Bhagwat puran skandh 2 chapter 3( भागवत पुराण द्वितीय स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः कामनाओंके अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना तथा भगवद्भक्तिके प्राधान्यका निरूपण!
अथ तृतीयोऽध्यायः
कामनाओंके अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना तथा भगवद्भक्तिके प्राधान्यका निरूपण
श्रीशुक उवाच
संस्कृत श्लोक: –
एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद्भवान् मम । नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ।।१ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणस्पतिम् । इन्द्रमिन्द्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् ।।२देवीं मायां तु श्रीकामस्तेजस्कामो विभावसुम् । वसुकामो वसून् रुद्रान् वीर्यकामोऽथ वीर्यवान् ।।३अन्नाद्यकामस्त्वदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान् । विश्वान्देवान् राज्यकामः साध्यान्संसाधको विशाम् ।।४
हिन्दी अनुवाद: –
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् ! तुमने मुझसे जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान् मनुष्यको क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ।।१।।
जो ब्रह्मतेजका इच्छुक हो वह बृहस्पतिकी; जिसे इन्द्रियोंकी विशेष शक्तिकी कामना हो वह इन्द्रकी और जिसे सन्तानकी लालसा हो वह प्रजापतियोंकी उपासना करे ।।२।।
जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवीकी, जिसे तेज चाहिये वह अग्निकी, जिसे धन चाहिये वह वसुओंकी और जिस प्रभावशाली पुरुषको वीरताकी चाह हो उसे रुद्रोंकी उपासना करनी चाहिये ।।३।।
जिसे बहुत अन्न प्राप्त करनेकी इच्छा हो वह अदितिका; जिसे स्वर्गकी कामना हो वह अदितिके पुत्र देवताओंका, जिसे राज्यकी अभिलाषा हो वह विश्वेदेवोंका और जो प्रजाको अपने अनुकूल बनानेकी इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओंका आराधन करना चाहिये ।।४।।
संस्कृत श्लोक: – आयुष्कामोऽश्विनौ देवौ पुष्टिकाम इलां यजेत् । प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ ।।५रूपाभिकामो गन्धर्वान् स्त्रीकामोऽप्सरउर्वशीम् । आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम् ।।६यज्ञं यजेद् यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम् । विद्याकामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम् ।।७धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तन्तुं तन्वन् पितॄन् यजेत् । रक्षाकामः पुण्यजनानोजस्कामो मरुद्गणान् ।।८राज्यकामो मनून् देवान् निर्ऋतिं त्वभिचरन् यजेत् । कामकामो यजेत् सोममकामः पुरुषं परम् ।।९अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः । तीव्रण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ।।१०एतावानेव यजतामिह निःश्रेयसोदयः । भगवत्यचलो भावो यद् भागवतसङ्गतः ।।११ज्ञानं यदा प्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्र- मात्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः । कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात् ।।१२
शौनक उवाच
श्लोक: – इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभः । किमन्यत्पृष्टवान् भूयो वैयासकिमृषिं कविम् ।।१३
हिन्दी अनुवाद: –
आयुकी इच्छासे अश्विनीकुमारोंका, पुष्टिकी इच्छासे पृथ्वीका और प्रतिष्ठाकी चाह हो तो लोक-माता पृथ्वी और द्यौ (आकाश) का सेवन करना चाहिये ।।५।।
सौन्दर्यकी चाहसे गन्धर्वोंकी, पत्नीकी प्राप्तिके लिये उर्वशी अप्सराकी और सबका स्वामी बननेके लिये ब्रह्माकी आराधना करनी चाहिये ।।६।।
जिसे यशकी इच्छा हो वह यज्ञपुरुषकी, जिसे खजानेकी लालसा हो वह वरुणकी; विद्या प्राप्त करनेकी आकांक्षा हो तो भगवान् शंकरकी और पति-पत्नीमें परस्पर प्रेम बनाये रखनेके लिये पार्वतीजीकी उपासना करनी चाहिये ।।७।।
धर्म-उपार्जन करनेके लिये विष्णु-भगवान्की, वंशपरम्पराकी रक्षाके लिये पितरोंकी, बाधाओंसे बचनेके लिये यक्षोंकी और बलवान् होनेके लिये मरुद्गणोंकी आराधना करनी चाहिये ।।८।।
राज्यके लिये मन्वन्तरोंके अधिपति देवोंको, अभिचारके लिये निर्ऋतिको, भोगोंके लिये चन्द्रमाको और निष्कामता प्राप्त करनेके लिये परम पुरुष नारायणको भजना चाहिये ।।९।।
और जो बुद्धिमान् पुरुष है – वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओंसे युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो- उसे तो तीव्र भक्तियोगके द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान्की ही आराधना करनी चाहिये ।।१०।।
जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसीमें है कि वे भगवान्के प्रेमी भक्तोंका संग करके भगवान्में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें ।।११।।
ऐसे पुरुषोंके सत्संगमें जो भगवान्की लीला-कथाएँ होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञानकी प्राप्ति होती है जिससे संसार-सागरकी त्रिगुणमयी तरंगमालाओंके थपेड़े शान्त हो जाते हैं,
हृदय शुद्ध होकर आनन्दका अनुभव होने लगता है, इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति नहीं रहती, कैवल्यमोक्षका सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान्की ऐसी रसमयी कथाओंका चस्का लग जानेपर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ।।१२।।
शौनकजीने कहा-सूतजी ! राजा परीक्षित्ने शुकदेवजीकी यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा? वे तो सर्वज्ञ होनेके साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करनेमें भी बड़े निपुण थे ।।१३।।
संस्कृत श्लोक: –
एतच्छुश्रूषतां विद्वन् सूत नोऽर्हसि भाषितुम् । कथा हरिकथोदर्काः सतां स्युः सदसि ध्रुवम् ।।१४स वै भागवतो राजा पाण्डवेयो महारथः । बालक्रीडनकैः क्रीडन् कृष्णक्रीडां य आददे ।।१५वैयासकिश्च भगवान् वासुदेवपरायणः । उरुगायगुणोदाराः सतां स्युर्हि समागमे ।।१६आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ । तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्तया ।।१७तरवः किं न जीवन्ति भस्त्राः किं न श्वसन्त्युत । न खादन्ति न मेहन्ति किं ग्रामपशवोऽपरे ।।१८श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः संस्तुतः पुरुषः पशुः । न यत्कर्णपथोपेतो जातु नाम गदाग्रजः ।।१९बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य । जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः ।।२०भारः परं पट्टकिरीटजुष्ट- मप्युत्तमाङ्गं न नमेन्मुकुन्दम् । शावौ करौ नो कुरुतः सपर्यां हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा ।।२१बर्हायिते ते नयने नराणां लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये । पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यो ।।२२
हिन्दी अनुवाद: –
सूतजी ! आप तो सब कुछ जानते हैं, हमलोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेमसे सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतोंकी सभामें ऐसी ही बातें होती हैं जिनका पर्यवसान भगवान्की रसमयी लीला-कथामें ही होता है ।।१४।।
पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित् बड़े भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्थामें खिलौनोंसे खेलते समय भी वे श्रीकृष्णलीलाका ही रस लेते थे ।।१५।।
भगवन्मय श्रीशुकदेवजी भी जन्मसे ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतोंके सत्संगमें भगवान्के मंगलमय गुणोंकी दिव्य चर्चा अवश्य ही हुई होगी ।।१६।।
जिसका समय भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंके गान अथवा श्रवणमें व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्योंकी आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान् सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्तसे उनकी आयु छीनते जा रहे हैं ।।१७।।
क्या वृक्ष नहीं जीते? क्या लुहारकी धौंकनी साँस नहीं लेती?गाँवके अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य-पशुकी ही तरह खाते-पीते या मैथुन नहीं करते? ।।१८।।
जिसके कानमें भगवान् श्रीकृष्णकी लीला-कथा कभी नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते, ग्रामसूकर, ऊँट और गधेसे भी गया बीता है ।।१९।।
सूतजी ! जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिलके समान हैं। जो जीभ भगवान्की लीलाओंका गायन नहीं करती, वह मेढककी जीभके समान टर्र-टर्र करनेवाली है; उसका तो न रहना ही अच्छा है ।। २० ।।
जो सिर कभी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्रसे सुसज्जित और मुकुटसे युक्त होनेपर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान्की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोनेके कंगनसे भूषित होनेपर भी मुर्देके हाथ हैं ।।२१।।
जो आँखें भगवान्की याद दिलानेवाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदिका दर्शन नहीं करतीं, वे मोरोंकी पाँखमें बने हुए आँखोंके चिह्नके समान निरर्थक हैं। मनुष्योंके वे पैर चलनेकी शक्ति रखनेपर भी न चलनेवाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान्की लीला- स्थलियोंकी यात्रा नहीं करते ।। २२ ।।
संस्कृत श्लोक: – जीवञ्छवो भागवताङ्घ्रिरेणुं न जातु मर्योऽभिलभेत यस्तु । श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्याः श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम् ।।२३ तदश्मसारं हृदयं बतेदं यद् गृह्यमाणैर्हरिनामधेयैः ।न विक्रियेताथ यदा विकारो नेत्रे जलं गात्ररुहेषु हर्षः ।।२४अथाभिधेह्यङ्ग मनोऽनुकूलं प्रभाषसे भागवतप्रधानः ।यदाह वैयासकिरात्मविद्या- विशारदो नृपतिं साधु पृष्टः ।।२५
हिन्दी अनुवाद: –
जिस मनुष्यने भगवत्प्रेमी संतोंके चरणोंकी धूल कभी सिरपर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है। जिस मनुष्यने भगवान्के चरणोंपर चढ़ी हुई तुलसीकी सुगन्ध लेकर उसकी सराहना नहीं की, वह श्वास लेता हुआ भी श्वासरहित शव है ।।२३।।
सूतजी ! वह हृदय नहीं लोहा है, जो भगवान्के मंगलमय नामोंका श्रवण-कीर्तन करनेपर भी पिघलकर उन्हींकी ओर बह नहीं जाता। जिस समय हृदय पिघल जाता है, उस समय नेत्रोंमें आँसू छलकने लगते हैं और शरीरका रोम-रोम खिल उठता है ।। २४।।
प्रिय सूतजी ! आपकी वाणी हमारे हृदयको मधुरतासे भर देती है। इसलिये भगवान्के परम भक्त, आत्मविद्या-विशारद श्रीशुकदेवजीने परीक्षित्के सुन्दर प्रश्न करनेपर जो कुछ कहा, वह संवाद आप कृपा करके हमलोगोंको सुनाइये ।।२५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ।।३।।