Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 2 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्धःद्वितीयोऽध्यायःइन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, कुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना)

Devi bhagwat puran skandh 6 chapter 2 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण षष्ठः स्कन्धःद्वितीयोऽध्यायःइन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, कुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना)

[अथ द्वितीयोऽध्यायः]

 

:-व्यासजी बोले- इस प्रकार लोभके वशीभूत होकर पापबुद्धि देवराज इन्द्रने ऐरावत हाथीपर सवार हो त्रिशिराके पास जाकर उस अमेय पराक्रमवाले मुनिको देखा ॥ १ ॥

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उसे दृढ़ आसनपर बैठे, वाणीको वशमें किये, पूर्ण समाधिमें स्थित और सूर्य तथा अग्निके समान तेजस्वी देखकर देवराज इन्द्र बहुत दुःखित हुए ॥ २ ॥
यह मुनि निष्पापबुद्धि है; इसे मारनेमें मैं कैसे समर्थ हो सकूँगा ? तपोबलसे अत्यन्त समृद्ध तथा मेरा आसन प्राप्त करनेकी इच्छावाले इस शत्रुकी उपेक्षा भी कैसे करूँ- ऐसा सोचकर देवसंघके स्वामी इन्द्रने अपने तीव्रगामी तथा श्रेष्ठ आयुध वज्रको सूर्य-चन्द्रमाके समान तेजस्वी, तपमें स्थित मुनि त्रिशिराके ऊपर चला दिया ॥ ३-४
उसके प्रहारसे घायल होकर वे तपस्वी उसी प्रकार पृथ्वीपर गिर पड़े और निष्प्राण हो गये, जैसे वज्रसे विदीर्ण होकर पर्वतोंके शिखर पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं; यह घटना देखनेमें बड़ी अद्भुत थी ॥ ५ ॥
उनको मारकर इन्द्र प्रसन्न हो गये, परंतु वहाँ स्थित अन्य मुनिगण आर्तस्वरमें चिल्लाने लगे कि हाय! हाय! सौ यज्ञ करनेवाले पापी इन्द्रने यह क्या कर डाला ! ॥ ६ ॥
पापबुद्धि और दुष्टात्मा शचीपति इन्द्रने इस निरपराध तपोनिधिको मार डाला। इस हत्याजनित पापका फल यह पापी अब शीघ्र ही प्राप्त करे ॥ ७॥
उन्हें मारकर देवराज तुरंत ही अपने भवनको जानेके लिये उद्यत हुए। तेजके निधि वे महात्मा (त्रिशिरा) मर जानेपर भी जीवितकी भाँति प्रतीत होते थे ॥ ८ ॥
उसे जीवितकी भाँति भूमिपर गिरा हुआ देखकर अति उदास मनवाले वे वृत्रहन्ता इन्द्र इस चिन्तामें पड़ गये कि कहीं यह फिर जीवित न हो जाय ॥ ९ ॥
मनमें बहुत देरतक विचार करनेके बाद इन्द्रने सामने खड़े तक्षा (बढ़ई) को देखकर अपने कार्यके अनुरूप बात कही ॥ १० ॥
हे तक्षन् ! मेरा कहा हुआ करो; इसके सिर काट लो, जिससे यह जीवित न रहे। यह महातेजस्वी जीवित न होते हुए भी जीवितकी भाँति प्रतीत होता है। उनकी यह बात सुनकर तक्षाने धिक्कारते हुए कहा- ॥ ११३ ॥
तक्षा बोला- ये अति विशाल कन्धेवाले प्रतीत हो रहे हैं। मेरा परशु इस कन्धेको काट नहीं सकेगा। अतः मैं इस निन्दनीय कार्यको नहीं करूँगा, आपने तो निन्दित और सत्पुरुषोंद्वारा गर्हित कर्म कर डाला है, मैं पापसे डरता हूँ; फिर मरे हुएको क्यों मारूँ?
ये मुनि तो मर गये हैं, फिर इनका सिर काटनेसे क्या प्रयोजन ? हे पाकशासन ! कहिये, इनसे आपको क्या भय उत्पन्न हुआ है ? ॥ १२-१४३ ॥
इन्द्र बोले- यह निर्मल आकृतिवाली देह सजीवकी भाँति दिखायी देती है। यह मेरा शत्रु मुनि पुनः न जीवित हो जाय, इसलिये मैं डरता हूँ ॥ १५३ ॥
तक्षा बोला- हे विद्वन् ! क्या इस क्रूर कर्मको करते हुए आपको लज्जा नहीं आती ? इस ऋषिपुत्रको मारकर क्या आपको ब्रह्महत्याका भय नहीं है ? ॥ १६३ ॥
इन्द्र बोले- मैं बादमें पापके नष्ट होनेके लिये प्रायश्चित्त कर लूँगा। हे महामते ! शत्रुको तो सब प्रकारसे छलके द्वारा भी मार देना चाहिये ॥ १७३ ॥
तक्षा बोला- हे इन्द्र ! आप लोभके वशीभूत होकर पाप कर रहे हैं। हे विभो ! बतायें, मैं उसके बिना पाप क्यों करूँ ? ॥ १८३ ॥
इन्द्र बोले- मैं सदैवके लिये तुम्हारे यज्ञभागकी व्यवस्था कर दूँगा। मनुष्य यज्ञभागके रूपमें पशुका सिर तुम्हें देंगे। इस शुल्कके बदलेमें तुम इसके सिर काट दो और मेरा प्रिय कार्य कर दो ॥ १९-२० ॥
व्यासजी बोले- देवराज इन्द्रका यह वचन सुनकर प्रसन्न हो बढ़ईने अपने सुदृढ़ कुठारसे उसके सिर काट डाले ॥ २१ ॥
कटे हुए तीनों सिर जब भूमिपर गिरे तब उनमेंसे हजारों पक्षी शीघ्रतापूर्वक निकल पड़े। तब गौरैया, तित्तिर और कपिंजल पक्षी शीघ्रतापूर्वक उसके अलग-अलग मुखोंसे निकले ॥ २२-२३ ॥
जिस मुखसे वह वेदपाठ और सोमपान करता था, उस मुखसे तत्काल बहुत-से कपिंजल पक्षी निकले; जिससे वह सभी दिशाओंका निरीक्षण करता था, उससे अत्यन्त तेजस्वी तित्तिर निकले और हे राजन् ! जिससे वह मधुपान करता था, उस मुखसे गौरैया पक्षी निकले। इस प्रकार त्रिशिरासे वे पक्षी निकले ॥ २४-२६ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उन मुखोंसे पक्षियोंको निकला हुआ देखकर इन्द्रके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई; वे पुनः स्वर्गको चल दिये ॥ २७ ॥
हे पृथ्वीपते ! इन्द्रके चले जानेपर तक्षा भी शीघ्र ही अपने घर चल दिया। श्रेष्ठ यज्ञभाग पाकर वह बहुत प्रसन्न था ॥ २८ ॥
इन्द्रने भी अपने महाबली शत्रुको मारकर अपने भवन जा करके ब्रह्महत्याकी चिन्ता न करते हुए | अपनेको कृतकृत्य मान लिया ॥ २९ ॥
उस परम धार्मिक पुत्रको मारा गया सुनकर त्वष्टाने मनमें अत्यन्त क्रोधित हो यह वचन कहा- जिसने मेरे निरपराध मुनिवृत्तिवाले पुत्रको मार डाला है, उसके वधके लिये मैं पुनः पुत्र उत्पन्न करूँगा। देवतालोग मेरे पराक्रम और तपोबलको देख लें; वह पापात्मा भी अपनी करनीका महान् फल जान ले ॥ ३०-३२ ॥
ऐसा कहकर क्रोधसे अत्यन्त व्याकुल त्वष्टा पुत्रकी उत्पत्तिके लिये अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे अग्निमें हवन करने लगे ॥ ३३ ॥
आठ रात्रियोंतक प्रज्वलित अग्निमें हवन करनेपर सहसा अग्निसदृश एक पुरुष प्रकट हुआ ॥ ३४ ॥
वेगपूर्वक अग्निसे प्रकट हुए और अग्निके सदृश प्रकाशमान तथा तेज-बलसे युक्त उस पुत्रको अपने सम्मुख देखकर त्वष्टाने कहा- हे इन्द्रशत्रु ! मेरे तपोबलसे तुम शीघ्र बढ़ जाओ ॥ ३५-३६ ॥
क्रोधसे जाज्वल्यमान त्वष्टाके ऐसा कहते ही अग्निके समान कान्तिवाला वह पुत्र द्युलोकको स्तब्ध करता हुआ बड़ा होने लगा ॥ ३७ ॥
बढ़ते-बढ़ते वह पर्वताकार विशाल और काल पुरुषके समान भयानक हो गया। उसने अत्यन्त दुःखित अपने पितासे कहा- मैं क्या करूँ? हे नाथ! मेरा नामकरण कीजिये। हे सुव्रत ! मुझे कार्य बताइये, आप चिन्तित क्यों हैं? मुझे अपने दुःखका कारण बताइये।
मैं आज ही आपके शोकका नाश कर दूँगा-ऐसा मेरा दृढ़ संकल्प है। जिस पुत्रके रहते पिता दुःखी हो, उस पुत्रसे क्या लाभ ! मैं शीघ्र ही समुद्रको पी जाऊँगा, पर्वतोंको चूर-चूर कर दूँगा और उगते हुए प्रचण्ड तेजस्वी सूर्यको रोक दूँगा।
मैं देवताओंसहित इन्द्रको तथा यमको अथवा अन्य किसी भी देवताको मार डालूँगा। इन सबको तथा पृथ्वीको भी उखाड़कर समुद्रमें फेंक दूँगा ॥ ३८-४२ ॥
उसका यह प्रिय वचन सुनकर त्वष्टाने प्रसन्न | हो पर्वतके समान विशाल उस पुत्रसे कहा- ॥ ४३ ॥
हे पुत्र ! तुम अभी वृजिन (कष्ट) से त्राण दिलानेमें समर्थ हो, इसलिये तुम्हारा ‘वृत्र’ – यह नाम प्रसिद्ध होगा। हे महाभाग ! तुम्हारा त्रिशिरा नामका एक तपस्वी भाई था। उसके अत्यन्त शक्तिशाली तीन सिर थे।
वह वेद-वेदांगोंके तत्त्वको जाननेवाला, सभी विद्याओंमें निपुण और तीनों लोकोंको आश्चर्यमें डाल देनेवाली तपस्यामें रत था। इन्द्रने वज्रका प्रहार करके उस निरपराधको मार डाला और उसके मस्तक काट डाले।
इसलिये हे पुरुषसिंह ! तुम उस ब्रह्म- हत्यारे, पापी, निर्लज्ज, दुष्टबुद्धि तथा मूर्ख इन्द्रको मार डालो ॥ ४४-४८ ॥
ऐसा कहकर पुत्रशोकसे व्याकुल त्वष्टाने विविध प्रकारके दिव्य तथा प्रबल आयुधोंका निर्माण किया और इन्द्रका वध करनेके लिये उस महाबली (वृत्र) को दे दिया।
उनमें खड्ग, शूल, गदा, शक्ति, तोमर, शार्ङ्गधनुष, बाण, परिघ, पट्टिश, सुदर्शन चक्रके समान कान्तिमान् हजार अरोंवाला दिव्य चक्र, दो दिव्य तथा अक्षय तरकस और अत्यन्त सुन्दर कवच एवं मेघके समान श्याम आभावाला, सुदृढ़, भार सहनेमें समर्थ और तीव्रगामी रथ था। इस प्रकार हे राजन् ! समस्त युद्धसामग्री तैयार करके क्रोधसे व्याकुल त्वष्टाने अपने पुत्रको देकर उसे भेज दिया ॥ ४९-५३॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां षष्ठस्कन्धे त्रिशिरवधानन्तरं वृत्रोत्पत्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

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