Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 33(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:त्रयस्त्रिशोऽध्यायः मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना)
[अथ त्रयस्त्रिशोऽध्यायः ]
:-राजा बोले- हे मुने ! ये वैश्य हैं, आज ही वनमें इनसे मेरी मित्रता हुई है। पत्नी और पुत्रोंने इन्हें निकाल दिया है और अब यहाँ इन्हें मेरा साथ प्राप्त हुआ है ॥ १ ॥
(परिवारके वियोगसे ये अत्यन्त दुःखी और विक्षुब्ध हैं; इन्हें शान्ति नहीं मिल पा रही है और इस समय मेरी भी ऐसी ही स्थिति है। हे महामते ! राज्य चले जानेके दुःखसे मैं शोकसन्तप्त हूँ।)
व्यर्थकी यह चिन्ता मेरे हृदयसे निकल नहीं रही है- मेरे घोड़े दुर्बल हो गये होंगे और हाथी शत्रुओंके अधीन हो गये होंगे। उसी प्रकार सेवकगण भी मेरे बिना दुःखी रहते होंगे। शत्रुगण राजकोशको क्षणभरमें बलपूर्वक रिक्त कर देंगे ॥ २-३॥
इस प्रकार चिन्ता करते हुए मुझे न निद्रा आती है और न मेरे शरीरको सुख मिलता है। मैं जानता हूँ कि यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्नकी भाँति मिथ्या है, किंतु हे प्रभो! यह जानते हुए भी मेरा भ्रमित मन स्थिर नहीं होता। मैं कौन हूँ? ये हाथी घोड़े कौन हैं ?
ये मेरे कोई सगे-सम्बन्धी भी नहीं हैं। न ये मेरे पुत्र हैं, और न मेरे मित्र हैं, जिनका दुःख मुझे पीड़ित कर रहा है। मैं जानता हूँ कि यह भ्रम है, फिर भी मेरे मनसे सम्बन्ध रखनेवाला मोह दूर नहीं होता, यह बड़ा ही अद्भुत कारण है! हे स्वामिन् ! आप सर्वज्ञ और सभी संशयोंका नाश करनेवाले हैं, अतः हे दयानिधे ! मेरे इस मोहका कारण बतायें ॥ ४-७३ ॥
व्यासजी बोले- तब राजाके ऐसा पूछनेपर मुनिश्रेष्ठ सुमेधा उनसे शोक और मोहका नाश | करनेवाले परम ज्ञानका वर्णन करने लगे ॥ ८३ ॥
ऋषि बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं बताता हूँ।महामायाके नामसे विख्यात वे भगवती ही सभी प्राणियोंके बन्धन और मोक्षकी कारण हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, वरुण, पवन आदि सभी देवता, मनुष्य, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, वृक्ष, विविध लताएँ, पशु, मृग और पक्षी- ये सब मायाके आधीन हैं और बन्धन तथा मोक्षके भाजन हैं।
उन महामायाने ही इस जड़-चेतनमय सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की है। जब यह जगत् सदा उन्हींके अधीन रहता है और मोहजालमें जकड़ा हुआ है, तब आप किस गणनामें हैं ? आप तो मनुष्योंमें रजोगुणसे युक्त एक क्षत्रियमात्र हैं ॥ ९-१३॥
वे महामाया ज्ञानियोंकी बुद्धिको भी सदा मोहित किये रहती हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि परम ज्ञानी होते हुए भी रागके वशीभूत होकर व्यामोहमें पड़ जाते हैं और संसारमें चक्कर काटा करते हैं ॥ १४३ ॥
हे राजन् ! प्राचीन कालमें स्वयं उन भगवान् नारायणने ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति तथा अविनाशी सुखके लिये श्वेतद्वीपमें जाकर ध्यान करते हुए दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या की थी। हे राजेन्द्र ! इसके साथ ही मोहकी निवृत्तिके लिये एक निर्जन प्रदेशमें ब्रह्माजी भी परम अद्भुत तपस्यामें संलग्न हो गये ॥ १५-१७३ ॥
हे राजेन्द्र ! किसी समय वासुदेव भगवान् श्रीहरिने दूसरे स्थानपर जानेका विचार किया और वे उस स्थानसे उठकर अन्य स्थलको देखनेकी इच्छासे चल दिये। ब्रह्माजी भी उसी प्रकार अपने स्थानसे निकल पड़े। चतुर्मुख ब्रह्माजी और चतुर्भुज भगवान् विष्णु मार्गमें मिल गये। तब वे दोनों एक-दूसरेसे पूछने लगे-तुम कौन हो, तुम कौन हो ? ॥ १८-२० ॥
ब्रह्माजी भगवान् विष्णुसे बोले- मैं जगत्का स्रष्टा हूँ। तब विष्णुने उनसे कहा- हे मूर्ख ! अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाला मैं विष्णु ही जगत्का कर्ता हूँ। तुम कितने शक्तिशाली हो ? तुम तो रजोगुणयुक्त और बलहीन हो ! मुझे सत्त्वगुणसम्पन्न | सनातन नारायण जानो ॥ २१-२२ ॥
दोनों दानवों (मधु-कैटभ) के द्वारा पीड़ित किये जानेपर तुम मेरी ही शरणमें आये थे, उस समय अत्यन्त भीषण युद्ध करके मैंने तुम्हारी रक्षा की। मैंने ही उन मधु-कैटभ दानवोंका वध किया है, अतः हे मन्दबुद्धि ! तुम क्यों गर्व करते हो ? यह तुम्हारा अज्ञान है, इसका शीघ्र त्याग कर दो; क्योंकि इस सम्पूर्ण संसारमें मुझसे बढ़कर कोई नहीं है ॥ २३-२४३ ॥
ऋषि बोले- इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए उन दोनों – ब्रह्मा-विष्णुके ओठ फड़कने लगे, वे क्रोधमें काँपने लगे और उनकी आँखें रक्तवर्ण हो गयीं। तभी विवादरत उन दोनोंके मध्य अचानक एक श्वेतवर्ण, अत्यन्त विशाल तथा अद्भुत लिंग प्रकट हो गया। तदनन्तर विवाद करते हुए उन दोनों महानुभावोंको सम्बोधित करके आकाशवाणी हुई- हे ब्रह्मन् ! हे विष्णो ! तुम दोनों परस्पर विवाद मत करो ॥ २५-२८ ॥
इस लिंगके ऊपरी या निचले छोरका आप दोनोंमेंसे जो पता लगा लेगा, आप दोनोंमें वह सदैवके लिये श्रेष्ठ हो जायगा। इसलिये मेरी वाणीको प्रमाण मानकर तथा इस निरर्थक विवादका त्यागकर आपलोगोंमेंसे एक आकाश और दूसरा पातालकी ओर अभी जाय। इस विवादमें आप दोनोंको एक मध्यस्थ भी अवश्य कर लेना चाहिये ॥ २९-३०३ ॥
ऋषि बोले- उस दिव्य वाणीको सुनकर वे दोनों चेष्टापूर्वक उद्यम करनेके लिये तैयार हो गये और अपने समक्ष स्थित उस देखनेमें अद्भुत लिंगको मापनेके लिये चल पड़े। अपने-अपने महत्त्वकी वृद्धिके लिये उस महालिंगको नापनेहेतु विष्णु पातालकी ओर और ब्रह्मा आकाशकी ओर गये ॥ ३१-३२३ ॥
कुछ दूरतक जानेपर विष्णु पूर्णरूपसे थक गये। वे लिंगका अन्त नहीं प्राप्त कर सके और तब उसी स्थलपर वापस लौट आये। ब्रह्माजी ऊपरकी ओर गये और शिवके मस्तकसे गिरे हुए केतकी पुष्पको लेकर वे भी प्रसन्न हो लौट आये ॥ ३३-३४३ ॥
तब अहंकारसे मोहित ब्रह्मा शीघ्रतापूर्वक आकर विष्णुको केतकी पुष्प दिखाकर यह झूठ बोलने लगे कि मैंने यह केतकी पुष्प इस लिंगके मस्तकसे प्राप्त किया है। आपके चित्तकी शान्तिके लिये पहचानचिह्नके | रूपमें मैं इसे लेता आया हूँ ॥ ३५-३६३ ॥
ब्रह्माजीके उस वचनको सुनकर और केतकी पुष्पको देखकर विष्णुने उनसे कहा- इसका साक्षी कौन है, बताइये। किसी विवादके उपस्थित होनेपर किसी सत्यवादी, बुद्धिमान्, सदाचारी, पवित्र और निष्पक्ष व्यक्तिको साक्षी बनाया जाता है ॥ ३७-३८३ ॥
ब्रह्माजी बोले- इस समय इतने दूर देशसे कौन साक्षी आयेगा ? जो सत्य बात है, उसे यह केतकी स्वयं कह देगी ॥ ३९३ ॥
ऐसा कहकर ब्रह्माजीने केतकीको [साक्ष्यके लिये] प्रेरित किया। तब उसने शीघ्रतापूर्वक विष्णुको सम्बोधित करते हुए कहा कि शिव (लिंग)-के मस्तकपर स्थित मुझे ब्रह्माजी वहाँसे लेकर आये हैं।
हे विष्णो ! इसमें आपको किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये। ब्रह्माजी इस लिंगके पार गये हैं और शिवभक्तोंके द्वारा समर्पित की गयी मुझको लेकर आये हैं- यह मेरा कथन ही प्रमाण है ॥ ४०-४२३ ॥
केतकीकी बात सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराते हुए बोले कि मेरे लिये तो महादेव ही प्रमाण हैं। यदि वे ऐसी बात बोल दें तो मैं मान लूँगा ॥ ४३३ ॥
ऋषि बोले- तब विष्णुकी बात सुनकर सनातन भगवान् महादेवने क्रुद्ध होकर केतकीसे कहा- असत्यभाषिणि ! ऐसा मत बोलो। मेरे मस्तकसे गिरी हुई तुझे ब्रह्मा बीचमें ही पा गये थे। तुमने झूठ बोला है, इसलिये अब मैंने सदैवके लिये तुम्हारा त्याग कर दिया। तब ब्रह्माजीने लज्जित होकर भगवान् विष्णुको नमस्कार किया। उसी दिनसे शिवद्वारा पुष्पोंमेंसे केतकीका त्याग कर दिया गया ॥ ४४-४६३ ॥