Bhagwat puran pratham skandh chapter 1 (भागवत पुराण प्रथमः स्कन्धः प्रथमोऽध्यायः श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियोंका प्रश्न)

Bhagwat puran pratham skandh chapter 1 (भागवत पुराण प्रथमः स्कन्धः प्रथमोऽध्यायः श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियोंका प्रश्न)

।। श्रीगणेशायः नमः ।।

श्रीमद्भागवतमहापुराणम्

[प्रथमः स्कन्धः]

अथ प्रथमोऽध्यायः श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियोंका प्रश्न

मङ्गलाचरण

संस्कृत श्लोक: –

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरत- श्वार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः । तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ।।१

धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।

श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ।।२

हिन्दी अनुवाद: –

जिससे इस जगत्‌की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं- क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थोंमें अनुगत है और असत् पदार्थोंसे पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्पसे ही जिसने उस वेदज्ञानका दान

किया है; जिसके सम्बन्धमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियोंमें जलका, जलमें स्थलका और स्थलमें जलका भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान-सत्तासे सत्यवत् प्रतीत हो रही है,

उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योतिसे सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्यसे पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्माका हम ध्यान करते हैं ।।१।।

महामुनि व्यासदेवके द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराणमें मोक्षपर्यन्त फलकी कामनासे रहित परम धर्मका निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषोंके जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है,

जो तीनों तापोंका जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्रसे क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है ।।२।।

संस्कृत श्लोक: –

निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।३

हिन्दी अनुवाद: –

रसके मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका हुआ फल है। श्रीशुकदेवरूप तोतेके * मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है।

इस फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है। जबतक शरीरमें चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ।।३।।

संस्कृत श्लोक: –

कथाप्रारम्भ

नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः । सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत ।।४त एकदा तु मुनयः प्रातर्हतहुताग्नयः । सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ।।

ऋषय ऊचुः

त्वया खलु पुराणानि सेतिहासानि चानघ । आख्यातान्यप्यधीतानि धर्मशास्त्राणि यान्युत ।।६यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायणः । अन्ये च मुनयः सूत परावरविदो विदुः ।।७वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतस्तदनुग्रहात् ।ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ।।८तत्र तत्राञ्जसाऽऽयुष्मन् भवता यद्विनिश्चितम् । पुंसामेकान्ततः श्रेयस्तन्नः शंसितुमर्हसि ।।९प्रायेणाल्पायुषः सभ्य कलावस्मिन् युगे जनाः ।मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः ।।१०

हिन्दी अनुवाद: –

 एक बार भगवान् विष्णु एवं देवताओंके परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्यमें शौनकादि ऋषियोंने भगवत्प्राप्तिकी इच्छासे सहस्र वर्षोंमें पूरे होनेवाले एक महान् यज्ञका अनुष्ठान किया ।।४।।

एक दिन उन लोगोंने प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि नित्यकृत्योंसे निवृत्त होकर सूतजीका पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाकर बड़े आदरसे यह प्रश्न किया ।।५।।

ऋषियोंने कहा-सूतजी! आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ।।६।।

वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् बादरायणने एवं भगवान्‌के सगुण-निर्गुण रूपको जाननेवाले दूसरे मुनियोंने जो कुछ जाना है- उन्हें जिन विषयोंका ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूपमें जानते हैं।

आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी कृपा और अनुग्रहके पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त-से-गुप्त बात भी बता दिया करते हैं ।।७-८।।

आयुष्मन् ! आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों, पुराणों और गुरुजनोंके उपदेशोंमें कलियुगी जीवोंके परम कल्याणका सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है ।।९।।

आप संत-समाजके भूषण हैं। इस कलियुगमें प्रायः लोगोंकी आयु कम हो गयी है। साधन करनेमें लोगोंकी रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे घिरे हुए भी रहते हैं ।।१०।।

शास्त्र भी बहुत-से हैं। परन्तु उनमें एक निश्चित साधनका नहीं, अनेक प्रकारके कर्मोंका वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धिसे उनका सार निकालकर प्राणियोंके परम कल्याणके लिये हम श्रद्धालुओंको सुनाइये, जिससे हमारे अन्तःकरणकी शुद्धि प्राप्त हो ।।११।।

संस्कृत श्लोक: –

भूरीणि भूरिकर्माणि श्रोतव्यानि विभागशः । अतः साधोऽत्र यत्सारं समुद्धृत्य मनीषया । ब्रूहि नः श्रद्दधानानां येनात्मा सम्प्रसीदति ।।११

सूत जानासि भद्रं ते भगवान् सात्वतां पतिः । देवक्यां वसुदेवस्य जातो यस्य चिकीर्षया ।।१२

तन्नः शुश्रूषमाणानामर्हस्यङ्गानुवर्णितुम् । यस्यावतारो भूतानां क्षेमाय च भवाय च ।।१३

आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् । ततः सद्यो विमुच्येत यद्विभेति स्वयं भयम् ।।१४

यत्पादसंश्रयाः सूत मुनयः प्रशमायनाः । सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धन्यापोऽनुसेवया ।।१५

को वा भगवतस्तस्य पुण्यश्लोकेड्यकर्मणः । शुद्धिकामो न शृणुयाद्यशः कलिमलापहम् ।।१६

तस्य कर्माण्युदाराणि परिगीतानि सूरिभिः । ब्रूहि नः श्रद्दधानानां लीलया दधतः कलाः ।।१७

अथाख्याहि हरेर्धीमन्नवतारकथाः शुभाः । लीला विदधतः स्वैरमीश्वरस्यात्ममायया ।।१८

वयं तु न वितृप्याम उत्तमश्लोकविक्रमे । यच्छृण्वतां रसज्ञानां स्वादु स्वादु पदे पदे ।।१९

हिन्दी अनुवाद: –

प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियोंके रक्षक भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेवकी धर्मपत्नी देवकीके गर्भसे क्या करनेकी इच्छासे अवतीर्ण हुए थे ।।१२।।

हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान्‌का अवतार जीवोंके परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी समृद्धिके लिये ही होता है ।।१३।।

यह जीव जन्म-मृत्युके घोर चक्रमें पड़ा हुआ है-इस स्थितिमें भी यदि वह कभी भगवान्‌के मंगलमय नामका उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय; क्योंकि स्वयं भय भी भगवान्से डरता रहता है ।।१४।।

सूतजी! परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान्के श्रीचरणोंकी शरणमें ही रहते हैं, अतएव उनके स्पर्शमात्रसे संसारके जीव तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गंगाजीके जलका बहुत दिनोंतक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है ।।१५।।

ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओंका गान करते रहते हैं, उन भगवान्‌का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धिकी इच्छावाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे ।।१६।।

वे लीलासे ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओंने उनके उदार कर्मोंका गान किया है। हम श्रद्धालुओंके प्रति आप उनका वर्णन कीजिये ।।१७।।

बुद्धिमान् सूतजी ! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योगमायासे स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरिकी मंगलमयी अवतार-कथाओंका अब वर्णन कीजिये ।।१८।।

पुण्यकीर्ति भगवान्‌की लीला सुननेसे हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि रसज्ञ श्रोताओंको पद-पदपर भगवान्की लीलाओंमें नये-नये रसका अनुभव होता है ।।१९।।

भगवान् श्रीकृष्ण अपनेको छिपाये हुए थे, लोगोंके सामने ऐसी चेष्टा करते थे मानो कोई मनुष्य हों। परन्तु उन्होंने बलरामजीके साथ ऐसी लीलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते ।।२०।।

कलियुगको आया जानकर इस वैष्णवक्षेत्रमें हम दीर्घकालीन सत्रका संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरिकी कथा सुननेके लिये हमें अवकाश प्राप्त है ।।२१।।

यह कलियुग अन्तःकरणकी पवित्रता और शक्तिका नाश करनेवाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्रसे पार जानेवालोंको कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पानेकी इच्छा रखनेवाले हम लोगोंसे ब्रह्माने आपको मिलाया है ।।२२।।

धर्मरक्षक, ब्राह्मणभक्त, योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके अपने धाममें पधार जानेपर धर्मने अब किसकी शरण ली है-यह बताइये ।।२३।।

संस्कृत श्लोक: –

कृतवान् किल वीर्याणि सह रामेण केशवः । अतिमर्त्यानि भगवान् गूढः कपटमानुषः ।।२०कलिमागतमाज्ञाय क्षेत्रेऽस्मिन् वैष्णवे वयम् । आसीना दीर्घसत्रेण कथायां सक्षणा हरेः ।।२१

त्वं नः संदर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् । कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ।।२२ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि । स्वां काष्ठामधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ।।२३

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ।।१।।

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