Bhagwat puran pratham skandh chapter 5 (भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:पञ्चमोऽध्यायःभगवान्‌के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजीका पूर्वचरित्र!)

Bhagwat puran pratham skandh chapter 5 (भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:भगवान्‌के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजीका पूर्वचरित्र)

अथ पञ्चमोऽध्यायःभगवान्‌के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजीका पूर्वचरित्र

संस्कृत श्लोक: –

सूत उवाच

अथ तं सुखमासीन उपासीनं बृहच्छ्रवाः । देवर्षिः प्राह विप्रर्षि वीणापाणिः स्मयन्निव ।।१

नारद उवाच

पाराशर्य महाभाग भवतः कच्चिदात्मना । परितुष्यति शारीर आत्मा मानस एव वा ।।२ जिज्ञासितं सुसम्पन्नमपि ते महदद्भुतम् । कृतवान् भारतं यस्त्वं सर्वार्थपरिबृंहितम् ।।३ जिज्ञासितमधीतं च यत्तद्ब्रह्म सनातनम् । अथापि शोचस्यात्मानमकृतार्थ इव प्रभो ।।४

व्यास उवाच

अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं तथापि नात्मा परितुष्यते मे । तन्मूलमव्यक्तमगाधबोधं पृच्छाम हे त्वाऽऽत्मभवात्मभूतम् ।।५

स वै भवान् वेद समस्तगुह्य- मुपासितो यत्पुरुषः पुराणः । परावरेशो मनसैव विश्वं सृजत्यवत्यत्ति गुणैरसङ्गः ।।६

हिन्दी अनुवाद: –

सूतजी कहते हैं- तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारदने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रह्मर्षि व्यासजीसे कहा ।।१।।

नारदजीने प्रश्न किया- महाभाग व्यासजी ! आपके शरीर एवं मन- दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तनसे सन्तुष्ट हैं न? ।।२।।

अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह महाभारतकी रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्म आदि सभी पुरुषार्थोंसे परिपूर्ण है ।।३।।

सनातन ब्रह्मतत्त्वको भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है। फिर भी प्रभु! आप अकृतार्थ पुरुषके समान अपने विषयमें शोक क्यों कर रहे हैं? ।।४।।

व्यासजीने कहा-आपने मेरे विषयमें जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होनेपर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ ।।५।।

नारदजी ! आप समस्त गोपनीय रहस्योंको जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुषकी उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनोंके स्वामी हैं और असंग रहते हुए ही अपने संकल्पमात्रसे गुणोंके द्वारा संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ।।६।।

संस्कृत श्लोक: –

त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकी- मन्तश्चरो वायुरिवात्मसाक्षी । परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतैः स्नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ।।७

श्रीनारद उवाच

भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् । येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ।।८ यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः । न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णितः ।।९ न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् । तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षयाः तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि । नामान्यनन्तस्य यशोऽ‌ङ्कितानि य- ।।१० च्छृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ।।११ नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् । कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ।।१२ अथो महाभाग भवानमोघदृक्

शुचिश्रवाः सत्यरतो धृतव्रतः । उरुक्रमस्याखिलबन्धमुक्तये समाधिनानुस्मर तद्विचेष्टितम् ।।१३

हिन्दी अनुवाद: –

आप सूर्यकी भाँति तीनों लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं और योगबलसे प्राणवायुके समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणोंके साक्षी भी हैं। योगानुष्ठान और नियमोंके द्वारा परब्रह्म और शब्दब्रह्म दोनोंकी पूर्ण प्राप्ति कर लेनेपर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ।।७।।

नारदजीने कहा-व्यासजी ! आपने भगवान्के निर्मल यशका गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान् संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है ।।८।।

आपने धर्म आदि पुरुषार्थोंका जैसा निरूपण किया है, भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वैसा निरूपण नहीं किया ।।९।।

जिस वाणीसे- चाहे वह रस-भाव-अलंकारादिसे युक्त ही क्यों न हो-जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अपवित्र मानी जाती है।

मानसरोवरके कमनीय कमलवनमें विहरनेवाले हंसोंकी भाँति ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते ।।१०।।

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान्‌के सुयशसूचक नामोंसे युक्त है, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ।।११।।

वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्‌की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओंमें सदा ही अमंगलरूप है, वह काम्य कर्म और जो भगवान्‌को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है ।।१२।।

महाभाग व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यपरायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये समाधिके द्वारा अचिन्त्य-शक्ति भगवान्की लीलाओंका स्मरण कीजिये ।।१३।।

जो मनुष्य भगवान्‌की लीलाके अतिरिक्त और कुछ कहनेकी इच्छा करता है, वह उस इच्छासे ही निर्मित अनेक नाम और रूपोंके चक्करमें पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभावसे भर जाती है। जैसे हवाके झकोरोंसे डगमगाती हुई डोंगीको कहीं भी ठहरनेका ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ।।१४।।

संसारी लोग स्वभावसे ही विषयोंमें फँसे हुए हैं। धर्मके नामपर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसायुक्त) सकाम कर्म करनेकी भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत ही उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्खलोग आपके वचनोंसे पूर्वोक्त निन्दित कर्मको ही धर्म मानकर- ‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करनेवाले वचनोंको ठीक नहीं मानते ।।१५।।

भगवान् अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसारकी ओरसे निवृत्त होकर उनके स्वरूपभूत परमानन्दका अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धिसे रहित हैं और गुणोंके द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याणके लिये ही आप भगवान्‌की लीलाओंका सर्वसाधारणके हितकी दृष्टिसे वर्णन कीजिये ।।१६।।

जो मनुष्य अपने धर्मका परित्याग करके भगवान्के चरणकमलोंका भजन-सेवन करता है- भजन परिपक्व हो जानेपर तो बात ही क्या है-यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमंगल हो सकता है? परन्तु जो भगवान्‌का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्मका पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है ।।१७।।

बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह उसी वस्तुकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करे, जो तिनकेसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियोंमें कर्मोंके फलस्वरूप आने-जानेपर भी स्वयं प्राप्त नहीं होती। संसारके विषयसुख तो, जैसे बिना चेष्टाके दुःख मिलते हैं वैसे ही, कर्मके फलरूपमें अचिन्त्यगति समयके फेरसे सबको सर्वत्र स्वभावसे ही मिल जाते हैं ।।१८।।

व्यासजी ! जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्दका सेवक है वह भजन न करनेवाले कर्मी मनुष्योंके समान दैवात् कभी बुरा भाव हो जानेपर भी जन्म-मृत्युमय संसारमें नहीं आता। वह भगवान्‌के चरणकमलोंके आलिंगनका स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रसका चसका जो लग चुका है ।।१९।।

जिनसे जगत्‌की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान् ही इस विश्वके रूपमें भी हैं। ऐसा होनेपर भी वे इससे विलक्षण हैं। इस बातको आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैंने आपको संकेतमात्र कर दिया है ।।२०।।

व्यासजी ! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बातको जानिये कि आप पुरुषोत्तम- भगवान्के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत्‌के कल्याणके लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेषरूपसे भगवान्‌की लीलाओंका कीर्तन कीजिये ।।२१।।

विद्वानोंने इस बातका निरूपण किया है कि मनुष्यकी तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दानका एकमात्र प्रयोजन यही है कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्णके गुणों और लीलाओंका वर्णन किया जाय ।।२२।।

संस्कृत श्लोक: –

ततोऽन्यथा किञ्चन यद्विवक्षतः पृथग्दृशस्तत्कृतरूपनामभिः । न

कुत्रचित्क्वापि च दुःस्थिता मति- र्लभेत वाताहतनौरिवास्पदम् ।।१४ जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रमः । यद्वाक्यतो धर्म इतीतरः स्थितो न मन्यते तस्य निवारणं जनः ।।१५ विचक्षणोऽस्यार्हति वेदितुं विभो-

रनन्तपारस्य निवृत्तितः सुखम् । प्रवर्तमानस्य गुणैरनात्मन- स्ततो भवान्दर्शय चेष्टितं विभोः ।।१६ त्यक्त्वा स्वधर्मं चरणाम्बुजं हरे-

र्भजन्नपक्वोऽथ पतेत्ततो यदि ।

यत्र क्व वाभद्रमभूदमुष्य किं को वार्थ आप्तोऽभजतां स्वधर्मतः ।।१७

तस्यैव हेतोः प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद्भमतामुपर्यधः ।

तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं कालेन सर्वत्र गभीररंहसा ।।१८

न वै जनो जातु कथञ्चनाव्रजे- न्मुकुन्दसेव्यन्यवदङ्ग संसृतिम् ।

स्मरन्मुकुन्दाज्युपगूहनं पुन- विहातुमिच्छेन्न रसग्रहो यतः ।।१९

इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो यतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवाः ।

तद्धि स्वयं वेद भवांस्तथापि वै प्रादेशमात्रं भवतः प्रदर्शितम् ।।२०

त्वमात्मनाऽऽत्मानमवेह्यमोघदृक् परस्य पुंसः परमात्मनः कलाम् । अजं प्रजातं जगतः शिवाय त- न्महानुभावाभ्युदयोऽधिगण्यताम् ।।२१

इदं हि पुंसस्तपसः श्रुतस्य वा स्विष्टस्य सूक्तस्य च बुद्धिदत्तयोः । अविच्युतोऽर्थः कविभिर्निरूपितो यदुत्तमश्लोकगुणानुवर्णनम् ।।२२

अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् । निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।२३ ते मय्यपेताखिलचापलेऽर्भके

दान्तेऽधृतक्रीडनकेऽनुवर्तिनि ।

चक्रुः कृपां यद्यपि तुल्यदर्शनाः शुश्रूषमाणे मुनयोऽल्पभाषिणि ।।२४ उच्छिष्टलेपाननुमोदितो द्विजैः

सकृत्स्म भुञ्ज तदपास्तकिल्बिषः । एवं प्रवृत्तस्य विशुद्धचेतस- स्तद्धर्म एवात्मरुचिः प्रजायते ।।२५ तत्रान्वहं कृष्णकथाः प्रगायता- मनुग्रहेणाशृणवं मनोहराः । ताः श्रद्धया मेऽनुपदं विशृण्वतः प्रियश्रवस्यङ्ग ममाभवद्रुचिः ।।२६

हिन्दी अनुवाद: –

मुने ! पिछले कल्पमें अपने पूर्वजीवनमें मैं वेदवादी ब्राह्मणोंकी एक दासीका लड़का था। वे योगी वर्षाऋतुमें एक स्थानपर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपनमें ही मैं उनकी सेवामें नियुक्त कर दिया गया था ।।२३।।

मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकारकी चंचलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूदसे दूर रहता था और आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभावको देखकर समदर्शी मुनियोंने मुझ सेवकपर अत्यन्त अनुग्रह किया ।।२४।।

उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनोंमें लगा हुआ प्रसाद मैं एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते- करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसीमें मेरी भी रुचि हो गयी ।।२५।।

प्यारे व्यासजी ! उस सत्संगमें उन लीलागानपरायण महात्माओंके अनुग्रहसे मैं प्रतिदिन श्रीकृष्णकी मनोहर कथाएँ सुना करता। श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते- करते प्रियकीर्ति भगवान्में मेरी रुचि हो गयी ।।२६।।

संस्कृत श्लोक: –

तस्मिंस्तदा लब्धरुचेर्महामुने प्रियश्रवस्यस्खलिता मतिर्मम ।

ययाहमेतत्सदसत्स्वमायया पश्ये मयि ब्रह्मणि कल्पितं परे ।। २७ इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरे- र्विशृण्वतो मेऽनुसवं यशोऽमलम् । संकीर्त्यमानं मुनिभिर्महात्मभि- र्भक्तिः प्रवृत्ताऽऽत्मरजस्तमोपहा ।।२८ तस्यैवं मेऽनुरक्तस्य प्रश्रितस्य हतैनसः । श्रद्दधानस्य बालस्य दान्तस्यानुचरस्य च ।।२९ ज्ञानं गुह्यतमं यत्तत्साक्षाद्भगवतोदितम् । अन्ववोचन् गमिष्यन्तः कृपया दीनवत्सलाः ।।३० येनैवाहं भगवतो वासुदेवस्य वेधसः । मायानुभावमविदं येन गच्छन्ति तत्पदम् ।।३१

एतत्संसूचितं ब्रह्मस्तापत्रयचिकित्सितम् । यदीश्वरे भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ।।३२ आमयो यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत । तदेव ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ।।३३ एवं नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः । त एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ।।३४ यदत्र क्रियते कर्म भगवत्परितोषणम् । ज्ञानं यत्तदधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् ।।३५ कुर्वाणा यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृत् । गृणन्ति गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ।। ३६ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि । प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ।।३७

हिन्दी अनुवाद: –

महामुने ! जब भगवान्में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहरकीर्ति प्रभुमें मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धिसे मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत्‌को अपने परब्रह्मस्वरूप आत्मामें मायासे कल्पित देखने लगा ।। २७।।

इस प्रकार शरद् और वर्षा – इन दो ऋतुओंमें तीनों समय उन महात्मा मुनियोंने श्रीहरिके निर्मल यशका संकीर्तन किया और मैं प्रेमसे प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्तके रजोगुण और तमोगुणको नाश करनेवाली भक्तिका मेरे हृदयमें प्रादुर्भाव हो गया ।। २८।।

मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगोंकी सेवासे मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे हृदयमें श्रद्धा थी, इन्द्रियोंमें संयम था एवं शरीर, वाणी और मनसे मैं उनका आज्ञाकारी था ।। २९।।

उन दीनवत्सल महात्माओंने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्यतम ज्ञानका उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान्ने अपने श्रीमुखसे किया है ।।३०।।

उस उपदेशसे ही जगत्‌के निर्माता भगवान् श्रीकृष्णकी मायाके प्रभावको मैं जान सका, जिसके जान लेनेपर उनके परमपदकी प्राप्ति हो जाती है ।।३१।।

सत्यसंकल्प व्यासजी ! पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना ही संसारके तीनों तापोंकी एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी ।।३२।।

प्राणियोंको जिस पदार्थके सेवनसे जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्साविधिके अनुसार प्रयोग करनेपर क्या उस रोगको दूर नहीं करता? ।।३३।।

इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्योंको जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें डालनेवाले हैं, तथापि जब वे भगवान्‌को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है ।। ३४।।

इस लोकमें जो शास्त्रविहित कर्म भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये किये जाते हैं, उन्हींसे पराभक्तियुक्त ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।। ३५।।

उस भगवदर्थ कर्मके मार्गमें भगवान्‌के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान् श्रीकृष्णके गुण और नामोंका कीर्तन तथा स्मरण करते हैं ।। ३६।।

‘प्रभो! आप भगवान् श्रीवासुदेवको नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते हैं। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षणको भी नमस्कार है’ ।। ३७।।

इस प्रकार जो पुरुष चतुर्व्यहरूपी भगवन्मूर्तियोंके नामद्वारा प्राकृतमूर्तिरहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान् यज्ञपुरुषका पूजन करता है, उसीका ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है ।।३८।।

संस्कृत श्लोक: –

इति मूर्त्यभिधानेन मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् । यजते यज्ञपुरुषं स सम्यग्दर्शनः पुमान् ।।३८

इमं स्वनिगमं ब्रह्मन्नवेत्य मदनुष्ठितम् । अदान्मे ज्ञानमैश्वर्यं स्वस्मिन् भावं च केशवः ।।३९

त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभोः समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम् । आख्याहि दुःखैर्मुहुरर्दितात्मनां संक्लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ।।४०

हिन्दी अनुवाद: –

ब्रह्मन् ! जब मैंने भगवान्‌की आज्ञाका इस प्रकार पालन किया, तब इस बातको जानकर भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरूपा प्रेमाभक्तिका दान किया ।।३९।।

व्यासजी ! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप भगवान्‌की ही कीर्तिका- उनकी प्रेममयी लीलाका वर्णन कीजिये। उसीसे बड़े-बड़े ज्ञानियोंकी भी जिज्ञासा पूर्ण होती है।

जो लोग दुःखोंके द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःखकी शान्ति इसीसे हो सकती है और कोई उपाय नहीं है ।।४०।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे

पञ्चमोऽध्यायः ।।५।।

२- प्रा० पा०-तथापि।

१. प्रा० पा०-ते प्रदेश०। २. प्रा० पा०- बुद्ध०। ३. प्रा० पा०- गुणानुकीर्तनम्। ४.

प्रा० पा०-सुतो।

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