:-व्यासजी बोले- इस प्रकार वरदान पानेके कारण अभिमानयुक्त उस महाबली दानव महिषासुरने राज्य प्राप्त करके सम्पूर्ण जगत्को अपने अधीन कर लिया ॥ १ ॥
उसने समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीको अपने बाहुबलसे जीतकर शत्रु-समुदायसे रहित कर दिया तथा वह निर्भय होकर एकच्छत्र राज्य करने लगा ॥ २ ॥
उसका सेनाध्यक्ष चिक्षुर महापराक्रमी एवं मदमत्त था। ताम्र उसका कोषाध्यक्ष था, जिसके पास दस हजार सैनिक थे ॥ ३ ॥
उस समय असिलोमा, उदर्क, बिडालाख्य, बाष्कल, त्रिनेत्र तथा बलोन्मत्त कालबन्धक-इन दानवोंने अपनी-अपनी विशाल सेनाओंके साथ सागरान्त समृद्धिशालिनी पृथ्वीको घेरकर राज्य स्थापित किया ॥ ४-५ ॥
जो पुराने नरेश थे, वे भी अब महिषासुरको कर देने लगे। उनमें भी जो स्वाभिमानी थे और क्षात्र- धर्मानुसार जिन्होंने उसका सामना किया, वे मार डाले गये ॥ ६ ॥
हे महाराज ! सम्पूर्ण भूमण्डलपर ब्राह्मणलोग महिषासुरके अधीन हो गये और उसे यज्ञभाग देने लगे ॥ ७ ॥
इस प्रकार एकच्छत्र राज्य स्थापित करके वरदानसे गर्वित वह महिषासुर स्वर्गपर भी विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा करने लगा ॥ ८ ॥
महिषासुरने इन्द्रके पास अपना एक दूत भेजा। उस दैत्यराजने दूतको बुलाकर उससे कहा- हे वीर ! जाओ, हे महाबाहो ! तुम मेरा दूतकार्य करो। हे अनघ ! तुम निडर होकर स्वर्गमें देवताओंके पास जाकर वहाँ इन्द्रसे कहो – हे सहस्राक्ष ! तुम स्वर्ग छोड़ दो और अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहो, शीघ्र चले जाओ। अथवा हे देवेश! महान् महिषासुरकी सेवा करो ॥ ९-११ ॥
यदि तुम राजा महिषासुरकी शरणागति स्वीकार कर लो तो वे तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे। अतएव हे इन्द्र ! तुम महिषासुरकी शरणमें चले जाओ ॥ १२ ॥
अन्यथा हे बलसूदन ! युद्धके लिये शीघ्र ही अपना वज्र उठा लो। हमारे पूर्वजोंने तुम्हें पराजित किया है, अतएव हम तुम्हारा पुरुषार्थ जानते हैं ।॥ १३ ॥
अहल्याके साथ अनाचार करनेवाले तथा देवसमुदायके अधिपति हे इन्द्र ! मैं तुम्हारे बलसे भलीभाँति परिचित हूँ। तुम मेरे साथ युद्ध करो अथवा जहाँ तुम्हारा मन करे, वहाँ चले जाओ ॥ १४॥
व्यासजी बोले- हे नृपश्रेष्ठ ! दूतका वचन सुनकर इन्द्र कुपित हो उठे; फिर भी उन्होंने मुसकराकर दूतसे कहा- हे मन्दबुद्धि ! मैं यह नहीं जान पा रहा हूँ कि तुम अभिमानके मदमें इतना चूर क्यों हो गये हो ! मैं तुम्हारे स्वामी महिषासुरके अभिमानरूपी इस रोगकी चिकित्सा अवश्य करूँगा।
इसके बाद मैं इस रोगको जड़से नष्ट कर दूँगा। हे दूत ! अब तुम जाओ और उस महिषासुरसे मेरी कही गयी बात बता दो। शिष्टजनोंको चाहिये कि दूतोंका वध न करें, अतः मैं तुम्हें छोड़ दे रहा हूँ ॥ १५-१७३ ॥
[वहाँ जाकर मेरी तरफसे उससे कह देना -] हे महिषीपुत्र ! यदि तुम्हारी युद्ध करनेकी इच्छा हो तो शीघ्र आ जाओ। हे महिषासुर ! तुम तो घास खानेवाले जड प्रकृतिके जीव हो।
अतः मुझे तुम्हारा बल ज्ञात है। मैं तुम्हारी सींगोंसे एक सुदृढ़ धनुष बनाऊँगा। तुम्हारे अभिमानका कारण मुझे विदित है। तुम्हें अपनी सींगोंके बलपर गर्व है, अतएव तुम्हारी सींगोंको काटकर मैं उस अभिमानबलको समाप्त कर दूँगा।
हे महिषाधम ! जिन सींगोंके बलपर तुम गर्वोन्मत्त हो तथा अपनेको सर्वसमर्थ समझते हो, केवल उन्हींसे आघात करनेमें तुम कुशल हो; युद्ध करनेमें तुम दक्ष नहीं हो सकते ॥ १८-२१ ॥
व्यासजी बोले- देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर वह दूत तत्काल वहाँसे चल दिया। वह उन्मत्त महिषासुरके पास पहुँचा और उसे प्रणाम करके कहने लगा- ॥ २२ ॥
दूत बोला- हे राजन् ! वह देवराज इन्द्र आपको कुछ भी नहीं समझ रहा है। देवसेनासे सम्पन्न होनेके कारण वह अपनेको पूर्ण बलवान् मानता है ॥ २३ ॥
उस मूर्खने जो कुछ कहा है, उसके अतिरिक्त दूसरी बात मैं कैसे कहूँ ? सेवकको अपने स्वामीके समक्ष सत्य तथा प्रिय वाणी बोलनी चाहिये ॥ २४ ॥
कल्याणकी इच्छा रखनेवाले सेवकको अपने स्वामीके आगे सदा सत्य तथा प्रिय वचन बोलना चाहिये। हे महाराज! यही नीति संसारमें सदासे कल्याणप्रद होती आयी है ॥ २५ ॥
किंतु यदि केवल प्रिय लगनेवाली बात ही कहूँ तो इससे आपका कार्य सिद्ध नहीं होगा। साथ ही अपना कल्याण चाहनेवाले सेवकको अपने स्वामीसे कठोर बात कभी नहीं कहनी चाहिये ॥ २६ ॥
हे नाथ! शत्रुके मुखसे जिस तरहकी विषतुल्य बातें निकलती हैं, उस तरहकी बातें सेवकके मुखसे कैसे निकल सकती हैं? ॥ २७ ॥
हे पृथ्वीपते ! इन्द्रने जिस प्रकारके वाक्य बोले हैं, उन्हें कह सकनेमें मेरी जिह्वा कभी भी समर्थ नहीं है ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले- उस दूतका रहस्यपूर्ण वचन सुनकर घास खानेवाले महिषासुरका मन पूर्णरूपसे क्रोधके वशीभूत हो गया ॥ २९ ॥
सभी दैत्योंको बुलाकर क्रोधके मारे लाल आँखोंवाला महिषासुर अपनी पूँछ पीठपर रख करके मूत्र त्याग करते हुए उनसे कहने लगा-हे दैत्यो ! वह इन्द्र निश्चय ही युद्ध करना चाहता है। अतः तुमलोग सेना संगठित करो। हमें उस देवाधमको जीतना है ॥ ३०-३१ ॥
मेरे सम्मुख भला कौन पराक्रमी बन सकता है? यदि उस इन्द्रके समान करोड़ों लोग मेरे सामने आ जायँ तो भी मैं नहीं डरूंगा, तब उस अकेले इन्द्रसे कैसे डर सकता हूँ ? उसको तो मैं अब निश्चितरूपसे मार डालूँगा ॥ ३२ ॥
वह इन्द्र शान्त स्वभाववाले लोगोंपर अपने पराक्रमका प्रदर्शन तथा तपस्वियोंपर अपने बलका प्रयोग करता है। वह मायावी, व्यभिचारी तथा दूसरेकी स्त्रीका हरण करनेवाला है ॥ ३३ ॥
वह दुष्ट अपनी अप्सराओंके बलबूते दूसरोंकी तपस्यामें विघ्न डालता है, शत्रुकी कमजोरी देखकर अवसरवादिताका लाभ उठाकर उसपर प्रहार करता है, वह सदासे पापकृत्योंमें रत रहनेवाला तथा घोर विश्वासघात करनेवाला है ॥ ३४ ॥
भयके मारे उस छली इन्द्रने पहले विश्वास- प्रदर्शनके लिये अनेक प्रकारकी शपथें खाकर नमुचि नामक दैत्यसे सन्धि स्थापित की, किंतु बादमें उस दुष्टात्माने छलपूर्वक नमुचिको मार डाला ॥ ३५ ॥
विष्णु तो कपटका आचार्य, मायावी, झूठी प्रतिज्ञाएँ करनेमें बड़ा ही कुशल, बहुरूपिया, सैन्य- बलका संचय करनेवाला तथा महान् पाखण्डी है। उसीने सूकरका रूप धारणकर हिरण्याक्षका वध कर डाला और नृसिंहका रूप धारणकर हिरण्यकशिपुका संहार किया ॥ ३६-३७ ॥
अतएव हे दनुके वंशजो! मैं उसका वशवर्ती कभी भी नहीं होऊँगा और देवताओंका कहीं भी कदापि विश्वास नहीं करूँगा ॥ ३८ ॥
विष्णु तथा इन्द्र- ये दोनों मेरा क्या कर लेंगे ? यहाँतक कि उनसे भी अधिक शक्तिशाली रुद्र भी युद्ध-भूमिमें मेरा प्रतीकार कर पानेमें समर्थ नहीं हैं। इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, चन्द्रमा तथा सूर्यको जीतकर मैं स्वर्गपर अधिकार कर लूँगा ॥ ३९-४० ॥
अब हमलोग यज्ञका भाग प्राप्त करेंगे तथा सोमरसका पान करनेवाले होंगे। मैं देवसमुदायको जीतकर दानवोंके साथ विहार करूँगा ॥ ४१ ॥
हे दानवो ! वरदानके कारण मुझे देवताओंका भय नहीं है। पुरुषसे मेरी मृत्यु हो ही नहीं सकती; तब भला स्त्री मेरा क्या कर लेगी ? ॥ ४२ ॥
हे गुप्तचरो ! पातालमें तथा पर्वतोंपर रहनेवाले बड़े-बड़े दानव-वीरोंको तत्काल यहाँ बुलाकर उन्हें मेरी सेनाओंका अध्यक्ष बना दो ॥ ४३ ॥
हे दानवो ! मैं तो अकेला ही समस्त देवताओंको जीतनेमें समर्थ हूँ, फिर भी शोभा बढ़ानेकी दृष्टिसे आप सबको भी बुलाकर देवताओंके साथ होनेवाले संग्राममें ले चलूँगा ॥ ४४ ॥
मैं अपनी सींगों तथा खुरोंसे देवताओंको निश्चितरूपसे मार डालूँगा। वरदानके प्रभावसे मुझे देवताओंसे भय नहीं है ॥ ४५ ॥
देवता, दानव तथा मनुष्य – सभीसे मैं अवध्य हूँ, अतः आप सब देवलोकपर विजय प्राप्त करनेके लिये अब तैयार हो जायँ ॥ ४६ ॥
हे दैत्यो ! देवलोकको जीतकर मैं नन्दनवनमें विहार करूँगा। मन्दारपुष्पकी मालाएँ धारण करके आपलोग देवांगनाओंके साथ रहेंगे, कामधेनुके दुग्धका सेवन करेंगे, प्रसन्नतापूर्वक अमृत-पान करेंगे और देवताओं तथा गन्धर्वोंके गीतों तथा मनमोहक हाव- भाव-युक्त नृत्योंका आनन्द लेंगे ॥ ४७-४८ ॥
उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, प्रमद्वरा, महासेना, मिश्रकेशी, मदोत्कटा, विप्रचित्ति आदि नृत्य तथा गायन-कलामें अति निपुण अप्सराएँ विविध प्रकारके मद्य पिलाकर आप सभीका मनोरंजन करेंगी ॥ ४९-५० ॥
देवताओंके साथ युद्ध करनेके लिये देवलोकके लिये प्रस्थान करना यदि आपलोगोंको उचित लगे तो आप सब उत्तम मंगलाचार सम्पन्न करके आज ही चलनेके लिये तैयार हो जाइये ॥ ५१ ॥
समस्त दानवोंकी रक्षाके लिये मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्यको बुलाकर उनका पूजन करके उन परम गुरुको यज्ञ- कार्यमें नियुक्त कीजिये ॥ ५२ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस प्रकार दानववीरोंको आदेश देकर वह पापबुद्धि महिषासुर प्रसन्नताके साथ | शीघ्र ही अपने भवनको चला गया ॥ ५३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भगवतीमाहात्म्ये दैत्यसैन्योद्योगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥