अष्टावक्र गीता तीसरा अध्याय :-Ashtavakra geeta chapter 3.

अष्टावक्र गीता तीसरा अध्याय :-Ashtavakra geeta chapter 3.

(तीसरा अध्याय)
अष्टावक्र उवाच – अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः॥३- १॥
अष्टावक्र कहते हैं – आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है॥१॥
Ashtavakra says – Know self as indestructible and one. How could a wise man having self-knowledge can like acquiring wealth?॥1॥
आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।
शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे॥३- २॥
स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है॥२॥

Not knowing self leads to attachment in false sense objects just as mistakenly understanding mother of pearl as silver invokes greed.॥2॥

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि॥३- ३॥
सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, वह मैं ही हूँ जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो॥३॥
This world originates from self like waves from the sea. Recognizing, “I am That”, why run like a poor?॥3॥
श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।
उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति॥३- ४॥
यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो॥४॥
After hearing self to be pure, conscious and very beautiful, how can you be attracted to sexual objects and get impure?॥4॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते॥३- ५॥

सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सब प्राणियों को जानने वाले मुनि में  ममता की भावना का बने रहना आश्चर्य ही है॥५॥

For a sage who knows himself to be is in all beings and all beings in him, retaining attachment is surprising!॥5॥
आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।
आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया॥३- ६॥
एक ब्रह्म का आश्रय लेने वाले और मोक्ष के अर्थ का ज्ञान रखने वाले का आमोद-प्रमोद द्वारा उत्पन्न कामनाओं से विचलित होना आश्चर्य ही है॥६॥
For the one aspiring for highest non-dual Lord and fully aware of the meaning of liberation,
subjugation to desires is surprising.॥6॥
उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम- वधार्यातिदुर्बलः।
आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥३- ७॥
अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त है, आश्चर्य ही है॥७॥
For a person having reached his last time, incapable of enjoying and knowing it to be enemy of the gained knowledge, it is surprising to be after sexual desires.॥7॥
इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।
आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका॥३- ८॥
इस लोक और परलोक से विरक्त, नित्य और अनित्य का ज्ञान रखने वाले और मोक्ष की कामना रखने वालों का मोक्ष से डरना, आश्चर्य ही है॥८॥
Suprise, unattached to this and the other world, those who can discriminate between the permanent and the impermanent, and wish to liberate are afraid of liberation.॥8॥
धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति॥३- ९॥
सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर न प्रसन्न होते हैं और न क्रोध ही करते हैं॥९॥
The wise who always see self only, are neither pleased nor get angry whether they are feted or tormented.॥9॥
चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।
संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः॥३- १०॥
अपने कार्यशील शरीर को दूसरों के शरीरों की तरह देखने वाले महापुरुषों को प्रशंसा या निंदा कैसे विचलित कर सकती है॥१०॥
How can noble men be perturbed by praise or blame who see their bodies alike to others.॥10॥
मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः॥३- ११॥
समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है॥११॥
Devoid of any questions, seeing this world as imagined in Maya, how can one with resolute intelligence be fearful of even the incident death?॥11॥
निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते॥३- १२॥
निराशा में भी समस्त इच्छाओं से रहित, स्वयं के ज्ञान से प्रसन्न महात्मा की तुलना किससे की जा सकती है॥१२॥
Who can be compared to the saint, free from desires even in disappointment and satisfied with the knowledge of self?॥12॥
स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः॥३- १३॥
स्वभाव से ही विश्व को दृश्यमान जानो, इसका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य, देखने वाला स्थिर प्रज्ञायुक्त व्यक्ति क्या देखता है?॥१३॥
Know this world to be visible due to its very nature, it is non-existent actually. How can a person with resolute intelligence discriminate things as to be taken or to be rejected?॥13॥
अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।
यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये॥३- १४॥

विषयों की आतंरिक आसक्ति का त्याग करने वाले, संदेह से परे, बिना किसी इच्छा वाले व्यक्ति को स्वतः आने वाले भोग न दुखी कर सकते है और न सुखी॥१४॥

One who has given up inner passions, is beyond doubts and is without any desires does not feel pain or pleasure due to random events.॥14॥

||अष्टावक्र गीता तीसरा अध्याय समाप्त||

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