:-व्यासजी बोले- तत्पश्चात् देवताओंके चले जानेपर शुक्राचार्यने उन दैत्योंसे कहा- हे श्रेष्ठ दानवो ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे जो कहा था, उसे तुमलोग सुनो।
दैत्योंके वधके लिये भगवान् विष्णु सदा प्रयत्नरत रहते हैं, वे दैत्योंका वध अवश्य करेंगे। जैसे वाराहका रूप धारण करके उन्होंने हिरण्याक्षका वध किया और नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुको मारा, उसी प्रकार उत्साहसम्पन्न होकर वे सब दैत्योंका संहार करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १-३॥
मुझे जान पड़ता है कि वैसा समुचित मन्त्रबल अभी मेरे पास नहीं है, जिससे मेरे द्वारा सुरक्षित होकर तुमलोग इन्द्र तथा देवताओंको जीतनेमें समर्थ हो सको। अतः हे श्रेष्ठ दानवगण !
तुमलोग कुछ समयतक प्रतीक्षा करो। मैं मन्त्रसिद्धिके लिये आज ही भगवान् शिवके पास जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ दानवो ! महादेवजीसे मन्त्र लेकर मैं तत्काल आऊँगा और यथावत् रूपमें तुमलोगोंको सिखा दूँगा ॥ ४-६ ॥
दैत्योंने कहा- हे मुनिश्रेष्ठ ! देवताओंसे पराजित होकर हमलोग अत्यन्त निर्बल हो गये हैं, अतः उतने समयतक प्रतीक्षा करनेके लिये हम पृथ्वीपर रहनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? सभी पराक्रमी दानव मारे जा चुके हैं और जो शेष बचे हुए हैं, सुखकी इच्छा करनेवाले वे अब युद्धमें ठहरनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ ७-८ ॥
शुक्राचार्य बोले – जबतक मैं शिवजीसे मन्त्रविद्या लेकर नहीं आता हूँ, तबतक तुमलोग शान्ति और तपस्यासे युक्त होकर यहीं रुके रहो ॥ ९ ॥
विद्वानोंने कहा है कि समयानुसार साम, दान आदिका प्रयोग करना चाहिये। बुद्धिमान् तथा वीर पुरुष देश, काल, बल, शक्ति और सेनाकी जानकारी करके ही अपना सामर्थ्य दिखाते हैं ॥ १०॥
बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि अपने कल्याणकी इच्छासे समयपर शत्रुओंकी भी सेवा करे और अपनी शक्तिका संचय हो जानेपर उन्हें मार डाले ॥ ११ ॥
अतः देवताओंकी विनती करके छलपूर्वक सामनीतिका प्रयोग करते हुए मेरे लौटनेकी प्रतीक्षाके साथ अपने-अपने घरोंमें रहो ॥ १२ ॥
हे दानवो ! महादेवजीसे मन्त्र प्राप्त करके मैं आऊँगा और तब उसी मन्त्रबलका आश्रय लेकर हमलोग देवताओंसे युद्ध करेंगे ॥ १३ ॥
हे महाराज ! उन दानवोंसे ऐसा कहकर दृढ़ संकल्पवाले मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्य मन्त्रप्राप्तिके लिये शिवजीके पास चले गये ॥ १४ ॥
तदनन्तर दैत्योंने सत्यवादी, धैर्यवान् तथा देवताओंके विश्वासपात्र प्रह्लादको देवताओंके पास भेजा ॥ १५ ॥
असुरोंके साथ वहाँ जाकर राजा प्रह्लाद विनय- सम्पन्न होकर देवताओंसे नम्रतायुक्त वचन बोले। हे देवताओ ! हम सभी लोगोंने शस्त्र रख दिये हैं और कवचका त्याग कर दिया है। अब हम वल्कल धारण करके तपस्या करेंगे ॥ १६-१७ ॥
प्रह्लादका वचन सुनकर देवताओंने उसे सत्य मान लिया और इसके बाद वे निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे लौट गये ॥ १८ ॥
तब दैत्योंके शस्त्र त्याग देनेपर देवता युद्धसे विरत हो गये और चिन्तारहित होकर अपने-अपने घर जाकर स्वस्थचित्त हो क्रीडाविलासमें संलग्न हो गये ॥ १९ ॥
उस समय दैत्यगण पाखण्डका सहारा लेकर तपस्वीके रूपमें तपस्यारत होकर शुक्राचार्यके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए कश्यपमुनिके आश्रममें रहने लगे ॥ २० ॥
उधर, मुनि शुक्राचार्यने कैलासपर्वतपर पहुँचकर शंकरजीको प्रणाम किया। भगवान् शिवके पूछनेपर कि ‘आपका क्या कार्य है?’ – उन्होंने कहा- हे देव !
मैं देवताओंकी पराजय और असुरोंकी विजयके लिये उन मन्त्रोंको चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके | भी पास न हों ॥ २१-२२ ॥
व्यासजी बोले- उनका वचन सुनकर सर्वज्ञ और कल्याणकारी भगवान् शिव मनमें सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ?
ये दैत्यगुरु शुक्राचार्य देवताओंके प्रति द्रोह-बुद्धिसे युक्त होकर उन दैत्योंकी विजयके लिये मन्त्रहेतु इस समय यहाँ आये हैं,
अतः मुझे देवताओंकी रक्षा करनी चाहिये – ऐसा सोचकर शिवजीने उन्हें यह अत्यन्त कठोर और दुष्कर व्रत करनेको कहा- पूरे एक हजार वर्षोंतक यदि आप सिर नीचे करके कणधूम (भूसीके धुएँ) – का पान करेंगे, तभी आपका कल्याण होगा और आप मन्त्र प्राप्त कर सकेंगे ॥ २३-२६ ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर उन्होंने महेश्वरको प्रणाम करके यह वचन कहा- ‘बहुत अच्छा’, हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपने मुझे जो आदेश दिया है, मैं उस व्रतका पालन करूँगा ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले – शिवजीसे ऐसा कहकर मन्त्रप्राप्तिके लिये दृढ़संकल्प शुक्राचार्यजी शान्त होकर धुएँका सेवन करते हुए कठोर व्रत करने लगे ॥ २८ ॥
तब उस समय शुक्राचार्यको व्रतमें संलग्न तथा दैत्योंको [तपस्वी बनकर] पाखण्डमें निरत देखकर देवता लोग आपसमें मन्त्रणा करने लगे ॥ २९ ॥
हे राजन् ! भलीभाँति विचार करके सभी देवता संग्रामके लिये उद्यत हो गये और शस्त्रास्त्र धारणकर वहाँ पहुँच गये, जहाँ वे बड़े-बड़े दानव विद्यमान थे ॥ ३० ॥
तदनन्तर दैत्यगण उन आये हुए देवताओंको आयुधोंसे सज्जित और कवच धारण किये तथा अपनेको उनसे सब ओरसे घिरा देखकर भयसे व्याकुल हो उठे ॥ ३१ ॥
वे भयातुर दानव तुरंत उठकर खड़े हो गये और युद्धके लिये उद्यत बलाभिमानी देवताओंसे सारगर्भित वचन कहने लगे – हमने शस्त्र रख दिये हैं, हम भयभीत हैं और हमारे आचार्य इस समय व्रतमें संलग्न हैं। हे देवताओ ! पहले अभयदान देकर | भी आप लोग हमें मारनेकी इच्छासे आ गये। हे
देवगण ! आप लोगोंका सत्य और श्रुतिसम्मत वह धर्म कहाँ चला गया कि ‘जो शस्त्र रख चुके हों, भयभीत हों और शरणागत हो गये हों, उन्हें नहीं मारना चाहिये ‘ ॥ ३२-३४॥
देवता बोले – आप लोगोंने छलसे शुक्राचार्यको मन्त्र प्राप्त करनेके लिये भेजा है। हम आपलोगोंके तपको जान गये हैं, इसीलिये हमलोग युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए हैं ॥ ३५ ॥
अब क्षुब्ध हुए आपलोग भी हाथोंमें शस्त्र धारणकर युद्धके लिये तैयार हो जाइये। यह सनातन सिद्धान्त है कि जब शत्रु दुर्बल हो, तभी उसे मार डालना चाहिये ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले- उनका वचन सुनकर सभी दैत्य आपसमें विचार करके भागनेके लिये तत्पर हो गये और भयसे व्याकुल होकर वहाँसे निकल भागे ॥ ३७ ॥
वे भयभीत दैत्य शुक्राचार्यकी माताकी शरणमें गये। उन दैत्योंको बहुत सन्तप्त देखकर उन्होंने अभय प्रदान कर दिया ॥ ३८ ॥
शुक्राचार्यकी माताने कहा- हे दानवगण ! डरो मत, डरो मत; तुम लोग भय छोड़ दो। मेरे पास रहनेवालोंको भय हो ही नहीं सकता ॥ ३९ ॥
यह वचन सुनकर दैत्योंकी व्यथा दूर हो गयी और वे शस्त्रास्त्र त्यागकर पूर्ण रूपसे निश्चिन्त हो वहींपर उनके उत्तम आश्रममें रहने लगे ॥ ४० ॥
तब दैत्योंको पलायित देखकर वे देवता उनके पैरोंके चिह्नोंके पीछे-पीछे जाते हुए उनके बलाबलका बिना विचार किये हठात् उनके पास पहुँच गये ॥ ४१ ॥
वहाँपर आये हुए सभी देवता आश्रममें रहनेवाले दैत्योंका वध करनेको उद्यत हो गये और शुक्राचार्यकी माताके रोकनेपर भी उन दैत्योंको मारने लगे ॥ ४२ ॥
इस प्रकार देवताओंके द्वारा उन्हें मारे जाते हुए देखकर शुक्राचार्यकी माता बहुत काँपने लगीं और बोलीं- मैं अभी समस्त देवताओंको अपने तपके | प्रभावसे निद्राग्रस्त कर दे रही हूँ ॥ ४३ ॥
ऐसा कहकर उन्होंने निद्राको प्रेरित किया। उस निद्राने देवताओंके पास आकर उनपर अपना प्रभाव डाल दिया, जिससे इन्द्रसहित सभी देवता निद्राके वशीभूत हो गये और गूँगेकी भाँति पड़े रहे ॥ ४४ ॥
इन्द्रको निद्राके द्वारा नियन्त्रित तथा दीन देखकर भगवान् विष्णुने कहा- हे देवश्रेष्ठ ! तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें अन्यत्र पहुँचाता हूँ ॥ ४५ ॥
विष्णुके इस प्रकार कहनेपर इन्द्र उनमें प्रवेश कर गये और उन श्रीहरिसे रक्षित होकर वे निर्भय तथा निद्रारहित हो गये ॥ ४६ ॥
तब भगवान् विष्णुके द्वारा रक्षित इन्द्रको व्यथाशून्य देखकर शुक्राचार्यकी माता कुपित हो उठीं और यह वचन बोलीं- हे इन्द्र ! सभी देवताओंके देखते-देखते मैं अपने तपोबलसे विष्णुसहित तुम्हें खा जाऊँगी; ऐसा मेरा तपोबल है ॥ ४७-४८ ॥
व्यासजी बोले – ऐसा कहकर उन्होंने अपनी योगविद्याके द्वारा इन्द्र तथा विष्णुको आक्रान्त कर दिया और वे दोनों महात्मा स्तब्ध हो गये ॥ ४९ ॥
उन दोनोंको बहुत बड़े संकटमें पड़ा देखकर देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ और वे दुःखीचित्त हो जोर-जोरसे चीखने-चिल्लाने लगे ॥ ५०॥
देवताओंको चीखते-चिल्लाते देखकर इन्द्रने विष्णुसे कहा- हे मधुसूदन ! मैं [इस समय] आपकी अपेक्षा अधिक आक्रान्त हूँ।
अतः हे विष्णो ! हे प्रभो ! यह हमें जबतक भस्म न कर दे, आप तपस्याके अभिमानमें चूर इस दुष्टाको शीघ्रतापूर्वक मार डालिये। हे माधव ! अब आप सोच-विचार न करें ॥ ५१-५२॥
कीर्तिमान् इन्द्रके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने दया छोड़कर तत्काल सुदर्शन चक्रका स्मरण किया। विष्णुके वशमें रहनेवाला वह चक्र उनके स्मरण करते ही आ पहुँचा और इन्द्रसे प्रेरित होकर उन्होंने कुपित हो उसके वधके लिये | चक्रको अपने हाथमें ले लिया ॥ ५३-५४॥
उस चक्रको हाथमें लेकर भगवान् विष्णुने बड़े वेगसे उसका सिर काट दिया। तब उसे मृत देखकर इन्द्र हर्षित हो उठे। सभी देवता भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विष्णुकी जयकार करने लगे। वे प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और सन्तापरहित हो गये ॥ ५५-५६ ॥
स्त्रीवधसे [होनेवाले पाप] तथा भृगुमुनिके भीषण शापकी शंका करते हुए वे भगवान् विष्णु तथा | इन्द्र उसी समयसे दुःखीचित्त रहने लगे ॥ ५७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां चतुर्थस्कन्धे शुक्रमातुर्वधवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥