Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 12(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःद्वादशोऽध्यायःमहात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना)
[अथ द्वादशोऽध्यायः]
व्यासजी बोले- [हे राजन् !] उस भयानक वधको देखकर भगवान् भृगु अत्यन्त कुपित हुए और दुःखसे व्याकुल होकर काँपते हुए वे मधुसूदन विष्णुसे कहने लगे ॥ १ ॥
भृगु बोले – हे महाबुद्धिमान् विष्णो ! जो नहीं करना चाहिये वह पाप आपने जान-बूझकर कर डाला। विप्र-स्त्रीके इस वधकी तो मनसे कल्पना करना भी अनुचित है ॥ २ ॥
आप तो सत्त्वगुणसे सम्पन्न कहे गये हैं, ब्रह्मा रजोगुणी और शिव तमोगुणी बताये गये हैं; तब आपने अपने गुणके विपरीत कार्य क्यों किया ?
आप तामसी कैसे हो गये, जिससे आपने यह घोर निन्दनीय कर्म कर डाला ? हे विष्णो ! आपने उस अवध्य तथा निरपराध स्त्रीको क्यों मार डाला ? ॥ ३-४ ॥
[उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा कि] अब मैं तुझ दुराचारीको शाप दे रहा हूँ, इसके अतिरिक्त तुम्हारा क्या प्रतीकार करूँ ? अरे पापी ! तुमने इन्द्रके हितके लिये मुझे विधुर बना दिया। हे मधुसूदन !
मैं इन्द्रको शाप नहीं दूँगा, बल्कि तुम्हें ही शाप दूँगा। कृष्ण सर्पसदृश दुरभिप्रायवाले तुम सदा छल करनेमें ही तत्पर रहते हो ॥ ५-६ ॥
हे जनार्दन ! जो मुनि तुम्हें सात्त्विक कहते हैं. वे निश्चय ही मूर्ख हैं। मैंने तो प्रत्यक्ष जान लिय कि तुम तमोगुणी तथा दुराचारी हो। अतः हे जनार्दन ! मेरे शापसे मृत्युलोकमें तुम्हारे अनेक अवतार हों और [इस स्त्री-वधजन्य] पापके कारण बार- बार गर्भवाससे होनेवाले दुःखको भोगो ॥ ७-८ ॥
व्यासजी बोले – उसी शापके कारण भगवान् विष्णु धर्मका ह्रास होनेपर संसारके कल्याणके लिये बार-बार मानवरूपोंमें प्रकट होते हैं ॥ ९ ॥
राजा बोले- [हे व्यासजी !] जब अमित तेजस्वी चक्रके द्वारा भृगुपत्नीका वध हो गया. उसके बाद महात्मा भृगुका गार्हस्थ्य-जीवन कैसे व्यतीत हुआ ? ॥ १० ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार रोषपूर्वक भगवान्वि ष्णुको शाप देकर कार्यकुशल महर्षि भृगु तत्काल उस [कटे] सिरको लेकर शीघ्रतापूर्वक [अपनी पत्नीके] धड़में जोड़ करके बोले- हे देवि ! विष्णुके द्वारा तुम मारी जा चुकी हो, किंतु अब मैं तुम्हें फिरसे जीवित कर रहा हूँ।
यदि मैं सम्पूर्ण धर्म जानता हूँ तथा उसका सम्यक् आचरण करता हूँ और सदा सत्य भाषण करता हूँ तो उसी सत्यके प्रभावसे तुम जीवित हो जाओ। सभी देवता मेरे महान् तेज-बलको देख लें।
यदि मुझमें सत्य, पवित्रता, वेदाध्ययन तथा तपस्याका बल होगा तो मैं उन्हींके प्रभावसे शीतल जलसे तुम्हारा प्रोक्षण करके तुम्हें जीवित कर दूँगा ॥ ११-१४॥
व्यासजी बोले- तब जलसे प्रोक्षित करते ही मधुर मुसकानवाली वे भृगुपत्नी शीघ्र ही जीवित हो गयीं और बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उठकर खड़ी हो गयीं ॥ १५ ॥
तब सोकर उठी हुईके समान उसे देखकर सब ओरसे लोग ‘साधु-साधु’ – ऐसा कहकर भृगुमुनि तथा उनकी भार्या दोनोंकी स्तुति करने लगे ॥ १६ ॥
इस प्रकार उन महर्षि भृगुने उस सुन्दरीको जीवित कर दिया। यह देखकर इन्द्रसहित सभी देवता | अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे ॥ १७ ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने देवताओंसे कहा – भृगुमुनिने अपनी साध्वी भार्याको जीवित कर दिया। साथ ही मन्त्रज्ञानी शुक्राचार्य कठोर तपस्या करके [शिवसे मन्त्र प्राप्तकर] पता नहीं क्या कर डालेंगे ! ॥ १८ ॥
व्यासजी बोले- हे राजन् ! मन्त्रप्राप्तिके लिये शुक्राचार्यके अत्यन्त कठोर तपका स्मरण करके इन्द्रकी नींद समाप्त हो गयी और उनके शरीरमें व्याकुलता होने लगी ॥ १९ ॥
तब मनमें भली-भाँति विचार करके इन्द्रने सुन्दर स्वरूपवाली अपनी पुत्री जयन्तीसे मुसकराते हुए कहा- हे पुत्रि! मैंने तुम्हें तपस्वी शुक्राचार्यको सौंप दिया। अतः हे तन्वंगि!
अब तुम जाओ और मेरे कल्याणके लिये उनकी सेवा करो और उन्हें वशमें कर लो। उस उत्तम आश्रममें शीघ्र जाकर उनके मनको प्रिय लगनेवाले विविध उपचारोंसे उन्हें प्रसन्न करके मेरा भय दूर करो ॥ २०-२२ ॥
विशाल नयनोंवाली वह सुन्दर कन्या पिताकी बात सुनकर [शुक्राचार्यके] आश्रममें गयी और वहाँपर उसने मुनिको [नीचेकी ओर सिर करके] धुएँका सेवन करते हुए देखा ॥ २३ ॥
तब उनके [तपोरत] शरीरको देखकर और पिताकी बात याद करके वह केलेका एक पत्ता लेकर मुनिको पंखा झलने लगी ॥ २४ ॥
तबसे वह उनके पीनेके लिये अत्यन्त स्वच्छ, शीतल, सुगन्धित तथा रुचिकर जल ले आकर [ उनके समक्ष] श्रद्धापूर्वक उपस्थित किया करती। सूर्यके मध्य आकाशमें होते ही वह सुन्दरी उनके ऊपर वस्त्रसे छतरी बनाकर छाया कर देती थी। वह साध्वी सदा पातिव्रत्य धर्मका पालन करती थी ॥ २५-२६ ॥
वह शास्त्रविहित दिव्य, पके तथा मीठे फल लाकर खानेके लिये उन मुनिके समक्ष रख देती थी। वह कन्या उनके नित्यकर्मके सम्पादनार्थ पुष्प और तोतेके वर्णके समान प्रादेशमात्र मापवाले हरे-हरे कुश उनके आगे प्रस्तुत कर देती थी।
उनके शयनके लिये वह कोमल-कोमल पत्तोंका बिछौना तैयार करती थी और फिर उन मुनिके प्रति आदरभाव रखकर धीरे- धीरे पंखा झलने लगती थी ॥ २७-२९ ॥
मुनिके शापसे भयभीत होकर वह जयन्ती उनके मनमें विकार उत्पन्न करनेवाला कोई हाव-भाव प्रदर्शित नहीं करती थी ॥ ३० ॥
सुकुमार अंगोंवाली तथा मृदुभाषण करनेवाली वह कन्या उन महात्माके मनके अनुकूल तथा प्रीति उत्पन्न करनेवाले शब्दोंसे उनकी स्तुति करती थी।
तत्पश्चात् उनके जाग जानेपर आचमनके लिये जल लाकर रख देती थी। इस प्रकार सदा उनके मनके अनुकूल कार्य करती हुई उनके साथ व्यवहार करती थी ॥ ३१-३२ ॥
चिन्तासे व्याकुल इन्द्र भी उन जितेन्द्रिय मुनिकी प्रवृत्ति जाननेकी इच्छासे अपने सेवक भेजते रहते थे ॥ ३३ ॥
इस प्रकार वह साध्वी कन्या क्रोधपर विजय प्राप्त करके, निर्विकार होकर तथा ब्रह्मचर्यपरायण रहती हुई बहुत वर्षोंतक मुनिकी सेवामें संलग्न रही ॥ ३४ ॥
तदनन्तर हजार वर्ष पूर्ण होनेपर महेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक वे शुक्राचार्यसे वर माँगनेके लिये कहने लगे ॥ ३५ ॥
ईश्वर बोले – हे ब्रह्मन् ! हे भृगुनन्दन ! जगत्में जो कुछ भी विद्यमान है, आप जो सब देख रहे हैं तथा जो किसीकी भी वाणीका विषय नहीं है-उन सबके स्वामित्वसे आप युक्त हो जायँगे; इसमें कोई सन्देह नहीं है। आप सभी प्राणियोंसे अवध्य होंगे। आप प्रजाओंके स्वामी तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे ॥ ३६-३७॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार वर प्रदान करके शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् जयन्तीको देखकर शुक्राचार्यने उससे कहा- हे सुश्रोणि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो; मुझे अपनी अभिलाषा बताओ।
हे सुन्दरि ! तुम यहाँ किसलिये आयी हो, अपना कार्य बताओ। हे सुनयने ! तुम क्या चाहती हो; यदि वह कार्य दुष्कर भी हो तो भी मैं उसे अभी कर दूँगा। हे सुव्रते ! आज मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ, अतः वर माँग लो ॥ ३८-४० ॥
तदनन्तर प्रसन्न मुखमण्डलवाली जयन्तीने मुनिसे कहा- हे भगवन् ! आप तो अपनी तपस्यासे मेरा अभिलषित जान लेनेमें समर्थ हैं ॥ ४१ ॥
शुक्राचार्य बोले- वह तो मैंने जान लिया, फिर भी जो तुम्हारा मनोभिलषित है, उसे तुम मुझे बताओ। मैं हर तरहसे तुम्हारा कल्याण करूँगा; क्योंकि मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ ॥ ४२ ॥
जयन्ती बोली- हे ब्रह्मन् ! मैं इन्द्रकी पुत्री हूँ और पिताजीने मुझे आपको सौंप दिया है। हे मुने ! मेरा नाम जयन्ती है और मैं जयन्तकी छोटी बहन हूँ ॥ ४३ ॥
हे विभो ! मैं आपपर आसक्त हूँ, अतः मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये। हे महाभाग ! मैं पातिव्रत- धर्मके अनुसार प्रेमपूर्वक आपके साथ विहार करूँगी ॥ ४४ ॥
शुक्राचार्य बोले- हे सुश्रोणि ! हे भामिनि ! तुम सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहती हुई दस वर्षांतक इच्छानुसार मेरे साथ यहाँ विहार करो ॥ ४५ ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर शुक्राचार्यने घर जाकर जयन्तीके साथ विवाह किया। तत्पश्चात् मायासे आच्छादित होकर सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहते हुए वे ऐश्वर्यसम्पन्न मुनि शुक्राचार्य देवी जयन्तीके साथ दस वर्षोंतक वहाँ रहे ॥ ४६३ ॥
गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल हो मन्त्रसे युक्त होकर आया हुआ सुनकर सभी दैत्य उनके दर्शनकी इच्छासे प्रसन्नतापूर्वक उनके घर गये, किंतु वे उन्हें देख न सके; क्योंकि उस समय वे जयन्तीके साथ विहार कर रहे थे ॥ ४७-४८ ॥
इससे उन सभी दैत्योंका मन उदास हो गया और उनके सभी उद्योग व्यर्थ हो गये। वे बहुत चिन्तित और दुःखी होकर उन्हें बार-बार खोजते रहे। अन्तमें [मायासे] आच्छादित उन मुनिको न देखकर वे चिन्तित तथा भयभीत दैत्य जैसे आये थे वैसे ही अपने घर लौट गये ॥ ४९-५० ॥
तत्पश्चात् शुक्राचार्यको विहार करता हुआ जानकर इन्द्रने अपने गुरु महाभाग बृहस्पतिसे कहा-अब क्या किया जाय ?॥ ? ॥ ५१। ॥
हे ब्रह्मन् ! आप दानवोंके पास जाइये और मायाके द्वारा उन्हें मोहमें डाल दीजिये। हे मानद ! बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके आप हमारा कार्य सिद्ध कर दीजिये ॥ ५२ ॥
इन्द्रकी बात सुनकर देवगुरु बृहस्पति शुक्राचार्यको मायाच्छादित होनेके कारण [अदृश्य हो जयन्तीके साथ] क्रीडा करते जानकर उन्हींका रूप धारण करके दैत्योंके पास गये ॥ ५३ ॥
वहाँ पहुँचकर उन्होंने बड़े आदरके साथ दानवोंको बुलवाया। तब सभी दानव आ गये और उन्होंने शुक्राचार्यको अपने सम्मुख देखा ॥ ५४॥
मायासे विमोहित सभी दैत्य [उन छद्मवेषधारी देवगुरु बृहस्पतिको ही] शुक्राचार्य समझकर उन्हें प्रणाम करके उनके समक्ष खड़े हो गये। वे शुक्राचार्यका कृत्रिम रूप प्रकट करनेवाली देवगुरु बृहस्पतिकी मायाको नहीं जान सके ॥ ५५ ॥
तत्पश्चात् छद्म मायासे शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले गुरु बृहस्पतिने उनसे कहा- मेरे यजमानोंका स्वागत है। मैं आपलोगोंके हितके लिये अब आ गया हूँ। मैंने आप सबके कल्याणके लिये तपस्याके द्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न कर लिया और अब मैं उनसे प्राप्त विद्याको निष्कपट भावसे आपलोगोंको बता दूँगा ॥ ५६-५७ ॥
यह सुनकर वे श्रेष्ठ दानव प्रसन्नचित्त हो गये। गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल समझकर वे मोहग्रस्त दानव बहुत हर्षित हुए और उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें प्रणाम किया। वे भयमुक्त तथा सन्तापरहित हो गये। अब देवताओंका भय छोड़कर वे सभी दैत्य स्वस्थचित्त होकर रहने लगे ॥ ५८-५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां चतुर्थस्कन्धे जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥