॥ श्रीहरिः ॥
(गरुड़ पुराण-सारोद्धार)
(सोलहवाँ अध्याय)
गरुड़ पुराण-सारोद्धार सोलहवाँ अध्याय:-garud puran saroddhar chapter 16.
( गरुड़ पुराण — सोलहवाँ अध्याय सारोद्धार)
“मनुष्य शरीर प्राप्त करने की महिमा, धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसार की दु:खरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण”
गरुड़ जी ने कहा – हे दयासिन्धो ;- अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसार चक्र में पड़ता है, यह मैंने सुना। अब मैं मोक्ष के सनातन उपाय को सुनना चाहता हूँ। हे भगवन ! हे देवदेवेश ! हे शरणागतवत्सल ! सभी प्रकार के दु:खों से मलिन तथा साररहित इस भयावह संसार में अनेक प्रकार के शरीर धारण करके अनन्त जीवराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरती हैं, उनका कोई अन्त नहीं है। ये सभी सदा दु:ख से पीड़ित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता। हे मोक्षेश ! हे प्रभो ! किस उपाय के करने से इन्हें इस संसृति-चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बताएँ।
श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य ;- तुम इस विषय में मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ ! सुनो – जिसके सुनने मात्र से मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है। वह परब्रह्म परमात्मा निष्कल (कलारहित) परब्रह्मस्वरूप, शिवस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है। वह (परमात्मा) स्वत: प्रकाश है, अनादि, अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसी का अंश है। जैसे अग्नि से बहुत से स्फुलिंग अर्थात चिंगारियाँ निकलती हैं उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्या से युक्त होने के कारण अनादि काल से किये जाने वाले कर्मों के परिणामस्वरुप देहादि उपाधि को धारण करके जीव भगवान से पृथक हो गए हैं। वे जीव प्रत्येक जन्म में पुण्य और पापरूप सुख-दु:ख प्रदान करने वाले कर्मों से नियंत्रित होकर तत्तत् जाति के योग से देह(शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं।
हे खग ;- इसके पश्चात भी पुन: वे अत्यन्त सूक्ष्म लिंग शरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है। ये जीव कभी स्थावर (वृक्ष-लतादि जड़) योनियों में, पुन: कृमियोनियों में तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियों को प्राप्त करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं फिर धार्मिक मनुष्य के रूप में और पुन: देवता तथा देवयोनि के पश्चात क्रमश: मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। उद्भिज्ज, स्वेदज और पिण्डज (जरायुज) – इन चार प्रकार के शरीरों को सहस्त्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृतवश (पुण्यप्रभाव से) जीव मनुष्य-शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाए तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जीवों की चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य किसी भी योनि में तत्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। पूर्वोक्त विभिन्न योनियों में हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेने के अनन्तर उपार्जित पुण्यपुंज के कारण कदाचित मनुष्य-योनि प्राप्त होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके इस संसृति चक्र से जो अपने को मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा !
उत्तम मनुष्य शरीर में जन्म प्राप्त करके और समस्त सौष्ठव संपन्न अविकल इन्द्रियों को प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने हित को नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है। शरीर के बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता इसलिए शरीर और धन की रक्षा करता हुआ इन दोनों से पुण्योपार्जन करना चाहिए। मनुष्य को सर्वदा अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थों का एकमात्र साधन है इसलिए उसकी रक्षा का उपाय करना चाहिए। जीवन धारण करने पर ही व्यक्ति अपने कल्याण को देख सकता है।
गाँव, क्षेत्र, धन, घर और शुभाशुभ कर्म पुन:-पुन: प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य शरीर पुन:-पुन: प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सदा शरीर की रक्षा का उपाय करते हैं। कुष्ठ आदि रोगी भी अपने शरीर को त्यागने की इच्छा नहीं करते। शरीर की रक्षा धर्माचरण के उद्देश्य से और धर्माचरण ज्ञानप्राप्ति के उद्देश्य से ज्ञान, ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए और फिर ध्यानयोग से मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
यदि मनुष्य स्वयं ही अपने आत्मा का अहित से निवारण नहीं कर लेता तो आत्मा का दूसरा कौन हितैषी होगा जो आत्मा को तारेगा। जो जीव मनुष्य के शरीर में रहकर इसी जन्म में नरकरूपी व्याधि की चिकित्सा नहीं कर लेता, वह परलोक में जाने पर जहाँ औषध नहीं प्राप्त है, नरक व्याधि से पीड़ित होने पर फिर क्या कर सकेगा? वृद्धावस्था बाघिन के समान सामने खड़ी है, फूटे हुए घड़े के गिरने वाले जल की भाँति प्रतिक्षण आयु समाप्त होती जा रही है, रोग शत्रु की भाँति प्रहार कर रहे हैं, अत: श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को अभ्यास करना चाहिए।
जब तक दु:ख प्राप्त नहीं होता, जब तक आपत्तियाँ घेर नहीं लेती और जब तक इन्द्रियों में वैकल्य (शिथिलता) नहीं आ जाता, तब तक श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को प्रयास करते रहना चाहिए। जब तक यह शरीर है तभी तक तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। भवन में आग लग जाने पर कौन ऎसा दुर्बुद्धि मनुष्य है जो कुँआ खोदना प्रारंभ करता है। बहुविध सांसारिक कार्यप्रपंचों में व्यस्त रहने के कारण काल का ज्ञान नहीं होता। यह क्लेश की बात है कि मनुष्य अपने सुख-दु:ख और हित की बात को नहीं समझता।
संसार में जीवों को उत्पन्न होते हुए, रोगादि से दु:खी होते हुए, मृत्यु प्राप्त करते हुए और आपत्तिग्रस्त तथा दु:खी देखकर भी सांसारिक मनुष्य मोहरूपी मदिरा को पीकर कभी बी भयभीत नहीं होता। भौतिक सम्पत्ति स्वप्न के समान नश्वर-क्षणभंगुर है, यौवन भी पुष्प के समान मुरझा जाने वाला है, आयु बादलों में चमकने वाली बिजली के समान चंचल है – यह सब जानते हुए भी मनुष्य को कैसे धैर्य हो सकता है।
एक तो मनुष्य की सौ वर्ष की आयु ही बहुत थोड़ी है, उसमें भी निद्रा और आलस्य के वशीभूत होकर उसका आधा भाग बीत जाता है और जो शेष है वह भी बाल्यावस्था, रोग और जरा में होने वाले दु:ख से चला जाता है और जो थोड़ा बचा, वह भी निष्फल ही बीत जाता है। प्रारंभ करने वाले कार्य के विषय में जो उद्योग नहीं करता और जहाँ ब्रह्मचिन्तन आदि में जागरुक रहना चाहिए वहाँ वह सोता रहता है। इसके विपरीत जहाँ सदा-सदा भय विद्यमान है (उस संसार में), वहाँ वह विश्वस्त है, ऎसा जो मनुष्य है, वह अभागा क्यों नहीं मारा जाएगा। जल में उठने वाले फेन के समान अतीव क्षणभंगुर देह को प्राप्त करके जीवात्मा उसमें स्थित रहता है।
यह शरीर ही उसको प्रियसंवास के रूप में प्रतीत होता है किंतु इस अनित्य शरीर में जीवात्मा निर्भय होकर कैसे रह सकता है? जो अहित करने वाले विषय भोगों में ही हितबुद्धि रखता है तथा अनिश्चित (पुत्र-कलत्र-देह-गेहादि) को स्थाई समझता है और भौतिक धन-संपत्ति आदि अनर्थकारी वस्तुओं में जो अर्थबुद्धि रखता है, वह अपने परमार्थ को नहीं जानता।
जो “यह जगत किसी का नहीं हुआ” – ऎसा देखते हुए भी गिर रहा है और आत्मज्ञानविषयक वचनों को सुनते हुए भी जिसे बोध नहीं होता, पढ़ करके भी उसका अर्थ नहीं समझता – ऎसा इसलिए होता है कि जीव भगवान की माया से मोहित है। मृत्यु, रोग और जगरूपी ग्राहों के द्वारा गंभीर कालसागर में डूबते हुए इस जगत को कोई भी नहीं जान पाता। प्रतिक्षण क्षीण होते हुए भी इस काल की सूक्ष्म गति को जीव वैसे ही नहीं जान पाता जैसे कच्चे घड़े में स्थित जल के विगलित होने का ज्ञान नहीं हो पाता। कदाचित वायु का बाँधना संभव हो सकता है, आकाश को खण्ड-खण्ड करने की तरंगों के गुम्फन की कल्पना भी संभव हो सकती है परंतु आयु के शाश्वत होने की आस्था कथमपि संभव नहीं हो सकती।
जिस काल के द्वारा जल जाती है, मेरु पर्वत भी चूर-चूर हो जाता है, सागर का जल भी सूख जाता है, उस काल से मनुष्य-शरीर की रक्षा की क्या कथा? मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरे बान्धव – इस प्रकार मैं-मैं कहते हुए मनुष्य रूपी बकरे को हठपूर्वक कालरूपी भेड़िया मार डालता है। यह मैंने कर लिया, यह करना शेष है, यह दूसरा कार्य भी अभी कुछ करना बाकी है – इस प्रकार की इच्छा से युक्त मनुष्य को यमराज अपने वश में कर लेते हैं।
कल किए जाने वाले कार्य को आज, अपराह्ण में किए जाने व