(उमासंहिता)
Shiv puran uma samhita chapter 4 to 6 (शिव पुराण उमा संहिता अध्याय 4 से 6 नरकमें गिरानेवाले पापोंका संक्षिप्त परिचय)
:-सनत्कुमारजी कहते हैं- व्यासजी ! जो पापपरायण जीव महानरकके अधिकारी हैं, उनका संक्षेपसे परिचय दिया जाता है; सावधान होकर सुनो। परस्त्रीको प्राप्त करनेका संकल्प, पराये धनको अपहरण करनेकी इच्छा, चित्तके द्वारा अनिष्ट- चिन्तन तथा न करनेयोग्य कर्ममें प्रवृत्त होनेका दुराग्रह- ये चार प्रकारके मानसिक पापकर्म हैं।
असंगत प्रलाप (बेसिर-पैरकी बातें), असत्य-भाषण, अप्रिय बोलना और पीठ-पीछे चुगली खाना- ये चार वाचिक (वाणीद्वारा होनेवाले) पापकर्म हैं। अभक्ष्य-भक्षण, प्राणियोंकी हिंसा, व्यर्थके कार्योंमें लगना और दूसरोंके धनको हड़प लेना- ये चार प्रकारके शारीरिक पापकर्म हैं। इस प्रकार ये बारह कर्म बताये गये, जो मन, वाणी और शरीर इन तीन साधनोंसे सम्पन्न होते हैं।
जो संसार- सागरसे पार उतारनेवाले महादेवजीसे द्वेष करते हैं, वे सब-के-सब नरकोंके समुद्रमें गिरनेवाले हैं। उनको बड़ा भारी पातक लगता है। जो शिवज्ञानका उपदेश देनेवाले तपस्वीकी, गुरुजनोंकी और पिता-ताऊ आदिकी निन्दा करते हैं, वे उन्मत्त मनुष्य नरक-समुद्रमें गिरते हैं।
ब्रह्महत्यारा, मदिरा पीनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा इन चारोंसे सम्पर्क रखनेवाला पाँचवीं श्रेणीका पापी – ये सब-के-सब महापातकी कहे गये हैं।
जो क्रोधसे, लोभसे, भयसे तथा द्वेषसे ब्राह्मणके वधके लिये महान् मर्मभेदी दोषका वर्णन करता है, वह ब्रह्महत्यारा होता है। जो ब्राह्मणको बुलाकर उसे कोई वस्तु देनेके पश्चात् फिर ले लेता है तथा जो निर्दोष पुरुषपर दोषारोपण करता है, वह मनुष्य भी ब्रह्महत्यारा होता है। जो भरी सभामें उदासीनभावसे बैठे हुए श्रेष्ठ द्विजको अपनी विद्याके अभिमानसे अपमानित करके उसे निस्तेज (हतप्रतिभ) कर देता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है।
जो दूसरोंके यथार्थं गुणोंका भी बलात् खण्डन करके झूठे गुणोंद्वारा अपने-आपको उत्कृष्ट सिद्ध करता है, वह भी निश्चय ही ब्रह्महत्यारा होता है। जो साँड़ोंद्वारा बाही जाती हुई गौओंके तथा गुरुसे उपदेश ग्रहण करते हुए द्विजोंके कार्यमें विघ्न डालता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं। जो देवताओं, ब्राह्मणों तथा गौओंके उपयोगके लिये दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे ब्रह्महत्यारा कहा गया है।
देवता और ब्राह्मणके धनको हर लेना तथा अन्यायसे धन कमाना ब्रह्महत्याके समान ही पातक जानना चाहिये। जिस किसी व्रत, नियम तथा यज्ञको ग्रहण करके उसे त्याग देना तथा पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान न करना मदिरापानके समान पातक बताया गया है। पिता और माताको त्याग देना, झूठी गवाही देना, ब्राह्मणसे झूठा वादा करना, शिव- भक्तोंको मांस खिलाना तथा अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करना ब्रह्महत्याके तुल्य कहा गया है।
वनमें निरपराध प्राणियोंका वध कराना भी ब्रह्महत्याके ही तुल्य है। साधु पुरुषको चाहिये कि वह ब्राह्मणके धनको त्याग दे। उसे धर्मके कार्यमें भी न लगाये, अन्यथा ब्रह्महत्याका दोष लगता है।
गौओंके मार्गमें, वनमें तथा गाँवमें जो लोग आग लगाते हैं, वे भी ब्रह्महत्या ही करते हैं। इस तरहके जो भयानक पाप हैं, वे ब्रह्म- हत्याके समान माने गये हैं।
ब्राह्मणके द्रव्यका अपहरण करना,पैतृक सम्पत्तिके बँटवारेमें उलट-फेर करना,अत्यन्त अभिमान और अधिक क्रोध करना,पाखण्ड फैलाना, कृतघ्नता करना, विषयोंमें अत्यन्त आसक्त होना, कंजूसी करना,सत्पुरुषोंसे द्वेष रखना, परस्त्रीसमागम करना, श्रेष्ठ कुलकी कन्याओंको कलंकित करना, यज्ञ, बाग-बगीचे, सरोवर तथा स्त्री-पुरुषोंका विक्रय करना, तीर्थयात्रा, उपवास तथा व्रत एवं उपनयन आदिका सौदा करना, स्त्रीके धनसे जीविका चलाना,
स्त्रियोंके अत्यन्त वशीभूत होना, स्त्रियोंकी रक्षा न करना तथा छलसे परायी स्त्रियोंका सेवन करना, ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंको त्याग देना, दूसरोंके आचारका सेवन करना, असत्-शास्त्रोंका अध्ययन करना, सूखे तर्कका सहारा लेना, देवता, अग्नि, गुरु, साधु तथा ब्राह्मणकी निन्दा करना, पितृयज्ञ और देवयज्ञको त्याग देना, अपने कर्मोंका परित्याग करना, बुरे स्वभावको अपनाना, नास्तिक होना, पापोंमें लगना और सदा झूठ बोलना- इस तरहके पापोंसे युक्त स्त्री-पुरुषोंको उपपातकी कहा गया है।
जो मनुष्य गौओं, ब्राह्मणकन्याओं, स्वामी, मित्र तथा तपस्वी महात्माओंके कार्य नष्ट कर देते हैं, वे नरकगामी माने गये हैं। जो ब्राह्मणोंको दुःख देते हैं, उन्हें मारनेके लिये शस्त्र उठाते हैं, जो द्विज होकर शूद्रोंकी सेवा करते हैं तथा जो कामवश मदिरापान करते हैं, जो पापपरायण, क्रूर तथा हिंसाके प्रेमी हैं, जो गोशालामें, अग्निमें, जलमें,
सड़कोंपर, पेड़ोंकी छायामें, पर्वतोंपर, बगीचोंमें तथा देवमन्दिरोंके आस-पास मल-मूत्रका त्याग करते हैं, बाँस, ईंट, पत्थर, काठ, सींग और कीलोंद्वारा जो रास्ता रूंधते या रोकते हैं, दूसरोंके खेत आदिकी सीमा (मेड़) मिटा देते हैं, छलसे शासन करते हैं, छल-कपटके ही कार्योंमें लगे रहते हैं, किसीको ठगकर लाये हुए पाक, अन्न तथा वस्त्रोंका छलसे ही उपयोग करते हैं, जो स्त्री, पुत्र, मित्र, बाल, वृद्ध, दुर्बल, आतुर, भृत्य, अतिथि तथा बन्धुजनोंको भूखे छोड़कर स्वयं खा लेते हैं, जो अजितेन्द्रिय पुरुष स्वयं नियमोंको ग्रहण करके फिर उन्हें त्याग देते हैं, संन्यास धारण करके भी फिरसे घर बसा लेते हैं, जो शिवप्रतिमाका भेदन करनेवाले हैं, गौओंको क्रूरतापूर्वक मारते और बारंबार उनका दमन करते हैं, जो दुर्बल पशुओंका पोषण नहीं करते, सदा उन्हें छोड़े रखते हैं, अधिक भार लादकर उन्हें पीड़ा देते हैं तथा सहन न होनेपर भी बलपूर्वक उन्हें हल या गाड़ीमें जोतते हैं अथवा उनसे असह्य बोझ खिंचवाते हैं, जो उन पशुओंको खिलाये बिना ही भार ढोने या हल खींचनेके काममें जोत देते हैं, बँधे हुए भूखे पशुओंको चरनेके लिये नहीं छोड़ते तथा जो भारसे घायल, रोगसे पीड़ित और भूखसे आतुर गाय-बैलोंका यत्नपूर्वक पालन नहीं करते, वे सब-के-सब गो- हत्यारे तथा नरकगामी माने गये हैं।
जो पापिष्ठ मनुष्य बैलोंके अण्डकोश कुटवाते हैं और बन्ध्या गायको जोतते हैं, वे महानारकी हैं। जो आशासे घरपर आये हुए भूख, प्यास और परिश्रमसे कष्ट पाते हुए और अन्नकी इच्छा रखनेवाले अतिथियों,अनाथों, स्वाधीन पुरुषों, दीनों, बाल, वृद्ध, दुर्बल एवं रोगियोंपर कृपा नहीं करते, वे मूढ़ नरकके समुद्रमें गिरते हैं। मनुष्य जब मरता है तब उसका कमाया हुआ धन घरमें ही रह जाता है। भाई-बन्धु भी श्मशानतक जाकर लौट आते हैं, केवल उसके किये हुए पाप और पुण्य ही परलोकके पथपर जानेवाले उस जीवके साथ जाते हैं।
जो औचित्यकी सीमाको लाँघकर मनमाना कर वसूल करता है तथा दूसरोंको दण्ड देनेमें ही रुचि रखता है, वह राजा नरकमें पकाया जाता है। जिस राजाके राज्यमें प्रजा घूसखोरों, अपनी रुचिके अनुसार कम दाम देकर अधिक कीमतका माल ले लेनेवाले अधिकारियों तथा चोर-डाकुओंसे अधिक सतायी जाती है, वह राजा भी नरकोंमें पकाया जाता है। परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार और चोरी करनेवाले प्रचण्ड पुरुषोंको जो पाप लगता है, वही परस्त्रीगामी राजाको भी लगता है।
जो साधुको चोर और चोरको साधु समझता है तथा बिना विचारे ही निरपराधको प्राणदण्ड दे देता है, वह राजा नरकमें पड़ता है। जिस-किसी पराये द्रव्यको सरसों बराबर भी चुरा लेनेपर मनुष्य नरकमें गिरते हैं, इसमें संशय नहीं है। इस तरहके पापोंसे युक्त मनुष्य मरनेके पश्चात् यातना भोगनेके लिये नूतन शरीर पाता है, जिसमें सम्पूर्ण आकार अभिव्यक्त रहते हैं। इसलिये किये हुए पापका प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये। अन्यथा सौ करोड़ कल्पोंमें भी बिना भोगे हुए पापका नाश नहीं हो सकता। जो मन, वाणी और शरीरद्वारा स्वयं पाप करता, दूसरेसे कराता तथा किसीके दुष्कर्मका अनुमोदन करता है, उसके लिये पापगति (नरक) ही फल है।
(अध्याय ४-६)