Bhagwat puran pratham skandh chapter 3 (भागवत पुराण प्रथम स्कंध:तृतीयोऽध्यायः भगवान्के अवतारोंका वर्णन)

Bhagwat puran pratham skandh chapter 3 (भागवत पुराण प्रथम स्कंध:तृतीयोऽध्यायः भगवान्के अवतारोंका वर्णन)

अथ तृतीयोऽध्यायः भगवान्के अवतारोंका वर्णन

  संस्कृत श्लोक: –

सूत उवाच

जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्महदादिभिः । सम्भूतं षोडशकलमादौ लोकसिसृक्षया ।।१

यस्याम्भसि शयानस्य योगनिद्रां वितन्वतः । नाभिहृदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पतिः ।।२

यस्यावयवसंस्थानैः कल्पितो लोकविस्तरः । तद्वै भगवतो रूपं विशुद्धं सत्त्वमूर्जितम् ।।३

हिन्दी अनुवाद: –

श्रीसूतजी कहते हैं-सृष्टिके आदिमें भगवान्ने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदिसे निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत-ये सोलह कलाएँ थीं ।।१।।

उन्होंने कारण-जलमें शयन करते हुए जब योगनिद्राका विस्तार किया, तब उनके नाभि- सरोवरमेंसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे प्रजापतियोंके अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ।।२।।

भगवान्के उस विरारूपके अंग-प्रत्यंगमें ही समस्त लोकोंकी कल्पना की गयी है, वह भगवान्‌का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ।।३।।

संस्कृत श्लोक: –

पश्यन्त्यदो रूपमदभ्रचक्षुषा सहस्रपादोरुभुजानना‌द्भुतम् । सहस्रमूर्धश्रवणाक्षिनासिकं सहस्रमौल्यम्बरकुण्डलोल्लसत् ।।४

एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् ।

यस्यांशांशेन सृज्यन्ते देवतिर्यङ्नरादयः ।।५

स एव प्रथमं देवः कौमारं सर्गमास्थितः ।

चचार दुश्वरं ब्रह्मा ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ।।६

द्वितीयं तु भवायास्य रसातलगतां महीम् । उद्धरिष्यन्नुपादत्त यज्ञेशः सौकरं वपुः ।।७

तृतीयमृषिसर्गं च देवर्षित्वमुपेत्य सः । तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्यं कर्मणां यतः ।।८

तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी । भूत्वाऽऽत्मोपशमोपेतमकरोद् दुश्चरं तपः ।।९

पञ्चमः कपिलो नाम सिद्धेशः कालविप्लुतम् । प्रोवाचासुरये सांख्यं तत्त्वग्रामविनिर्णयम् ।।१०

षष्ठे अत्रेरपत्यत्वं वृतः प्राप्तोऽनसूयया । आन्वीक्षिकीमलर्काय प्रह्रादादिभ्य ऊचिवान् ।।११

ततः सप्तम आकृत्यां रुचेर्यज्ञोऽभ्यजायत । स यामाद्यैः सुरगणैरपात्स्वायम्भुवान्तरम् ।।१२

हिन्दी अनुवाद: –

योगीलोग दिव्यदृष्टिसे भगवान्‌के उस रूपका दर्शन करते हैं। भगवान्का वह रूप हजारों पैर, जाँचें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणोंसे वह उल्लसित रहता है ।।४।।

भगवान्‌का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारोंका अक्षय कोष है- इसीसे सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस रूपके छोटे-से- छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंकी सृष्टि होती है ।।५।।

उन्हीं प्रभुने पहले कौमारसर्गमें सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार-इन चार ब्राह्मणोंके रूपमें अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया ।।६।।

दूसरी बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्ने ही रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको निकाल लानेके विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ।।७।।

ऋषियोंकी सृष्टिमें उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंके द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ।।८।।

धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भसे उन्होंने नर- नारायणके रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ।।९।।

पाँचवें अवतारमें वे सिद्धोंके स्वामी कपिलके रूपमें प्रकट हुए और तत्त्वोंका निर्णय करनेवाले सांख्य-शास्त्रका, जो समयके फेरसे लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मणको उपदेश किया ।।१०।।

अनसूयाके वर माँगनेपर छठे अवतारमें वे अत्रिकी सन्तान- दत्तात्रेय हुए। इस अवतारमें उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदिको ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया ।।११।।

सातवीं बार रुचि प्रजापतिकी आकृति नामक पत्नीसे यज्ञके रूपमें उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरकी रक्षा की ।।१२।।

संस्कृत श्लोक: –

अष्टमे मेरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः । दर्शयन् वर्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ।।१३

ऋषिभिर्याचितो भेजे नवमं पार्थिवं वपुः । दुग्धेमामोषधीर्विप्रास्तेनायं स उशत्तमः ।।१४

रूपं स जगृहे मात्स्यं चाक्षुषोदधिसम्प्लवे । नाव्यारोप्य महीमय्यामपाद्वैवस्वतं मनुम् ।।१५

सुरासुराणामुदधिं मथ्नतां मन्दराचलम् । दधे कमठरूपेण पृष्ठ एकादशे विभुः ।।१६

धान्वन्तरं द्वादशमं त्रयोदशममेव च । अपाययत्सुरानन्यान्मोहिन्या मोहयन् स्त्रिया ।।१७

चतुर्दशं नारसिंहं बिभ्रदैत्येन्द्रमूर्जितम् । ददार करजैर्वक्षस्येरकां कटकृद्यथा ।।१८

पञ्चदशं वामनकं कृत्वागादध्वरं बलेः । पदत्रयं याचमानः प्रत्यादित्सुस्त्रिविष्टपम् ।।१९

अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान् । त्रिःसप्तकृत्वः कुपितो निःक्षत्रामकरोन्महीम् ।।२०

ततः सप्तदशे जातः सत्यवत्यां पराशरात् । चक्रे वेदतरोः शाखा दृष्ट्वा पुंसोऽल्पमेधसः ।।२१

नरदेवत्वमापन्नः सुरकार्यचिकीर्षया। समुद्रनिग्रहादीनि चक्रे वीर्याण्यतः परम् ।।२२

हिन्दी अनुवाद: –

राजा नाभिकी पत्नी मेरु देवीके गर्भसे ऋषभदेवके रूपमें भगवान्ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूपमें उन्होंने परमहंसोंका वह मार्ग, जो सभी आश्रमियोंके लिये वन्दनीय है, दिखाया ।।१३।।

ऋषियोंकी प्रार्थनासे नवीं बार वे राजा पृथुके रूपमें अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियो ! इस अवतारमें उन्होंने पृथ्वीसे समस्त ओषधियोंका दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।।१४।।

चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें जब सारी त्रिलोकी समुद्रमें डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्यके रूपमें दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौकापर बैठाकर अगले मन्वन्तरके अधिपति वैवस्वत मनुकी रक्षा की ।।१५।।

जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूपसे भगवान्ने मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ।।१६।।

बारहवीं बार धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लेकर समुद्रसे प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करते हुए देवताओंको अमृत पिलाया ।।१७।।

चौदहवें अवतारमें उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त बलवान् दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी छाती अपने नखोंसे अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सींकको चीर डालता है ।।१८।।

पंद्रहवीं बार वामनका रूप धारण करके भगवान् दैत्यराज बलिके यज्ञमें गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकीका राज्य, परन्तु माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ।।१९।।

सोलहवें परशुराम अवतारमें जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणोंके द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया ।।२०।।

इसके बाद सत्रहवें अवतारमें सत्यवतीके गर्भसे पराशरजीके द्वारा वे व्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए, उस समय लोगोंकी समझ और धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्षकी कई शाखाएँ बना दीं ।।२१।।

अठारहवीं बार देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेकी इच्छासे उन्होंने राजाके रूपमें रामावतार ग्रहण किया और सेतुबन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ।। २२ ।।

संस्कृत श्लोक: –

एकोनविंशे विंशतिमे वृष्णिषु प्राप्य जन्मनी । रामकृष्णाविति भुवो भगवानहरद्भरम् ।।२३ ततः कलौ सम्प्रवृत्ते सम्मोहाय सुरद्विषाम् । बुद्धो नाम्नाजनसुतः कीकटेषु भविष्यति ।।२४ अथासौ युगसंध्यायां दस्युप्रायेषु राजसु । जनिता विष्णुयशसो नाम्ना कल्किर्जगत्पतिः ।।२५ अवतारा ह्यसंख्येया हरेः सत्त्वनिधेर्द्विजाः । यथाविदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्रशः ।।२६ ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः । कलाः सर्वे हरेरेव सप्रजापतयस्तथा ।। २७ एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।

इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ।।२८ जन्म गुह्यं भगवतो य एतत्प्रयतो नरः । सायं प्रातर्गुणन् भक्त्या दुःखग्रामाद्विमुच्यते ।।२९ एतद्रूपं भगवतो ह्यरूपस्य चिदात्मनः । मायागुणैर्विरचितं महदादिभिरात्मनि ।।३० यथा नभसि मेघौघो रेणुर्वा पार्थिवोऽनिले । एवं द्रष्टरि दृश्यत्वमारोपितमबुद्धिभिः ।।३१

हिन्दी अनुवाद: –

उन्नीसवें और बीसवें अवतारोंमें उन्होंने यदुवंशमें बलराम और श्रीकृष्णके नामसे प्रकट होकर पृथ्वीका भार उतारा ।।२३।।

उसके बाद कलियुग आ जानेपर मगधदेश (बिहार) में देवताओंके द्वेषी दैत्योंको मोहित करनेके लिये अजनके पुत्ररूपमें आपका बुद्धावतार होगा ।।२४।।

इसके भी बहुत पीछे जब कलियुगका अन्त समीप होगा और राजालोग प्रायः लुटेरे हो जायँगे, तब जगत्‌के रक्षक भगवान् विष्णुयश नामक ब्राह्मणके घर कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे ।।२५।।

शौनकादि ऋषियो ! जैसे अगाध सरोवरसे हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान् श्रीहरिके असंख्य अवतार हुआ करते हैं ।। २६ ।।

ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान्‌के ही अंश हैं ।।२७।।

ये सब अवतार तो भगवान्के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं ।। २८।।

भगवान्‌के दिव्य जन्मोंकी यह कथा अत्यन्त गोपनीय – रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेमसे इसका पाठ करता है, वह सब दुःखोंसे छूट जाता है ।।२९।।

प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्‌का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्में ही कल्पित है ।।३०।।

जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूलमें होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलोंका आकाशमें और धूसरपनेका वायुमें आरोप करते हैं-वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल दृश्यरूप जगत्‌का आरोप करते हैं ।। ३१।।

इस स्थूलरूपसे परे भगवान्‌का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है-जो न तो स्थूलकी तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुननेमें ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर है। आत्माका आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ।।३२।।

संस्कृत श्लोक: –

अतः परं यदव्यक्तमव्यूढगुणव्यूहितम् । अदृष्टाश्रुतवस्तुत्वात्स जीवो यत्पुनर्भवः ।।३२

यत्रेमे सदसद्रूपे प्रतिषिद्धे स्वसंविदा । अविद्ययाऽऽत्मनि कृते इति तद्ब्रह्मदर्शनम् ।।३३

यद्येषोपरता देवी माया वैशारदी मतिः । सम्पन्न एवेति विदुर्महिम्नि स्वे महीयते ।।३४

एवं जन्मानि कर्माणि ह्यकर्तुरजनस्य च । वर्णयन्ति स्म कवयो वेदगुह्यानि हृत्पतेः ।।३५

स वा इदं विश्वममोघलीलः सृजत्यवत्यत्ति न सज्जतेऽस्मिन् ।

भूतेषु चान्तर्हित आत्मतन्त्रः षाड्वर्गिकं जिघ्रति षड्गुणेशः ।।३६

न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातु- रवैति जन्तुः कुमनीष ऊतीः । नामानि रूपाणि मनोवचोभिः सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः ।।३७

स वेद धातुः पदवीं परस्य दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः । योऽमायया संततयानुवृत्त्या भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ।।३८

हिन्दी अनुवाद: –

उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूलशरीर अविद्यासे ही आत्मामें आरोपित हैं। जिस अवस्थामें आत्मस्वरूपके ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्मका साक्षात्कार होता है ।।३३।।

तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वरकी माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमामें प्रतिष्ठित होता है ।।३४।।

वास्तवमें जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान्‌के अप्राकृत जन्म और कर्मोंका तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदोंके अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं ।। ३५।।

भगवान्की लीला अमोघ है। वे लीलासे ही इस संसारका सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते।

प्राणियोंके अन्तःकरणमें छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मनके नियन्ताके रूपमें उनके विषयोंको ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं-ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ।। ३६ ।।

जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नटके संकल्प और वचनोंसे की हुई करामातको नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपोंको तथा उनकी लीलाओंको कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क-युक्तियोंके द्वारा नहीं पहचान सकता ।।३७।।

चक्रपाणि भगवान्‌की शक्ति और पराक्रम अनन्त है- उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत्‌के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूपको अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपटभावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है- सेवाभावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है ।।३८ ।।

संस्कृत श्लोक: –

अथेह धन्या भगवन्त इत्थं यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे । कुर्वन्ति सर्वात्मकमात्मभावं न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ।।३९

इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् । उत्तमश्लोकचरितं चकार भगवानृषिः ।।४०

निःश्रेयसाय लोकस्य धन्यं स्वस्त्ययनं महत् । तदिदं ग्राहयामास सुतमात्मवतां वरम् ।।४१

सर्ववेदेतिहासानां सारं सारं समुद्धृतम् । स तु संश्रावयामास महाराजं परीक्षितम् ।।४२

प्रायोपविष्टं गंगायां परीतं परमर्षिभिः ।

कृष्णे स्वधामोपगते धर्मज्ञानादिभिः सह ।।४३

कलौ नष्टदृ‌शामेष पुराणार्कोऽधुनोदितः ।

तत्र कीर्तयतो विप्रा विप्रर्षेर्भूरितेजसः ।।४४

अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टस्तदनुग्रहात् ।

सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाधीतं यथामति ।।४५

हिन्दी अनुवाद: –

शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवनमें और

विघ्न-बाधाओंसे भरे इस संसारमें समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे वह सर्वात्मक

आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके

भयंकर चक्रमें नहीं पड़ना होता ।।३९।।

भगवान् वेदव्यासने यह वेदोंके समान भगवच्चरित्रसे परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ।।४०।।

उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराणको लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ।।४१।।

इसमें सारे वेद और इतिहासोंका सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌को यह सुनाया ।।४२।।

उस समय वे परमर्षियोंसे घिरे हुए आमरण अनशनका व्रत लेकर गंगातटपर बैठे हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधामको पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो !

जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था। वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगोंको सुनाऊँगा ।।४३-४५।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ।।३।।


* यहाँ बाईस अवतारोंकी गणना की गयी है, परन्तु भगवान्‌के चौबीस अवतार प्रसिद्ध हैं। कुछ विद्वान् चौबीसकी संख्या यों पूर्ण करते हैं- राम-कृष्णके अतिरिक्त बीस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही, शेष चार अवतार श्रीकृष्णके ही अंश हैं।

*स्वयं श्रीकृष्ण तो पूर्ण परमेश्वर हैं; वे अवतार नहीं, अवतारी हैं। अतः श्रीकृष्णको अवतारोंकी गणनामें नहीं गिनते। उनके चार अंश ये हैं- एक तो केशका अवतार, दूसरा सुतपा तथा पृश्निपर कृपा करनेवाला अवतार, तीसरा संकर्षण-बलराम और चौथा परब्रह्म।

*इस प्रकार इन चार अवतारोंसे विशिष्ट पाँचवें साक्षात् भगवान् वासुदेव हैं। दूसरे विद्वान् ऐसा मानते हैं कि बाईस अवतार तो उपर्युक्त हैं ही; इनके अतिरिक्त दो और हैं- हंस और हयग्रीव।

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