Bhagwat puran Pratham Skandh Chapter 11, भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वारकामें श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

Bhagwat puran Pratham Skandh Chapter 11, भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वारकामें श्रीकृष्णका राजोचित स्वागतअथैकादशोऽध्यायः द्वारकामें श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

संस्कृत श्लोक:-

सूत उवाच

    आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।

नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् । नैव तृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्गमच्युतम् ।।२५

हिन्दी अनुवाद: –

भगवान् श्रीकृष्णने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकोंसे उनकी योग्यताके अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया ।।२१।।

किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया।

जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे

लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया ।।२२-२३।।

शौनकजी ! जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारकाकी कुल- कामिनियाँ भगवान्‌के दर्शनको ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियोंपर चढ़ गयीं ।। २४।।

भगवान्‌का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मीका निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं।

उनके अंग-अंग शोभाके धाम हैं। भगवान्‌की इस छविको द्वारकावासी नित्य- निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ।।२५-२६।।

द्वारकाके राजपथपर भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर श्वेतवर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चॅवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे।

इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो ।। २७।।

संस्कृत श्लोक:-

श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् । बाहवो लोकपालानां सारङ्गाणां पदाम्बुजम् ।।२६

सितातपत्रव्यजनैरुपस्कृतः प्रसूनवर्षेरभिवर्षितः पथि । पिशङ्गवासा वनमालया बभौ घनो यथार्कोडुपचापवैद्युतैः ।।२७

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः । ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ।।२८

ताः पुत्रमङ्कमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधराः ।

दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ।।१

स उच्चकाशे धवलोदरो दरो- ऽप्युरुक्रमस्याधरशोणशोणिमा । दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे

यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ।।२

तमुपश्श्रुत्य निनदं जगद्भयभयावहम् । प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ।।३ तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः । आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ।।४ प्रोचुर्हर्षगद्‌गदया गिरा ।

प्रीत्युत्फुल्लमुखाः पितरं सर्वसुहृदमवितारमिवार्भकाः ।।५ नताः स्म ते नाथ सदाङ्घ्रिपङ्कजं विरिञ्चवैरिञ्च्यसुरेन्द्रवन्दितम् । परायणं क्षेममिहेच्छतां परं

न यत्र कालः प्रभवेत् परः प्रभुः ।।६

भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता । त्वं सद्‌गुरुर्नः परमं च दैवतं यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ।।७

अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।

प्रेमस्मितस्निग्धनिरीक्षणाननं पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ।।८

हिन्दी अनुवाद: –

सूतजी कहते हैं- श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगोंकी

विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पांचजन्य नामक शंख बजाया ।।१।।

भगवान्‌के होठोंकी लालीसे लाल हुआ वह श्वेतवर्णका शंख बजते समय उनके करकमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वरसे मधुर गान कर रहा हो ।।२।।

भगवान्‌के शंखकी वह ध्वनि संसारके भयको भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ।।३।।

भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभसे ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं, फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ।।४।।

सबके मुखकमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ।।५।।

‘स्वामिन्! हम आपके उन चरणकमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रतक करते हैं, जो इस संसारमें परम कल्याण चाहनेवालोंके लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ।।६।।

विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्‌गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ।।७।।

अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है। प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ।।८।।

संस्कृत श्लोक:-

यर्हाम्बुजाक्षापससार भो भवान्

कुरून् मधून् वाथ सुहृद्दिदृक्षया । तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्

रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ।।९

इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः । शृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरीम् ।।१०

मधुभोजदशार्हार्हकुकुरान्धकवृष्णिभिः । आत्मतुल्यबलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ।।११

सर्वर्तुसर्वविभवपुण्यवृक्षलताश्रमैः । उद्यानोपवनारामैर्वृतपद्माकरश्रियम् ।।१२

गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुकतोरणाम् ।

चित्रध्वजपताकाग्रैरन्तः प्रतिहतातपाम् ।।१३

सम्मार्जितमहामार्गरथ्यापणकचत्वराम् । सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्कुरैः ।।१४

द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षतफलेक्षुभिः । अलङ्कृतां पूर्णकुम्भैर्बलिभिर्धूपदीपकैः ।।१५

निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः । अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चा‌द्भुतविक्रमः ।।१६

हिन्दी अनुवाद: –

कमलनयन श्रीकृष्ण! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि- कोटि वर्षोंके समान लम्बा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्यके बिना आँखोंकी ।।९।।

भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रहकी वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ।।१०।।

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसीसे भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ।।११।।

वह पुरी समस्त ऋतुओंके सम्पूर्ण वैभवसे सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओंके कुंजोंसे युक्त थी। स्थान-स्थानपर फलोंसे पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।१२।।

नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सड़कोंपर भगवान्‌के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ।।१३।।

उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे और भगवान्‌के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अंकुर चारों ओर बिखरे हुए थे ।।१४।।

घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ।।१५।।

उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य-सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा।

वे मंगलशकुनके लिये एक गजराजको आगे करके स्वस्त्ययनपाठकरते हुए और मांगलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले। शंख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्‌की अगवानी करने चले ।।१६-१८।।

साथ ही भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पड़नेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढ़कर भगवान्‌की अगवानीके लिये चलीं ।।१९।।

बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान् श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले ।।२०।।

संस्कृत श्लोक:-

प्रद्युम्नश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः । प्रहर्षवेगोच्छशितशयनासनभोजनाः ।।१७

वारणेन्द्रं पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्गलैः । शङ्खतूर्यनिनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः । प्रत्युज्जग्मू रथैर्दृष्टाः प्रणयागतसाध्वसाः ।।१८

वारमुख्याश्च शतशो यानैस्तद्दर्शनोत्सुकाः । लसत्कुण्डलनिर्भातकपोलवदनश्रियः ।।१९

नटनर्तकगन्धर्वाः सूतमागधवन्दिनः। गायन्ति चोत्तम श्लोकचरितान्यद्भुतानि च ।।२०

भगवांस्तत्र बन्धूनां पौराणामनुवर्तिनाम् । यथाविध्युपसङ्गम्य सर्वेषां मानमादधे ।।२१

प्रह्वाभिवादनाश्लेषकरस्पर्शस्मितेक्षणैः । आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्चाभिमतैर्विभुः ।।२२

स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।

आशीर्भिर्युज्यमानोऽन्यैर्वन्दिभिश्चाविशत्पुरम् ।।२३

राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।

हर्याण्यारुरुहुर्विप्र तदीक्षणमहोत्सवाः ।।२४

नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् । नैव तृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्गमच्युतम् ।।२५

हिन्दी अनुवाद: –

भगवान् श्रीकृष्णने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकोंसे उनकी योग्यताके अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया ।।२१।।

किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया।

इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया ।।२२-२३।।

शौनकजी ! जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारकाकी कुल- कामिनियाँ भगवान्‌के दर्शनको ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियोंपर चढ़ गयीं ।। २४।।

भगवान्‌का वक्षःस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मीका निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं।

उनके अंग-अंग शोभाके धाम हैं। भगवान्‌की इस छविको द्वारकावासी नित्य- निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ।।२५-२६।।

द्वारकाके राजपथपर भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर श्वेतवर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चॅवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो ।। २७।।

संस्कृत श्लोक:-

श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् । बाहवो लोकपालानां सारङ्गाणां पदाम्बुजम् ।।२६

सितातपत्रव्यजनैरुपस्कृतः प्रसूनवर्षेरभिवर्षितः पथि । पिशङ्गवासा वनमालया बभौ घनो यथार्कोडुपचापवैद्युतैः ।।२७

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः । ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ।।२८

ताः पुत्रमङ्कमारोप्य स्नेहस्नुतपयोधराः ।

हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुनेंत्रजैर्जलैः ।।२९

अथाविशत् स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् । प्रासादा यत्र पत्नीनां सहस्राणि च षोडश ।।३०

पत्न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं विलोक्य सञ्जातमनोमहोत्सवाः ।

उत्तस्थुरारात् सहसाऽऽसनाशयात् साकं व्रतैर्बीडितलोचनाननाः ।।३१

हिन्दी अनुवाद: –

भगवान् सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया।

स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ।। २८-२९।।

माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग- सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियोंके अलग-अलग महल थे ।।३०।।

अपने प्राणनाथ भगवान् श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियोंके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं; बल्कि उन नियमोंको भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पतिके प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ।। ३१।।

भगवान्‌के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रोंके बहाने शरीरसे उनका आलिंगन किया।

शौनकजी! उस समय उनके नेत्रोंमें जो प्रेमके आँसू छलक आये थे, उन्हें संकोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशताके कारण वे ढलक ही गये ।।३२।।

संस्कृत श्लोक:-

तमात्मजैर्दृष्टिभिरन्तरात्मना दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् । निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयो- र्विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ।।३२

यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगत- स्तथापि तस्याङ्घ्रियुगं नवं नवम् । पदे पदे का विरमेत तत्पदा- च्चलापि यच्छ्रीर्न जहाति कर्हिचित् ।।३३

एवं नृपाणां क्षितिभारजन्मना- मक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम् । विधाय वैरं श्वसनो यथानलं मिथो वधेनोपरतो निरायुधः ।।३४

स एष नरलोकेऽस्मिन्नवतीर्णः स्वमायया । रेमे स्त्रीरत्नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ।।३५

उद्दामभावपिशुनामलवल्गुहास- व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् । सम्मुह्य चापमजहात्प्रमदोत्तमास्ता यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ।।३६

तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्गमपि सङ्गिनम् । आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ।।३७

एतदीशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः । न युज्यते सदाऽऽत्मस्थैर्यथा बुद्धिस्तदाश्रया ।।३८

हिन्दी अनुवाद: –

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण एकान्तमें सर्वदा ही उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पदपर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभावसे ही चंचल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षणके लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी संनिधिसे किस स्त्रीकी तृप्ति हो सकती है ।।३३।।

जैसे वायु बाँसोंके संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वीके भारभूत और शक्तिशाली राजाओंमें परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरेसे मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ।।३४।।

साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीलासे इस मनुष्यलोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने साधारण मनुष्यकी तरह क्रीडा की ।। ३५।।

जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया था- वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असंग भगवान् श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं- यह उनकी मूर्खता है ।।३६-३७।।

यही तो भगवान्‌की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्‌की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती ।। ३८।।

संस्कृत श्लोक:-

तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।अप्रमाणविदो भर्तुरीश्वरं मतयो यथा ।।३९

हिन्दी अनुवाद: –

वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं-ठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ।। ३९।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने कृष्णद्वारकाप्रवेशो नामैकादशोऽध्यायः ।।११।।



१. प्रा० पा०- शङ्खवरं। २. परः प्रभो। ३. प्रा० पा०- मातात्मसुहृत्पिता पतिः।

१. प्रा० पा०- प्राचीन प्रतिमें नवम श्लोकके बाद एक श्लोक अधिक है, जो इस प्रकार है- ‘कथं वयं नाथ चिरोषिते त्वयि प्रसन्नदृष्ट्‌याखिलतापशोषणम् । जीवाम ते सुन्दरहासशोभितमपश्यमाना वदनं मनोहरम् ।।’

२. प्रा० पा०- पुरम्। ३. प्रा० पा०- दीपधूपकैः।

१. प्रा० पा० – चारुसाम्बगदादयः। २. प्रा० पा०- ब्राह्मणैस्तु सुमङ्गलैः। ३. प्रा० पा०- प्रतिजग्मू। ४. प्रा० पा०- रथैर्ब्रह्मन्। ५. प्रा० पा०- निर्भिन्न०। ६. प्रा० पा०- गायन्त उत्तमश्लोक०। ७. प्रा० पा०- बान्धवानथ आश्लिष्य। ८. प्रा० पा०- पुरीम्। ९. प्रा० पा०-द्वारकायां।

१. प्रा० पा०- सहसासनाश्रयात्सकञ्चुका व्रीडित० ।

* चाहिये । जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना

क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम् ।

हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ।।

जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्रीको खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवोंमें भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना- इन पाँच कामोंको त्याग देना चाहिये। (याज्ञवल्क्यस्मृति)

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