अष्टावक्र गीता पहला अध्याय:-Ashtavakra geeta chapter 1.

अष्टावक्र गीता पहला अध्याय:-Ashtavakra geeta chapter 1.

(पहला अध्याय)

जनक उवाच – कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।

वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो॥१-१॥

वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं – हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥

Old king Janak asks the young Ashtavakra – How knowledge is attained, how liberation is attained and how non-attachment is attained, please tell me all this.॥1॥

अष्टावक्र उवाच – मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥१-२॥

 

श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं – यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥
Sri Ashtavakra answers – If you wish to attain liberation, give up the passions (desires for sense objects) as poison. Practice forgiveness, simplicity, compassion, contentment and truth as nectar.॥2॥
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥

 

आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥३॥
You are neither earth, nor water, nor fire, nor air or space. To liberate, know the witness of all these as conscious self.॥3॥
यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥१-४॥

 

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥
If you detach yourself from the body and rest in consciousness, you will become content, peaceful and free from bondage immediately.॥4॥
न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥

 

आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ॥५॥
You do not belong to ‘Brahman’ or any other caste, you do not belong to ‘Celibate’ or any other stage, nor are you anything that the eyes can see. You are unattached, formless and witness of everything – so be happy.॥5॥
धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥

 

धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं॥६॥
Righteousness, unrighteousness, pleasure and pain are connected with the mind and not with the all-pervading you. You are neither the doer nor the reaper of the actions, so you are always almost free.॥6॥
एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥१-७॥

 

आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं॥७॥
You are the solitary witness of all that is, almost always free. Your only bondage is understanding the seer to be someone else.॥7॥
अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव॥१-८॥

 

अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान लेते हैं। ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’, इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये॥८॥
Ego poisons you to believe: “I am the doer”. Believe “I am not the doer”. Drink this nectar and be happy.॥8॥
एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥

 

मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ॥९॥
The resolution “I am single, pure knowledge” consumes even the dense ignorance like fire. Be beyond disappointments and be happy.॥9॥
यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥

 

जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ॥१०॥
Feel the ecstasy, the supreme bliss where this world appears unreal like a snake in a rope, know this and move happily.॥10॥
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥

 

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥
If you think you are free you are free. If you think you are bound you are bound. It is rightly said: You become what you think.॥11॥
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥

 

आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥
The soul is witness, all-pervading, infinite, one, free, inert, neutral, desire-less and peaceful. Only due to illusion it appears worldly.॥12॥
कूटस्थं बोधमद्वैत- मात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१-१३॥

 

अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और ‘मैं’ के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें॥१३॥
Meditate on unchanging, conscious and non-dual Self. Be free from the illusion of ‘I’ and think this external world as part of you.॥13॥
देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१-१४॥

 

हे पुत्र! बहुत समय से आप ‘मैं शरीर हूँ’ इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ॥१४॥
O son, you have become habitual of thinking- “I am body” since long. Experience the Self and by this sword of knowledge cut that bondage and be happy.॥14॥
निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥

 

आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है॥१५॥
You are free, still, self-luminous, stainless. Trying to keep yourself peaceful by meditation is your bondage.॥15॥
त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥

 

यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥
You have pervaded this entire universe; really, you have pervaded it all. You are pure knowledge, don’t get disheartened.॥16॥
निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:॥१-१७॥

 

आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये॥१७॥
You are desire-less, changeless, solid and abode to calmness, unfathomable intelligent. Be peaceful and desire nothing but consciousness.॥17॥
साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव:॥१-१८॥

 

आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥
Know that form is unreal and only the formless is permanent. Once you know this, you will not take birth again.॥18॥
यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥१-१९॥

 

जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥
Just as form exists inside a mirror and outside it, Supreme Self exists both within and outside the body.॥19॥
एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥१-२०॥

 

जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥

Just as the same space exists both inside and outside a jar, the eternal, continuous God exists in all.॥20॥

||अष्टावक्र गीता पहला अध्याय समाप्त ||

 

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