Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 31(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:अथैकत्रिंशोऽध्यायःशुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल)
[अथैकत्रिंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- उन सैनिकोंका यह वचन सुनकर क्रोधसे आकुलित नेत्रोंवाले दानवराज शुम्भने उनसे तुरन्त कहा ॥ १ ॥
शुम्भ बोला- हे मूर्खे ! तुम सब खोटी बात क्यों बोल रहे हो ? तुम्हारे वचनोंको मानकर मैं भला अपने जीवनकी रक्षा क्यों करूँ? क्या अपने सचिवों तथा भाई-बन्धुओंका वध कराकर मैं निर्लज्ज बनकर विचरण करूँ ? ॥ २ ॥
प्राणियोंके शुभ अथवा अशुभका कर्ता जब एकमात्र वही अति बलवान् काल है तो मुझे चिन्ता क्या ? क्योंकि परोक्षरूपसे सबपर शासन करनेवाला वह काल टाला नहीं जा सकता ॥ ३॥
जो हो रहा है, वह होता रहे तथा काल जो कुछ भी कर रहा है, उसे करता रहे; अब तो मुझे जीवन तथा मृत्युके विषयमें किसी भी प्रकारकी चिन्ता नहीं है ॥ ४ ॥
वह काल भी भवितव्यताको मिटा सकनेमें समर्थ नहीं है। ऐसा भी होता है कि सावनके महीनेमें मेघ सदा नहीं बरसते; अपितु कभी-कभी अगहन, पौष, माघ तथा फाल्गुनमें असमय ही तेज वृष्टि होने लगती है। अतएव [समस्त कार्योंमें] काल ही प्रधान नहीं है ॥ ५-६ ॥
काल तो निमित्तमात्र है, अपितु [इसकी तुलनामें] दैव अधिक बलवान् है। सब कुछ दैवनिर्मित है; इसके विपरीत कुछ नहीं होता ॥ ७॥
मैं तो दैवको ही प्रधान मानता हूँ। अनर्थकारी पुरुषार्थको धिक्कार है; क्योंकि जिस निशुम्भने सभी देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी, उसे इस स्त्रीने मार डाला ॥ ८ ॥
जब महान् शूरवीर रक्तबीज भी विनाशको प्राप्त हो गया, तब अपनी कीर्तिको कलंकित करके मैं ही जीवनकी आशा क्यों करूँ ? ॥ ९॥
जगत्के रचयिता सर्वसमर्थ स्वयं ब्रह्मा भी दो परार्धका समय बीत जानेपर तत्क्षण ही निधनको प्राप्त हो जाते हैं ॥ १० ॥
ब्रह्माजीके एक दिनमें एक हजार चतुर्युग समाप्त हो जाते हैं और इतनी ही अवधिमें चौदह इन्द्रोंका स्वर्गसे पतन हो चुकता है ॥ ११ ॥
इसी प्रकार [ब्रह्माजीके जीवनकालका] दुगुना समय बीतनेपर विष्णुका अन्त हो जाता है तथा इससे भी दूने समयके पश्चात् शंकर भी समाप्त हो जाते हैं ॥ १२ ॥
इसी प्रकार पृथ्वी, पर्वत, सूर्य तथा चन्द्रमा आदिका भी विनाश हो जाता है, तब हे मूर्खा! दैवकी बनायी हुई इस अटल मृत्युके विषयमें क्या चिन्ता है ? ॥ १३ ॥
जन्म लेनेवालेकी मृत्यु निश्चित है तथा मरनेवालेका जन्म निश्चित है। अतः इस अनित्य शरीरके द्वारा अपनी स्थिर कीर्तिकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १४ ॥
शीघ्रतापूर्वक मेरा रथ तैयार करो। मैं समरांगणमें जाऊँगा। विजय अथवा मरण प्रारब्धानुसार जो भी होनेवाला हो, वह आज ही हो जाय ॥ १५ ॥
सैनिकोंसे ऐसा कहकर वह शुम्भ तुरंत रथपर सवार होकर हिमालयकी ओर चल दिया, जहाँ भगवती विराजमान थीं ॥ १६ ॥
उस समय हाथी, घोड़े, रथ तथा पैदल चलने- वालोंसे सुसज्जित एवं नानाविध आयुधोंसे युक्त विशाल चतुरंगिणी सेना भी उसके साथ चल पड़ी ॥ १७ ॥
उस पर्वतपर पहुँचकर शुम्भने त्रिभुवनको मोहित करनेवाली परम सुन्दरी सिंहवाहिनी भगवती जगदम्बिकाको वहाँ विराजमान देखा। वे सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थीं तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं;
देवता, यक्ष तथा किन्नर आकाशमें स्थित होकर उनकी स्तुति कर रहे थे तथा मन्दारवृक्षके पुष्पोंसे पूजा कर रहे थे और वे मनोहर शंखध्वनि तथा घंटानाद कर रही थीं ॥ १८-२० ॥
उन्हें देखकर शुम्भ मोहित हो गया। कामबाणसे आहत वह शुम्भ कामासक्त होकर मन-ही-मन सोचने लगा- ॥ २१ ॥
अहो, इसका ऐसा आकर्षक रूप तथा ऐसा अद्भुत चातुर्य है। सुकुमारता तथा धीरता – ये दोनों परस्पर विरोधीभाव इसमें एक साथ विद्यमान हैं! ॥ २२ ॥
अत्यन्त कृश शरीरवाली इस सुकुमारीमें अभी- अभी यौवन प्रस्फुटित हुआ है, किंतु आश्चर्य है कि यह रमणी कामभावनासे रहित है ॥ २३ ॥
रूपमें कामदेवकी पत्नी रतिके समान सुन्दर तथा सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न यह स्त्री कहीं अम्बिका ही तो नहीं, जो सभी महाबली दानवोंका संहार कर रही है ॥ २४ ॥
इस अवसरपर मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे यह मेरी वशवर्तिनी हो जाय ? इस हंस-सदृश नेत्रोंवालीको वशमें करनेहेतु मेरे पास कोई मन्त्र भी नहीं है ॥ २५ ॥
सर्वमन्त्रमयी, सबको मोहित करनेवाली, अभिमानमें मत्त रहनेवाली तथा उत्तम लक्षणोंवाली यह सुन्दरी किस प्रकार मेरे वशमें होगी ? ॥ २६ ॥
अब युद्धभूमि छोड़कर पाताललोक जाना भी मेरे लिये उचित नहीं है। साम, दान तथा भेद आदि उपायोंसे भी यह महाबलशालिनी वशमें नहीं की जा सकती ॥ २७ ॥
इस विषम परिस्थितिके आ जानेपर अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? स्त्रीके हाथों मर जाना भी उचित नहीं है; क्योंकि ऐसी मृत्यु यशको नष्ट करनेवाली होती है ॥ २८ ॥
ऋषियोंने उस मृत्युको श्रेयस्कर कहा है, जो समरभूमिमें समान बलवाले योद्धाओंके साथ लड़ते- लड़ते प्राप्त हो ॥ २९ ॥
सैकड़ों वीरोंसे श्रेष्ठ, महाबलशालिनी तथा दैव-विरचित यह नारी मेरे कुलके पूर्ण विनाशके लिये यहाँ उपस्थित हुई है ॥ ३० ॥
मैं इस समय सामनीतिसे युक्त वचनोंका प्रयोग व्यर्थमें क्यों करूँ ? क्योंकि यह तो संहारके लिये आयी हुई है, तो फिर सामवचनोंसे यह कैसे प्रसन्न हो सकती है?
अनेक प्रकारके शस्त्रोंसे विभूषित होनेके कारण दान आदिके प्रलोभनोंसे भी यह विचलित नहीं की जा सकती। भेदनीति भी निष्फल सिद्ध होगी; क्योंकि सभी देवता इसके वशमें हैं ॥ ३१-३२ ॥
अतएव संग्राममें मर जाना श्रेयस्कर है, किंतु पलायन करना ठीक नहीं है। अब तो प्रारब्धके अनुसार विजय अथवा मृत्यु जो भी होना हो, वह हो ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार अपने मनमें विचार करके शुम्भने धैर्यका सहारा लिया। अब युद्धके लिये दृढ़ निश्चय करके उसने अपने सामने खड़ी भगवतीसे कहा ॥ ३४ ॥
हे देवि ! युद्ध करो, किंतु हे प्रिये ! इस समय तुम्हारा यह परिश्रम व्यर्थ है। तुम मूर्ख हो; क्योंकि युद्ध करना स्त्रियोंका धर्म कदापि नहीं है ॥ ३५ ॥ स्त्रियोंके नेत्र ही बाण हैं, उनकी भौंहें ही धनुष हैं, उनके हाव-भाव ही शस्त्र हैं और रसज्ञ पुरुष उनका लक्ष्य है ॥ ३६ ॥
अंगराग (शीतल चन्दन आदि) ही उनका कवच है, मनोकामना रथ है तथा धीरे-धीरे मधुर वाणीमें बोलना भेरी-ध्वनि है। अतएव स्त्रियोंके लिये अन्य शस्त्रोंकी कोई आवश्यकता नहीं रहती ॥ ३७ ॥
यदि स्त्रियाँ इनके अतिरिक्त अन्य अस्त्र धारण करें तो यह निश्चितरूपसे उनके लिये विडम्बना ही है। हे प्रिये ! लज्जा ही नारियोंका आभूषण है, धृष्टता उन्हें कभी भी शोभा नहीं देती ॥ ३८ ॥
युद्ध करती हुई उत्तम नारी भी कर्कशाके सदृश दिखायी देती है। धनुष खींचते समय कोई स्त्री अपने दोनों स्तनोंको छिपानेमें कैसे सफल हो सकती है ? ॥ ३९ ॥
कहाँ नारियोंकी मन्थरगति और कहाँ युद्धमें गदा लेकर दौड़ना। इस समय यह कालिका तथा दूसरी स्त्री चामुण्डा ही तुम्हें बुद्धि देनेवाली हैं। मध्यस्थ होकर चण्डिका मन्त्रणा देती है, कर्कश स्वरवाली शिवा तुम्हारी शुश्रूषामें रहती है और सभी प्राणियोंमें | भयंकर सिंह तुम्हारा वाहन है ॥ ४०-४१ ॥
हे सुन्दरि ! वीणा-वादन छोड़कर तुम यह जो घंटा-नाद कर रही हो, वह सब तुम्हारे रूप तथा यौवनके सर्वथा विपरीत है ॥ ४२ ॥
हे भामिनि ! यदि युद्ध करना ही तुम्हें अभीष्ट है तो तुम सर्वप्रथम लम्बे ओठोंवाली, विचित्र नखोंवाली, क्रूर स्वभाववाली, कौए-जैसे वर्णवाली, विकृत आँखोंवाली, लम्बे पैरोंवाली, भयंकर दाँतोंवाली और बिल्लीसदृश नेत्रोंवाली कुरूप स्त्री बन जाओ।
ऐसा ही विकराल रूप धारण करके तुम युद्धभूमिमें स्थिरतापूर्वक खड़ी हो जाओ और कर्कश वचन बोलो, तभी मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा; क्योंकि हे मृगशावक-सदृश नेत्रोंवाली ! हे रतितुल्य सुन्दरि ! सुन्दर दाँतोंवाली ऐसी रमणीको देखकर तुम्हें युद्धमें मारनेके लिये मेरा हाथ नहीं उठ पा रहा है॥ ४३-४५३ ॥
व्यासजी बोले- हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ जनमेजय ! उस कामातुर शुम्भको ऐसा बोलते हुए देखकर भगवती जगदम्बा मुसकराकर यह वचन कहने लगीं – ॥ ४६ ३ ॥
देवी बोलीं- हे मन्दबुद्धि ! कामबाणसे विमोहित होकर तुम इस प्रकार विषाद क्यों कर रहे हो ? हे मूढ ! तुम पहले कालिका अथवा चामुण्डाके साथ ही युद्ध कर लो। ये दोनों देवियाँ ही समरांगणमें तुम्हारे साथ युद्ध करनेमें पूर्ण समर्थ हैं। मैं तो केवल दर्शक बनकर खड़ी हूँ। तुम इन दोनोंपर यथेच्छ प्रहार करो। मैं तुमसे लड़नेकी इच्छा नहीं करती ॥ ४७-४८३ ॥
शुम्भसे ऐसा कहकर भगवतीने मधुर वाणीमें कालिकासे कहा- हे क्रूर कालिके ! कुरूपाके साथ लड़नेकी इच्छावाले इस दानवको तुम युद्धमें मार डालो ॥ ४९ ३ ॥
व्यासजी बोले- भगवतीके इस प्रकार कहनेपर कालरूपिणी कालिका कालसे प्रेरित होकर बड़ी तेजीसे तत्काल गदा उठाकर सावधानीपूर्वक रणमें खड़ी हो गयीं। इसके बाद सभी देवताओं, मुनियों और महात्माओंके देखते-देखते उन दोनोंमें अतीव | भीषण युद्ध प्रारम्भ हो गया ॥ ५०-५१३ ॥
शुम्भने अपनी गदा लेकर उससे कालिकापर प्रहार किया। भगवती कालिका भी अपनी गदासे दैत्यराज शुम्भपर तेज प्रहार करने लगीं। भयानक स्वरवाली चण्डीने गदासे उस दैत्यके सुवर्णमय चमकीले रथको चूर-चूर कर डाला और [शुम्भका रथ खींचनेवाले] गदहोंको मारकर उसके सारथिको भी मार डाला ॥ ५२-५३३ ॥
अब क्रोधमें भरे हुए शुम्भने अपनी विशाल गदा लेकर अट्टहास करते हुए पैदल ही पहुँचकर कालिकाकी दोनों भुजाओंके मध्यभाग (वक्षःस्थल) – पर प्रहार किया ॥ ५४३ ॥
तब कालिकाने उसके गदा-प्रहारको निष्फल करके शीघ्रतापूर्वक तलवार उठाकर शुम्भके चन्दनचर्चित तथा आयुधयुक्त बायें हाथको काट दिया ॥ ५५३ ॥
हाथ कट जाने तथा रथविहीन होनेके बावजूद भी रक्तसे लथपथ वह शुम्भ हाथमें गदा लिये हुए शीघ्रतापूर्वक कालिकाके पास पहुँचकर उनके ऊपर प्रहार करने लगा ॥ ५६३ ॥
तब कालीने अपने करवाल (तलवार) से उसके गदायुक्त तथा बाजूबन्दसे सुशोभित दाहिने हाथको हँसते-हँसते काट डाला ॥ ५७३ ॥
इसके बाद वह शुम्भ कुपित होकर कालिकापर पैरसे प्रहार करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ा। तभी कालिकाने अपनी तलवारसे तुरंत उसके दोनों पैर भी काट डाले ॥ ५८३ ॥
हाथ-पैर कट जानेपर भी ‘ठहरो ठहरो’ ऐसा कहता हुआ वह शुम्भ कालिकाको भयभीत करते हुए वेगपूर्वक दौड़ता हुआ उनकी ओर बढ़ा ॥ ५९३ ॥
उसे आते देखकर कालिकाने उसके कमलसदृश मस्तकको काट दिया, जिससे उसके कण्ठसे रक्तकी अजस्त्र धारा बहने लगी। मस्तक कट जानेपर पर्वततुल्य वह शुम्भ जमीनपर गिर पड़ा और उसके प्राण शरीरसे निकलकर तत्काल प्रयाण कर गये ॥ ६०-६१३ ॥
दैत्य शुम्भको इस प्रकार प्राणविहीन होकर गिरा हुआ देखकर इन्द्रसहित सभी देवता भगवती चामुण्डा तथा कालिकाकी स्तुति करने लगे ॥ ६२३ ॥
सुखदायक पवन बहने लगा तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गयीं। हवन करते समय [शुभ सूचनाके रूपमें] अग्निकी पवित्र ज्वालाएँ दाहिनी ओरसे उठने लगीं ॥ ६३३ ॥
हे राजन् ! जो दानव मरनेसे बच गये थे, वे सभी जगदम्बिकाको प्रणाम करके अपने-अपने आयुध त्यागकर पाताल चले गये ॥ ६४३ ॥
देवीका उत्तम चरित्र, शुम्भ आदि दैत्योंका वध तथा देवताओंकी रक्षा- इन सबका वर्णन आपसे कर दिया। पृथ्वीपर रहनेवाले जो मनुष्य इस समस्त आख्यानका भक्तिभावसे निरन्तर पठन तथा श्रवण करते हैं, वे निश्चितरूपसे कृतार्थ हो जाते हैं।
पुत्रहीनको पुत्र प्राप्त होते हैं, निर्धनको विपुल सम्पदा सुलभ हो जाती है तथा रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है। वह सभी वांछित फल प्राप्त कर लेता है और उसे शत्रुओंसे किसी प्रकारका भय नहीं रह जाता है। जो मनुष्य इस पवित्र आख्यानका नित्य पठन तथा श्रवण करता है, वह अन्तमें मोक्षका भागी हो जाता है ॥ ६५-६८॥