६. प्रा० पा०- गुणाश्रयः।
७. प्रा० पा०- इवातपत् ।
१. प्रा० पा०-यज्ञेषु। २. प्रा० पा०- रेतैः। ३. प्रा० पा० – कालमीजिरे। ४. प्रा० पा०- न कर्हिचिन्मे ।
१. प्रा० पा० – यस्त्वात्ममायाविभवं स्वयं गतो यथा। २. प्रा० पा० – त्वात्म०। ३. प्रा० पा०-ऽसृजत्प्रजाः। ४. प्रा० पा० – समं गच्छति पाति।