Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 30(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्ध:त्रिंशोऽध्यायः देवीद्वारा निशुम्भका वध)
[अथ त्रिंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- [हे राजन् !] वह पराक्रमी निशुम्भ अब मृत्यु अथवा विजयका निश्चय करके पूरी तैयारीके साथ सेनासहित समरभूमिमें उपस्थित हो गया ॥ १ ॥
अपनी सेना साथमें लेकर शुम्भ भी उस निशुम्भके पास आ गया और युद्धकलाका पूर्ण ज्ञान रखनेवाला वह दैत्यराज शुम्भ रणमें दर्शक बनकर युद्धका अवलोकन करने लगा ॥ २ ॥
इन्द्रसहित समस्त देवता तथा यक्षगण संग्राम देखनेकी इच्छासे आकाशमण्डलमें मेघपटलोंमें छिपकर विराजमान हो गये ॥ ३ ॥
निशुम्भ रणभूमिमें पहुँचकर सींगका बना हुआ धनुष लेकर भगवती जगदम्बाको भयभीत करता हुआ उनके ऊपर बाणोंकी बौछार करने लगा ॥ ४ ॥
युद्धभूमिमें निशुम्भको बाण-समूह छोड़ते हुए देखकर भगवती चण्डिका अपना उत्कृष्ट धनुष धारण करके उच्च स्वरमें बार-बार हँसने लगीं। देवी चण्डिकाने कालीसे कहा- हे काली! इन दोनोंकी मूर्खता तो देखो, ये दोनों इस समय यहाँ मेरे पास मरनेके लिये ही आये हुए हैं ॥ ५-६ ॥
दैत्योंका भीषण संहार तथा रक्तबीजकी मृत्यु देखकर भी मेरी मायासे विमोहित हुए ये दोनों दैत्य विजयकी आशा कर रहे हैं ॥ ७ ॥
यह आशा बड़ी बलवती होती है; यह प्राणियोंको कभी नहीं छोड़ती है। यहाँतक कि अंगहीन, बलहीन, नष्टप्राय, असहाय तथा अचेत प्राणी भी आशाके | प्रभावसे छूट नहीं पाता है ॥ ८ ॥
हे कालि ! इस प्रकार आशा-पाशमें बँधे हुए ये दोनों शुम्भ-निशुम्भ युद्धके लिये समरभूमिमें आये हुए हैं, अब मुझे इन दोनोंका वध कर देना चाहिये ॥ ९ ॥
आसन्न मृत्युवाले ये दोनों दैत्य प्रारब्धकी प्रेरणासे यहाँ आये हुए हैं। सभी देवताओंके समक्ष आज ही मैं इन्हें मार डालूँगी ॥ १० ॥
व्यासजी बोले – भगवती चण्डिकाने कालिकासे ऐसा कहकर कानोंतक खींचकर छोड़े गये बाण- समूहोंसे अपने समक्ष खड़े निशुम्भको शीघ्र ही आच्छादित कर दिया ॥ ११ ॥
दैत्य निशुम्भने भी उन चण्डिकाके बाणोंको अपने तीक्ष्ण बाणोंसे काट डाला। इस प्रकार उन दोनोंमें परस्पर अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा ॥ १२ ॥
देवीका सिंह भी अपने गर्दनके बालोंको झाड़ता हुआ दैत्योंके सेनारूपी समुद्रको उसी प्रकार मथने लगा, जैसे कोई बलवान् हाथी तालाबको मथ रहा हो ॥ १३ ॥
जिस प्रकार कोई सिंह मतवाले हाथियोंके अंग-प्रत्यंग चीरकर खा डालता है, उसी प्रकार भगवतीका वह सिंह अपने समक्ष स्थित दानवोंको अपने नखों तथा दाँतोंके प्रहारसे फाड़कर खाने लगा ॥ १४ ॥
भगवतीके उस सिंहद्वारा दानवी सेनाका इस प्रकार संहार होते देखकर निशुम्भ अपना श्रेष्ठ धनुष चढ़ाकर सिंहके पीछे दौड़ा ॥ १५ ॥
उसी समय कोपके कारण लाल नेत्रोंवाले अन्य बहुत-से प्रधान दानव भी दाँतोंसे अपनी जीभ चबाते हुए भगवतीको मारनेके लिये उनपर टूट पड़े ॥ १६ ॥
उसी अवसरपर कुपित होकर शुम्भ भी कालिकापर प्रहार करके भगवती अम्बिकाको पकड़नेके लिये अपनी सेनाके साथ बड़े वेगसे वहाँ आ पहुँचा ॥ १७ ॥
वहाँ आकर उसने जगदम्बिकाको युद्धभूमिमें अपने सामने खड़ी देखा; जो परम सुन्दरी, श्रृंगाररससे | परिपूर्ण तथा रौद्ररससे भरी हुई थीं ॥ १८ ॥
[स्वभावतः] लाल नेत्रोंवाली, किंतु उस समय कोपके कारण अतिरक्त नयनोंवाली, तीनों लोकोंमें परम सुन्दरी तथा विशाल नेत्रप्रान्तोंवाली उन मनोहर भगवतीको देखकर विजयकी आशा तथा विवाहकी अभिलाषाका दूरसे ही परित्याग करके वह दानव अब अपने मरणका निश्चय कर हाथमें धनुष लिये हुए खड़ा ही रह गया ॥ १९-२० ॥
तब भगवतीने युद्धस्थलमें उपस्थित उन सभी दानवोंको सुनाते हुए मुसकराकर उस दैत्यसे यह वचन कहा- हे नीच दानवो ! यदि तुम सब जीवित रहनेकी इच्छा रखते हो तो अपने आयुध यहीं छोड़कर पाताललोक या समुद्रमें चले जाओ अथवा तुमलोग समरांगणमें मेरे बाणोंके प्रहारसे निष्प्राण होकर स्वर्गमें सुख प्राप्तकर वहाँ निर्भय होकर विहार करो। कायरता तथा पराक्रम दोनोंका एक साथ रह पाना सम्भव नहीं है। मैं तुम सबको अभयदान देती हूँ; तुम सब सुखपूर्वक चले जाओ ॥ २१-२४॥
व्यासजी बोले- उन भगवतीका वचन सुनकर मदोन्मत्त निशुम्भ तीक्ष्ण खड्ग तथा अष्टचन्द्र नामक ढाल लेकर बड़े वेगसे दौड़ा और उसने बलपूर्वक अपने खड्गसे मतवाले सिंहके मस्तकपर प्रहार किया। तत्पश्चात् उसने तलवार घुमाकर जगदम्बापर भी प्रहार किया ॥ २५-२६ ॥
तब भगवतीने अपनी गदासे उसके तलवारके प्रहारको रोककर अपने परशुसे उसके बाहुमूल (कन्धे) पर आघात किया ॥ २७ ॥
अपने कन्धेपर खड्गसे प्रहार होनेपर भी उस महाभिमानी अहंकारी निशुम्भने उस आघातकी वेदना सहकर भगवती चण्डिकापर पुनः प्रहार किया ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् भगवती चण्डिकाने भी प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाली भीषण घंटाध्वनि की और निशुम्भको मारनेकी इच्छा प्रकट करती हुई उन्होंने बार-बार मधुपान किया ॥ २९ ॥
इस प्रकार एक-दूसरेको जीतनेकी प्रबल इच्छावाले देवताओं तथा दानवोंमें परस्पर अत्यन्त | भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ ३० ॥
मांसाहारी क्रूर पक्षी, कुत्ते, सियार, गीध, कंक तथा कौए अति प्रसन्न होकर नृत्य करने लगे ॥ ३१ ॥
उस समय बहुत-से गिरे हुए दैत्योंके रक्त बहते हुए शरीरोंसे तथा हाथियों और घोड़ोंके देहसे पटी हुई वह रणभूमि अत्यधिक [भयानक] प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥
[भूमिपर] गिरे हुए दानवोंको देखकर निशुम्भ अत्यन्त कुपित हो उठा और एक भयंकर गदा लेकर शीघ्रतापूर्वक भगवतीके समक्ष पहुँच गया ॥ ३३ ॥
अभिमानमें चूर उस निशुम्भने सिंहके मस्तकपर गदासे प्रहार किया। तत्पश्चात् उसने मुसकराकर पुनः देवीपर प्रहार करके उन्हें चोट पहुँचायी ॥ ३४ ॥
इससे वे भगवती भी अत्यन्त कुपित हो गयीं और समक्ष स्थित होकर प्रहार कर रहे उस निशुम्भको देखकर कहने लगीं – ॥ ३५ ॥
देवी बोलीं- हे मन्दबुद्धि ! मैं तलवार चला रही हूँ। तुम तबतकके लिये ठहर जाओ, जबतक मेरी यह तलवार तुम्हारी गर्दनतक नहीं पहुँच जाती। इसके बाद तुम यमपुरी निश्चय ही पहुँच जाओगे ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर भगवती चण्डिकाने एकाग्रचित्त होकर बड़ी शीघ्रतासे अपने कृपाणसे उस निशुम्भका मस्तक काट दिया ॥ ३७ ॥
इस प्रकार भगवतीके द्वारा सिर कटा हुआ अत्यन्त विकराल वह धड़ हाथमें गदा धारण किये देवगणोंको भयभीत करता हुआ इधर-उधर घूमने लगा ॥ ३८ ॥
तत्पश्चात् भगवतीने तीक्ष्ण बाणोंसे उसके दोनों हाथ तथा पैर भी काट दिये। इसके बाद पर्वतके समान शरीरवाला वह पापी दैत्य प्राणहीन होकर धरतीपर गिर पड़ा ॥ ३९ ॥
प्रचण्ड पराक्रमवाले उस निशुम्भ दैत्यके गिर जानेपर भयसे कम्पित दानवसेनामें महान् हाहाकार मच गया। रक्तसे लथपथ समस्त दानवसैनिक अपने- अपने सभी आयुध फेंककर चीख-पुकार करते हुए राजभवनकी ओर भाग गये ॥ ४०-४१ ॥
शत्रुओंके संहारकी शक्ति रखनेवाले शुम्भने वहाँ आये हुए उन सैनिकोंको देखकर उनसे पूछा- निशुम्भ कहाँ है और घायल होकर तुम सब | युद्धभूमिसे भाग क्यों आये ? ॥ ४२ ॥
दानवराज शुम्भका वह वचन सुनकर उन सैनिकोंने अति विनम्रतापूर्वक कहा- हे राजन् ! आपके भाई निशुम्भ मृत होकर रणभूमिमें सोये पड़े हैं ॥ ४३ ॥
उस स्त्रीने आपके अनुज (निशुम्भ) के जो भी अनुचर दानववीर थे, उन्हें मार डाला। यही सब समाचार आपको बतानेके लिये हम यहाँ आये हुए हैं ॥ ४४ ॥
उस चण्डिकाने इसी समय युद्धभूमिमें निशुम्भका संहार किया है। अतएव हे राजन् ! उसके साथ समरभूमिमें आपके लिये आज युद्ध करनेका [उचित] अवसर नहीं है ॥ ४५ ॥
आप यह निश्चितरूपसे जान लीजिये कि देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे दानवकुलका संहार करनेके लिये यह कोई अद्भुत देवी प्रकट हुई है ॥ ४६ ॥
यह सामान्य नारी नहीं है, अपितु देवीरूपिणी कोई अत्युत्तम शक्ति है। अद्भुत चरित्रोंवाली ये देवी देवताओंके भी ज्ञानसे परे हैं ॥ ४७ ॥
ये कल्याणी भगवती अनेक रूप धारण करनेमें समर्थ हैं, मायाके मूल तत्त्वका पूर्ण ज्ञान रखनेवाली हैं और अद्भुत भूषण तथा समस्त प्रकारके आयुध धारण करनेवाली हैं ॥ ४८ ॥
गूढ़ चरित्रोंवाली इन देवीको जान पाना अत्यन्त कठिन है। ये दूसरी कालरात्रिके समान प्रतीत होती हैं। असीमके भी पार जा सकनेमें समर्थ ये पूर्णतामयी देवी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं ॥ ४९ ॥
समस्त देवतागण अन्तरिक्षमें स्थित होकर देवकार्य सिद्ध करनेवाली परम अद्भुतस्वरूपिणी उन देवीका निर्भीकतापूर्वक स्तवन कर रहे हैं ॥ ५० ॥
यदि आप शरीरकी रक्षा करना चाहते हैं तो इस समय पलायन ही परम धर्म है। इस शरीरकी रक्षा हो जानेके बाद पुनः आनन्ददायक अनुकूल समय आनेपर संग्राममें आपकी विजय होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
हे राजन् ! कभी-कभी काल बलवान्को भी बलहीन बना देता है और पुनः समय | आनेपर उसे बलशाली बनाकर विजयकी प्राप्ति करा देता है। कभी-कभी काल विषम परिस्थितिमें दाताको भिखारी बना देता है और पुनः कुछ समय बीतनेपर उसी भिखारीको धन देनेवाला बना देता है॥ ५१-५३३ ॥
विष्णु, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता निश्चितरूपसे सदा कालके वशवर्ती हैं। यह काल स्वयं ही सबका स्वामी है। हे राजन् ! अभी काल आपके लिये विपरीत है, अतएव आप समयकी प्रतीक्षा कीजिये ॥ ५४-५५ ॥
हे पृथ्वीपते ! इस समय काल देवताओंके लिये अनुकूल तथा दैत्योंके लिये विनाशकारी है। कालकी गति सर्वथा एक ही तरहकी नहीं बनी रहती है। यह काल-गति नानाविध रूप भी धारण करती है।
अतः कालकी चेष्टापर विचार करते रहना चाहिये। कभी प्राणियोंका जन्म होता है और कभी उनका मरण उपस्थित हो जाता है। एक काल उत्पत्तिका हेतु होता है तो दूसरा काल विनाशका हेतु बन जाता है॥ ५६-५७३ ॥
हे महाराज ! आपके समक्ष इसका प्रमाण विद्यमान है कि पहले इन्द्र आदि सभी देवता आपके लिये अनुकूल समय रहनेपर आपके करदाता बन गये थे, किंतु आज उसी कालके विपरीत हो जानेके कारण एक अबलाने बलशाली असुरोंका संहार कर डाला। यही काल हित भी करता है तथा अहित भी करता है। इस पराजयमें न तो काली कारण हैं और न तो सनातन देवता ही कारण हैं ॥ ५८-६० ॥
हे राजन् ! आपको जैसा उचित जान पड़े भलीभाँति सोच-समझकर आप वैसा ही कीजिये। हमारी समझमें तो यह काल अभी आपके तथा अन्य दानवोंके लिये भी अनुकूल नहीं है ॥ ६१ ॥
किसी समय संग्राममें घायल होकर तथा अपने आयुध छोड़कर इन्द्र आपके सामनेसे भाग गये थे। ऐसे ही विष्णु, रुद्र, वरुण, कुबेर, यम आदि देवता भी आपके समक्ष टिक नहीं पाये थे।
अतः हे राजेन्द्र ! इस समस्त जगत्को कालके अधीन मानकर आप भी तत्काल पाताललोक चले जाइये; जीवन बचा रहा तो | आप कल्याण अवश्य प्राप्त करेंगे ॥ ६२-६३ ॥
हे महाराज ! यदि कहीं आपका निधन हो गया तो आपके शत्रु प्रसन्नतापूर्वक मंगलगान करते हुए – निर्भय होकर सर्वत्र विचरण करेंगे ॥ ६४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे युद्धात्प्रत्यागतानां रक्षसां शुम्भाय वार्तावर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥