Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 14(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःचतुर्दशोऽध्यायःचिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध)

Devi bhagwat puran skandh 5 chapter 14(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण पञ्चमः स्कन्धःचतुर्दशोऽध्यायःचिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध)

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[अथ चतुर्दशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- हे राजन् ! दुर्मुख मार दिया गया- यह सुनकर महिषासुर क्रोधसे मूच्छित हो गया और दानवोंसे बार-बार कहने लगा- ‘यह क्या हो गया ?’ दुर्मुख और बाष्कल तो बड़े शूर वीर दानव थे। एक सुकुमार नारीने उन्हें रणभूमिमें मार डाला, यह तो महान् आश्चर्य है! दैवका विधान तो देखो ॥ १-२ ॥
समय बड़ा बलवान् होता है, वही परतन्त्र मनुष्योंके पुण्य तथा पापके अनुसार सदा उनके सुखों-दुःखोंका निर्माण करता है ॥ ३ ॥
ये दोनों ही श्रेष्ठ दानव मार डाले गये हैं, अब इसके बाद क्या करना चाहिये ? इस विषम स्थितिमें सब लोग विचार करके जो उचित हो, बतायें ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले- हे राजेन्द्र ! इस प्रकार महाशक्तिशाली महिषासुरके कहनेपर उसके महारथी सेनाध्यक्ष चिक्षुरने कहा- हे राजन् ! स्त्रीको मार डालनेमें चिन्ता किस बातकी ! मैं उसे मार डालूँगा ॥ ५३ ॥
ऐसा कहकर वह चिक्षुराख्य रथपर बैठकर दूसरे महाबली ताम्रको अपना अंगरक्षक बनाकर सेनाकी तुमुल ध्वनिसे आकाश एवं दिशाओंको निनादित करता हुआ युद्धके लिये चल पड़ा ॥ ६-७ ॥
उसे आता हुआ देखकर कल्याणमयी भगवतीने अद्भुत शंखध्वनि, घण्टानाद तथा धनुषकी टंकार की। उस ध्वनिसे सभी राक्षस भयभीत हो गये। ‘यह क्या’- ऐसा कहते हुए वे भयसे काँपने लगे तथा भाग खड़े हुए ॥ ८-९ ॥
उन्हें भागते हुए देखकर चिक्षुराख्यने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा- तुम्हारे सामने कौन-सा भय आ गया ? मैं इस मदोन्मत्त नारीको आज ही बाणोंद्वारा मार डालूँगा। हे दैत्यो ! तुम लोग भय छोड़कर लड़ाईके मोर्चेपर डटे रहो ॥ १०-११ ॥
ऐसा कहकर उस पराक्रमी दैत्यश्रेष्ठ चिक्षुरने हाथमें धनुष उठा लिया और युद्धभूमिमें आकर वह निश्चिन्ततापूर्वक भगवतीसे कहने लगा-हे विशालाक्षि ! अन्य साधारण मनुष्योंको भयभीत करती हुई तुम क्यों गरज रही हो ? तुम्हारा यह व्यर्थ गर्जन सुनकर मैं भयभीत नहीं हो सकता ॥ १२-१३॥
हे सुलोचने ! स्त्रीका वध करना पाप है तथा इससे जगत्में अपकीर्ति होती है- यह जानकर मेरा चित्त तुम्हें मारनेसे विचलित हो रहा है। हे सुन्दरि ! तुम-जैसी स्त्रियोंके कटाक्षों तथा हाव-भावोंसे समरका कार्य सम्पन्न हो जाता है; कभी कहीं भी शस्त्रोंद्वारा स्त्रीका युद्ध नहीं हुआ है ॥ १४-१५ ॥
हे सुन्दरि ! तुम्हें तो पुष्पसे भी युद्ध नहीं करना चाहिये, तब फिर तीक्ष्ण बाणोंसे युद्धकी बात ही क्या; क्योंकि तुम्हारी-जैसी सुन्दरियोंके शरीरमें मालतीकी पंखुड़ी भी पीड़ा उत्पन्न कर सकती है ॥ १६ ॥
इस संसारमें क्षात्रधर्मानुयायी लोगोंके जन्मको धिक्कार है; क्योंकि वे बड़े प्यारसे पाले गये अपने शरीरको भी तीक्ष्ण बाणोंसे छिदवाते हैं ! ॥ १७ ॥
तेलकी मालिशसे, फूलोंकी हवासे तथा स्वादिष्ट भोजन आदिसे पोषित इस प्रिय शरीरको शत्रुओंके बाणोंसे बिंधवाते हैं। तलवारकी धारसे अपना शरीर कटवाकर मनुष्य धनवान् होना चाहते हैं। ऐसे धनको धिक्कार है जो प्रारम्भमें ही दुःख देनेवाला होता है; तो बादमें क्या वह सुख देनेवाला हो सकता है ? ॥ १८-१९ ॥
हे सुन्दरि ! तुम भी मूर्ख ही हो, तभी तो सम्भोगजन्य सुखको त्यागकर युद्धकी इच्छा कर रही हो। युद्धमें तुम कौन-सा लाभ समझ रही हो ? ॥ २० ॥ युद्धमें तलवारें चलती हैं, गदाका प्रहार होता है और बाणोंसे शरीरका बेधन किया जाता है। मृत्युके अन्तमें सियार अपने मुँहसे नोच-नोचकर उस देहका संस्कार करते हैं ॥ २१ ॥

 

धूर्त कवियोंने उसी युद्धकी अत्यन्त प्रशंसा की है कि रणभूमिमें मरनेवालोंको स्वर्ग प्राप्त होता है। उनका यह कहना केवल अर्थवादमात्र है ॥ २२ ॥
अतः हे वरारोहे ! तुम्हारा मन जहाँ लगे, वहाँ चली जाओ अथवा तुम देवताओंका दमन करनेवाले मेरे स्वामी महाराज महिषासुरको स्वीकार कर लो ॥ २३ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार बोलते हुए उस दैत्यसे भगवती जगदम्बाने कहा- मूर्ख ! तुम अपनेको बुद्धिमान् पण्डितके समान मानकर व्यर्थ क्यों बोल रहे हो ? तुम न तो नीतिशास्त्र जानते हो, न आन्वीक्षिकी विद्या ही जानते हो, तुमने कभी न वृद्धोंकी सेवा की है और न तो तुम्हारी बुद्धि ही धर्मपरायण है ॥ २४-२५॥
क्योंकि तुम मूर्खकी सेवामें लगे रहते हो, अतः तुम भी मूर्ख हो। जब तुम्हें राजधर्म ही ज्ञात नहीं, तब मेरे सामने क्यों व्यर्थ बकवाद कर रहे हो ? ॥ २६ ॥
संग्राममें महिषासुरका वध करके समरांगणको रुधिरसे पंकमय बनाकर अपना यश-स्तम्भ सुदृढ़ स्थापितकर मैं सुखपूर्वक चली जाऊँगी ॥ २७ ॥
देवताओंको दुःख देनेवाले इस दुराचारी तथा मदोन्मत्त दानवको मैं अवश्य मार डालूँगी। तुम सावधान होकर युद्ध करो। हे मूर्ख ! यदि तुम्हें तथा महिषासुरको जीनेकी अभिलाषा हो तो सभी दानव पाताललोकको शीघ्र ही चले जायँ; अन्यथा यदि तुमलोगोंके मनमें मरनेकी इच्छा हो तो तुरंत युद्ध करो। यह मेरा संकल्प है कि मैं सभी दानवोंको मार डालूँगी ॥ २८-३० ॥
व्यासजी बोले- देवीका वचन सुनकर बलके अभिमानसे युक्त वह दैत्य उनपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगा, मानो दूसरे मेघ ही जलकी धारा बरसा रहे हों ॥ ३१ ॥
तब भगवतीने अपने तीक्ष्ण बाणोंद्वारा उसके सभी बाण काट डाले और विषधर सर्पके समान विषैले बाणोंसे उसपर प्रहार किया। उन दोनोंमें परस्पर विस्मयकारी युद्ध होने लगा। जगदम्बाने अपने वाहन सिंहपरसे ही उस दैत्यपर गदासे प्रहार किया ॥ ३२-३३ ॥

 

गदासे अत्यधिक आहत होनेके कारण वह दुष्टात्मा दैत्य मूच्छित हो गया और दो मुहूर्ततक पाषाणकी भाँति रथपर ही पड़ा रहा ॥ ३४॥
इस प्रकार उसे मूच्छित देखकर शत्रुसेनाको नष्ट कर डालनेवाला ताम्र नामक दैत्य चण्डिकासे लड़नेके लिये वेगपूर्वक रणमें उपस्थित हो गया ॥ ३५ ॥
उसे आते देखकर भगवती चण्डिका उससे हँसती हुई बोलीं- अरे दानवश्रेष्ठ ! आओ-आओ, अभी तुम्हें यमलोक भेज देती हूँ ॥ ३६ ॥
निर्बल और समाप्त आयुवाले तुमलोगोंके यहाँ आनेसे क्या लाभ ? वह मूर्ख महिषासुर घरमें रहकर अपने जीनेका कौन-सा उपाय कर रहा है? देवताओंके शत्रु, दुष्टात्मा तथा पापी महिषासुरका संहार किये बिना तुम मूर्खाको मारनेसे मुझे क्या लाभ होगा ?
इससे तो मेरा परिश्रम भी व्यर्थ हो जायगा, अतः तुमलोग घरपर जाकर महिषासुरको यहाँ भेज दो, जिससे वह मन्दबुद्धि भी मैं जिस रूपमें स्थित हूँ, उसमें मुझको देख ले ॥ ३७-३९ ॥
भगवतीका वचन सुनकर वह ताम्र कुपित हो धनुषको कानतक खींचकर उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ ४० ॥
देवताओंके शत्रु उस दैत्यको मारनेकी इच्छावाली ताम्राक्षी भगवती भी धनुष खींचकर उसके ऊपर वेगपूर्वक बाण छोड़ने लगीं ॥ ४१ ॥
इतनेमें बलवान् चिक्षुराख्य भी मूर्च्छा त्यागकर उठ खड़ा हुआ और तुरंत बाणसहित धनुष लेकर देवीके सामने आकर खड़ा हो गया ॥ ४२ ॥
चिक्षुराख्य और ताम्र दोनों ही अत्यन्त उग्र बलवान् और महान् वीर थे। अब वे दोनों ही मिलकर भगवती जगदम्बासे रणमें युद्ध करने लगे ॥ ४३ ॥
तब महामाया क्रोधित होकर बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगीं, और उन्होंने अपने बाणोंके प्रहारसे सभी दानवोंके कवच छिन्न-भिन्न कर दिये ॥ ४४ ॥
उन बाणोंसे आहत होकर सभी असुर क्रोधसे व्याकुल हो गये तथा रोषपूर्वक देवीपर बाणसमूह | छोड़ने लगे। उस समय समस्त रणभूमिमें भगवतीके बाणोंसे घायल सभी राक्षस ऐसे सुशोभित होने लगे, जैसे वसन्त ऋतुमें वनमें किंशुकके लाल पुष्प दिखायी पड़ते हों ॥ ४५-४६ ॥
उस समरभूमिमें ताम्रके साथ देवीका भीषण युद्ध होने लगा। इसे देखनेवाले जो देवता आकाशमें स्थित थे, वे आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४७ ॥
उसी समय ताम्रने लोहेका बना हुआ एक सुदृढ़ तथा भयंकर मूसल लेकर देवीके सिंहके सिरपर प्रहार किया और वह जोरसे हँसने तथा गरजने लगा ॥ ४८ ॥
तब उसे गरजता हुआ देखकर भगवती क्रोधित हो गयीं और उन्होंने तुरंत अपनी तेज धारवाली तलवारसे उसका मस्तक काट डाला ॥ ४९ ॥
सिर कट जानेपर भी वह मस्तकविहीन बलशाली ताम्र मूसल लिये हुए कुछ क्षणतक घूमता रहा, इसके बाद वह समरांगणमें गिर पड़ा ॥ ५० ॥
ताम्रको गिरा हुआ देखकर महाबली चिक्षुराख्य खड्ग लेकर बड़े वेगसे चण्डिकाकी ओर झपटा ॥ ५१ ॥
हाथमें तलवार लिये उस दानवको रणमें अपनी ओर आते देखकर देवीने भी तुरंत पाँच बाणोंसे उसपर प्रहार किया ॥ ५२ ॥
भगवतीने एक बाणसे उसका खड्ग काट दिया, दूसरेसे उसका हाथ काट दिया और अन्य बाणोंसे उसका मस्तक कण्ठसे अलग कर दिया ॥ ५३ ॥
इस प्रकार युद्धके लिये उन्मत्त रहनेवाले उन दोनों क्रूर राक्षसोंका वध हो गया, तब उन दोनोंकी सेना भयभीत होकर चारों दिशाओंमें शीघ्रतापूर्वक भाग चली ॥ ५४ ॥
उन दोनों दानवोंको रणमें मारा गया देखकर आकाशमें विराजमान सम्पूर्ण देवता आह्लादित हो गये और प्रसन्नतापूर्वक भगवतीकी जयध्वनि करते हुए फूलोंकी वर्षा करने लगे। ऋषि, देवता, गन्धर्व, वेताल, सिद्ध और चारण-वे सब ‘देवीकी जय, अम्बिकाकी जय’ ऐसा बार-बार | बोलने लगे ॥ ५५-५६ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ताम्रचिक्षुराख्यवधवर्णनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥

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