Bhagwat puran skandh 2 chapter 9( भागवत पुराण द्वितीय स्कन्ध:नवमोऽध्यायः ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवान्के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश)
अथ नवमोऽध्यायः
ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवान्के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश
संस्कृत श्लोक: –
श्रीशुक उवाच
संस्कृत श्लोक-:आत्ममायामृते राजन् परस्यानुभवात्मनः । न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ।।१
बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया । रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ।।२
हिन्दी अनुवाद :-
कहा- परीक्षित् ! जैसे स्वप्नमें देखे जानेवाले पदार्थोंके साथ उसे देखनेवालेका कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादिसे अतीत अनुभवस्वरूप आत्माका मायाके बिना दृश्य पदार्थोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ।।१।।
विविध रूपवाली मायाके कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणोंमें रम जाता है तब ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है ।।२।।
संस्कृत श्लोक: –
यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः । रमेत गतसम्मोहस्त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ।। ३ आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।ब्रह्मणे दर्शयन् रूपमव्यलीकव्रतादृतः ।।४ स आदिदेवो जगतां परो गुरुः स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत । तां नाध्यगच्छद् दृशमत्र सम्मतां प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ।।५
स चिन्तयन् द्वयक्षरमेकदाम्भ- स्युपाशृणोद् द्विर्गदितं वचो विभुः । स्पर्शेष यत्षोडशमेकविंशं निष्किञ्चनानां नृप यद् धनं विदुः ।।६निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः । स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितंतपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ।।७
दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।अतप्यत स्माखिललोकतापनं तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ।।८तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।व्यपेतसंक्लेशविमोहसाध्वसं स्वदृष्टवद्भिर्विबुधैरभिष्टुतम् ।।९
हिन्दी अनुवाद :-
किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया- इन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता है- आत्माराम हो जाता है; तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीन – गुणातीत हो जाता है ।।३।।
ब्रह्माजीकी निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्म-तत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ।।४।।
तीनों लोकोंके परम गुरु आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमलपर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छासे विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टिसे सृष्टिका निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापारके लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ।।५।।
एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्रमें उन्होंने व्यंजनोंके सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को- ‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित् ! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ।।६।।
यह सुनकर ब्रह्माजीने वक्ताको देखनेकी इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करनेकी प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसीमें अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनको तपस्यामें लगा दिया ।। ७ ।।
ब्रह्माजी तपस्वियोंमें सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्तसे अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेमें समर्थ हो सके ।।८।।
उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है।
उस लोकमें किसी भी प्रकारके क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार- बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ।।९।। प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः
संस्कृत श्लोक: –
सत्त्वं च मिश्र न च कालविक्रमः ।तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ।।७दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।अतप्यत स्माखिललोकतापनं तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ।।८
तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।व्यपेतसंक्लेशविमोहसाध्वसं स्वदृष्टवद्भिर्विबुधैरभिष्टुतम् ।।९
हिन्दी अनुवाद :-
किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया- इन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता है- आत्माराम हो जाता है; तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीन – गुणातीत हो जाता है ।।३।।
ब्रह्माजीकी निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्म-तत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ।।४।।
तीनों लोकोंके परम गुरु आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमलपर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छासे विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टिसे सृष्टिका निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापारके लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ।।५।।
एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्रमें उन्होंने व्यंजनोंके सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को- ‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित् ! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ।।६।।
यह सुनकर ब्रह्माजीने वक्ताको देखनेकी इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करनेकी प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसीमें अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनको तपस्यामें लगा दिया ।। ७ ।।
ब्रह्माजी तपस्वियोंमें सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्तसे अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेमें समर्थ हो सके ।।८।।
उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोकमें किसी भी प्रकारके क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार- बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ।।९।।
संस्कृत श्लोक: –
प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः सत्त्वं च मिश्र न च कालविक्रमः !न यत्र माया किमुतापरे हरे- रनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः ।।१०श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि- प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः परिस्फुरत्कृण्डलमौलिमालिनः ।।११
भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते लसद्धिमानावलिभिर्महात्मनाम् ।विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ।।१२श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।प्रेङ्ख श्रिता या कुसुमाकरानुगै- र्विगीयमाना प्रियकर्म गायती ।।१३ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।सुनन्दनन्दप्रबलार्हणादिभिः २ स्वपार्षदमुख्यैः परिसेवितं विभुम् ।।१४भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं पीताम्बरं वक्षसि लक्षितं श्रिया ।।१५
हिन्दी अनुवाद :-
वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न कालकी दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर मायाके बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान्के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ।।१०।।
उनका उज्ज्वल आभासे युक्त श्याम शरीर शतदल कमलके समान कोमल नेत्र और पीले रंगके वस्त्रसे शोभायमान है। अंग-अंगसे राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलताकी मूर्ति हैं।
सभीके चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्णके प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छबि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमलके उज्ज्वल तन्तुके समान है। उनके कानोंमें कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और कण्ठमें मालाएँ शोभायमान हैं ।।११।।
जिस प्रकार आकाश बिजलीसहित बादलोंसे शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियोंकी कान्तिसे युक्त महात्माओंके दिव्य तेजोमय विमानोंसे स्थान-स्थानपर सुशोभित होता रहता है ।।१२।।
उस वैकुण्ठलोकमें लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियोंके द्वारा भगवान्के चरणकमलोंकी अनेकों प्रकारसे सेवा करती रहती हैं।
कभी-कभी जब वे झूलेपर बैठकर अपने प्रियतम भगवान्की लीलाओंका गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभिसे उन्मत्त होकर भौरे स्वयं उन लक्ष्मीजीका गुण-गान करने लगते हैं ।।१३।।
ब्रह्माजीने देखा कि उस दिव्य लोकमें समस्त भक्तोंके रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभुकी सेवा कर रहे हैं ।।१४।।
उनका मुखकमल प्रसाद-मधुर मुसकानसे युक्त है। आँखोंमें लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्तको अपना सर्वस्व दे देंगे।
सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कंधेपर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थलपर एक सुनहरी रेखाके रूपमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ।।१५।।
वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पंचभूत- ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं।
समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य- इन छः नित्यसिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य- निरन्तर निमग्न रहते हैं ।।१६।।
उनका दर्शन करते ही ब्रह्माजीका हृदय आनन्दके उद्रेकसे लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रोंमें प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रह्माजीने भगवान्के उन चरणकमलोंमें, जो परमहंसोंके निवृत्तिमार्गसे प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया ।।१७।।
ब्रह्माजीके प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रह्माको प्रेम और दर्शनके आनन्दमें निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टिके लिये आदेश देनेके योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजीसे हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकानसे अलंकृत वाणीमें कहा- ।।१८।।
संस्कृत श्लोक: –
अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः । युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ।।१६तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः । ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग् यत् पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ।।१७तं प्रीयमाणं समुपस्थितं तदा प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् । बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन् ।।१८
श्रीभगवानुवाच
संस्कृत श्लोक: –
त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया । चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ।।१९
वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् । ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसो मद्दर्शनावधिः ।।२०
मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम् । यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः ।।२१
हिन्दी अनुवाद :-
श्रीभगवान्ने कहा- ब्रह्माजी! तुम्हारे हृदयमें तो समस्त वेदोंका ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टिरचनाकी इच्छासे चिरकालतक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मनमें कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ।।१९।।
तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लो। क्योंकि मैं मुँहमाँगी वस्तु देनेमें समर्थ हूँ। ब्रह्माजी! जीवके समस्त कल्याणकारी साधनोंका विश्राम-पर्यवसान मेरे दर्शनमें ही है ।। २० ।।
तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जलमें मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसीसे मेरी इच्छासे तुम्हें मेरे लोकका दर्शन हुआ है ।।२१।।
संस्कृत श्लोक: –
प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते । तपो मे हृदयं साक्षादात्माहं तपसोऽनघ ।।२२सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः । बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्य मे दुश्वरं तपः ।।२३
ब्रह्मोवाच
भगवन् सर्वभूतानामध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम् । वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम् ।। २४तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् । परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः ।।२५
यथाऽऽत्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम् । विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना ।। २६क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्गुते । तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव ।।२७भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः । नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं यदनुग्रहात् ।।२८यावत् सखा सख्युरिवेश ते कृतः प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् । अविक्लवस्ते परिकर्मणि स्थितो मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ।।२९
हिन्दी अनुवाद :-
तुम उस समय सृष्टिरचनाका कर्म करनेमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसीसे मैंने तुम्हें तपस्या करनेकी आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्याका आत्मा हूँ ।।२२।।
मैं तपस्यासे ही इस संसारकी सृष्टि करता हूँ, तपस्यासे ही इसका धारण- पोषण करता हूँ और फिर तपस्यासे ही इसे अपनेमें लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लङ्घय शक्ति है ।।२३।।
ब्रह्माजीने कहा-भगवन्! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें साक्षीरूपसे विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञानसे यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ।। २४।।
नाथ! आप कृपा करके मुझ याचककी यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपोंको जान सकूँ ।।२५।।
आप मायाके स्वामी हैं, आपका संकल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी मायाका आश्रय लेकर इस विविध-शक्तिसम्पन्न जगत्की उत्पत्ति,
पालन और संहार करनेके लिये अपने- आपको ही अनेक रूपोंमें बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार आप कैसे करते हैं- इस मर्मको मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ।।२६-२७।।
आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानीसे आपकी आज्ञाका पालन कर सकूँ और सृष्टिकी रचना करते समय भी कर्तापन आदिके अभिमानसे बँध न जाऊँ ।। २८।।
प्रभो! आपने एक मित्रके समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवा-सृष्टिरचनामें लगूँ और सावधानीसे पूर्वसृष्टिके गुण- कर्मानुसार जीवोंका विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपनेको जन्म-कर्मसे स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूं ।। २९।।
संस्कृत श्लोक: –
श्रीभगवानुवाच
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञानसमन्वितम् । सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ।।३०यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः । तथैव तत्त्वविज्ञानमस्तु ते मदनुग्रहात् ।।३१अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ।।३२
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ।।३३यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।।३४एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ।।३५एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना । भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ।।३६
हिन्दी अनुवाद :-
श्रीभगवान्ने कहा- अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ।। ३० ।।
मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं- मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ।। ३१।।
सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ।।३२।।
वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ।। ३३।।
जैसे प्राणियोंके पंचभूतरचित छोटे-बड़े शरीरोंमें आकाशादि पंचमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ।। ३४।।
यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं – इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है- इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है ।। ३५।।
ब्रह्माजी ! तुम अविचल समाधिके द्वारा मेरे इस सिद्धान्तमें पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्पमें विविध प्रकारकी सृष्टिरचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा ।। ३६।।
श्रीशुक उवाच
संस्कृत श्लोक: –
सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् । पश्यतस्तस्य तद् रूपमात्मनो न्यरुणद्धरिः ।।३७ अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः । सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ।।३८ प्रजापतिर्धर्मपतिरेकदा नियमान् यमान् । भद्रं प्रजानामन्विच्छन्नातिष्ठत् स्वार्थकाम्यया ।।३९ तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः । शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ।।४० मायां विविदिषन् विष्णोर्मायेशस्य महामुनिः । महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ।।४१ तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् । देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ।।४२ तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् । प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ।।४३ नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप । ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासायामिततेजसे ।।४४ यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात् पुरुषादिदम् ।यथाऽऽसीत्तदुपाख्यास्ये प्रश्नानन्यांश्च कृत्स्नशः ।।४५
हिन्दी अनुवाद :-
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – लोकपितामह ब्रह्माजीको इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान्ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूपको छिपा लिया ।। ३७।।
जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजीने देखा कि भगवान्ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूपको हमारे नेत्रोंके सामनेसे हटा लिया है, तब उन्होंने अंजलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्पमें जैसी सृष्टि थी, उसी रूपमें इस विश्वकी रचना की ।। ३८।।
एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजीने सारी जनताका कल्याण हो, अपने इस स्वार्थकी पूर्तिके लिये विधिपूर्वक यम-नियमोंको धारण किया ।। ३९।।
उस समय उनके पुत्रोंमें सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजीने मायापति भगवान्की मायाका तत्त्व जाननेकी इच्छासे बड़े संयम, विनय और सौम्यतासे अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवासे ब्रह्माजीको बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ।।४०-४१।।
परीक्षित् ! जब देवर्षि नारदने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ।।४२।।
उनके प्रश्नसे ब्रह्माजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारदको सुनाया, जिसका स्वयं भगवान्ने उन्हें उपदेश किया था ।।४३।।
परीक्षित् ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वतीके तटपर बैठकर परमात्माके ध्यानमें मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजीने वही भागवत उन्हें सुनाया ।।४४।।
तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट्पुरुषसे इस जगत्की उत्पत्ति कैसे हुई तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराणके रूपमें देता हूँ ।।४५।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ।।९।।
१. प्रा० पा०- कालविभ्रमः। २. प्रा० पा० – प्रमुखा०।
१. प्रा० पा०- अथापि। २. प्रा० पा०- नाथनाथ जनार्चित। ३. प्रा० पा०- मम।
१. प्रा० पा० – चेषु च।
१. प्रा० पा०- भवान् यदनु ।