अष्टावक्र गीता नवां अध्याय- :-Ashtavakra geeta chapter 9.
( नवां अध्याय)
अष्टावक्र उवाच – कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा। एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती॥९- १॥
श्री अष्टावक्र कहते हैं – यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद्व (हाँ या न रूपी संशय) कब और किसके शांत हुए हैं। ऐसा विचार करके विरक्त (उदासीन) हो जाओ, त्यागवान बनो, ऐसे किसी नियम का पालन न करने वाले बनो॥१॥
Sri Ashtavakra says: This is to be done and this should not be done, such confusions have never ended for anybody. Knowing this, be indifferent (neutral), be ascetic and don’t follow such (ritualistic) rules.॥1॥
कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्।
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः॥९- २॥
हे पुत्र! इस संसार की (व्यर्थ) चेष्टा को देख कर किसी धन्य पुरुष की ही जीने की इच्छा, भोगों के उपभोग की इच्छा और भोजन की इच्छा शांत हो पाती है॥२॥
O Son! Blessed and rare are those who observe the useless efforts of others and
thereby extinguish their lust for life, luxuries and good food.॥2॥
अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितं।
असारं निन्दितं हेयमि- ति निश्चित्य शाम्यति॥९- ३॥
यह सब अनित्य है, तीन प्रकार के कष्टों (दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है, सारहीन है, निंदनीय है, त्याग करने योग्य है, ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है॥३॥
All this is impermanent and is surrounded by the three types of pain (body, luck and money).
It is without any essence, contemptible and is to be abandoned. Only after deciding it firmly, peace is attained.॥3॥
It is without any essence, contemptible and is to be abandoned. Only after deciding it firmly, peace is attained.॥3॥
कोऽसौ कालो वयः किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणां।
तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात्॥९- ४॥
ऐसा कौन सा समय अथवा उम्र है जब मनुष्य के संशय नहीं रहे हैं, अतः संशयों की उपेक्षा करके अनायास सिद्धि को प्राप्त करो॥४॥
When was that age or time when there are no confusions for a person.
So become indifferent to your doubts and attain happiness without much effort.॥4॥
So become indifferent to your doubts and attain happiness without much effort.॥4॥
नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः॥९- ५॥
महर्षियों, साधुओं और योगियों के विभिन्न मतों को देखकर कौन मनुष्य वैराग्यवान होकर शांत नहीं हो जायेगा॥५॥
Having seen the difference of opinions among the great sages, saints and yogis,
who will not get detached and attain peace.॥5॥
who will not get detached and attain peace.॥5॥
कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।
निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः॥९- ६॥
चैतन्य का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करके कौन वैराग्य और समता से युक्त कौन गुरु जन्म और मृत्यु के बंधन से तार नहीं देगा॥६॥
Knowing consciousness directly, a guru, who is unattached and neutral,
will definitely lead others out of the cycle of birth and death.॥6॥
will definitely lead others out of the cycle of birth and death.॥6॥
पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थतः।
तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि॥९- ७॥
तत्त्वों के विकार को वास्तव में उनकी मात्रा के परिवर्तन के रूप में देखो, ऐसा देखते ही उसी क्षण तुम बंधन से मुक्त होकर अपने स्वरुप में स्थित हो जाओगे॥७॥
See the change in nature of elements as the change in quantity of finer (subtle) entities.
After seeing this, you would be free from bondage immediately and would be established in your very nature.॥7॥
After seeing this, you would be free from bondage immediately and would be established in your very nature.॥7॥
वासना एव संसार इति सर्वा विमुंच ताः।
तत्त्यागो वासनात्यागा- त्स्थितिरद्य यथा तथा॥९- ८॥
इच्छा ही संसार है, ऐसा जानकर सबका त्याग कर दो, उस त्याग से इच्छाओं का त्याग हो जायेगा और तुम्हारी यथारूप अपने स्वरुप में स्थिति हो जाएगी॥८॥
Desires (attachment) create the world. Knowing it, shun all attachments.
This detachment will lead to rejection of desires and you as consciousness will remain as you are.॥8॥
This detachment will lead to rejection of desires and you as consciousness will remain as you are.॥8॥
(अष्टावक्र गीता नवां अध्याय समाप्त)
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