Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 5(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःपञ्चमोऽध्यायःनर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना)

Devi bhagwat puran skandh 4 chapter 5(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण चतुर्थः स्कन्धःपञ्चमोऽध्यायःनर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना)

[अथ पञ्चमोऽध्यायः]

:-व्यासजी बोले- हे नृपोत्तम ! अब अधिक कहनेसे क्या लाभ ? इस संसारमें कहीं बिरला ही ऐसा कोई धर्मात्मा पुरुष होगा जो द्रोहभावसे रहित हो। यह चर-अचर सम्पूर्ण संसार राग-द्वेषसे ओत- प्रोत है। हे राजेन्द्र ! सत्ययुगमें भी यह संसार ऐसा ही था, तब कलिसे दूषित इसके विषयमें क्या कहा जाय ? ॥ १-२ ॥

हे राजन् ! जब देवता भी सदा ईर्ष्यायुक्त, द्रोहसे भरे हुए और छल-परायण रहते हैं, तब मनुष्य तथा पशु-पक्षियोंकी बात ही क्या है? यदि कोई मनुष्य द्रोह करनेवालेके प्रति द्रोहभाव रखे तो यह समानताकी बात है, किंतु द्रोह न करनेवाले तथा शान्त स्वभाववालेके | प्रति विद्वेष रखनेको नीचता कहा गया है ॥ ३-४ ॥

 

यदि कोई तपस्वी शान्त होकर जप-ध्यानमें लीन हो जाता है तो इन्द्र उसके जपमें विघ्न डालनेहेतु तत्पर हो जाते हैं ॥ ५ ॥

सज्जन पुरुषोंके लिये हर समय सत्ययुग दिखलायी पड़ता है और दुष्ट लोगोंके लिये सर्वदा कलियुग ही रहता है। जिस युगमें क्रिया तथा योग व्यवस्थित रहते हैं, वे द्वापर तथा त्रेतारूप मध्यम युग मध्यम कोटिके लोगोंके लिये कहे गये हैं ॥ ६ ॥

अतः किसी समय भी कोई सत्यधर्मा हो सकता है अथवा सभी युगोंमें जो चाहे धर्मपरायण हो सकता है। हे राजन् ! सर्वत्र धर्मकी स्थितिमें वासना ही प्रधान कारण मानी गयी है। उसमें मलिनता आ जानेपर धर्म भी मलिन हो जाता है। मलिन वासना विनाशके लिये होती है; यह सर्वथा सत्य है ॥ ७-८३ ॥

ब्रह्माजीके हृदयसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो धर्म-इस नामसे कहा गया। वह ब्राह्मण सत्यसम्पन्न और वैदिक धर्ममें सदा संलग्न रहनेवाला था।

 

उस गृहस्थधर्मी महात्मा मुनिने पाणिग्रहणकी विधिसे दक्षप्रजापतिकी दस कन्याओंका सम्यक् रूपसे वरण किया।

 

सत्यव्रतियोंमें श्रेष्ठ उस धर्मने उनसे ‘हरि’. ‘कृष्ण’, ‘नर’ और ‘नारायण’ नामक चार पुत्र उत्पन्न किये। हे राजन् ! उनमें ‘हरि’ और ‘कृष्ण’ ये दोनों योगाभ्यास करने लगे तथा नर और नारायण ये दोनों हिमालयपर्वतके शिखरपर जाकर ‘बदरिकाश्रम’ तीर्थमें कठिन तपस्या करने लगे ॥ ९-१३॥

वे प्राचीन मुनिश्रेष्ठ नर और नारायण तपस्वियोंमें सबसे प्रधान थे। गंगाके विस्तृत तटपर रहकर ब्रह्मचिन्तन करते हुए भगवान् विष्णुके अंशावतार नर-नारायणने वहाँ पूरे एक हजार वर्षांतक कठोर तप किया। उनके तपसे चराचरसहित सम्पूर्ण संसार सन्तप्त हो गया। इससे इन्द्रके मनमें नर-नारायणके प्रति क्षोभ उत्पन्न हो गया ॥ १४-१६ ॥

तब चिन्तित होकर इन्द्रने अपने मनमें सोचा- अब मुझे क्या करना चाहिये ? ये धर्मपुत्र नर-नारायण तपस्वी तथा ध्यानपरायण हैं। ये पूर्णरूपसे सिद्ध होकर मेरा श्रेष्ठ आसन ग्रहण कर लेंगे, अतः किस प्रकार विघ्न उत्पन्न करूँ, जिससे तप न कर सकें ॥ १७-१८ ॥

 

अब इनके मनमें काम, क्रोध अथवा अत्यन्त भीषण लोभ उत्पन्न करके तपमें विघ्न करना चाहिये। यह विचारकर इन्द्र अपने उत्तम ऐरावत हाथीपर सवार होकर उनके तपमें विघ्न डालनेकी इच्छासे गन्धमादनपर्वतपर शीघ्रतापूर्वक जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने उस पवित्र आश्रममें तप करते हुए नर- नारायणको देखा ॥ १९-२० ॥

उस समय तपके प्रभावसे दीप्त शरीरवाले वे दोनों ऋषि उगे हुए सूर्यकी भाँति प्रतीत हो रहे थे। [इन्द्रने सोचा-] क्या ये ब्रह्मा और विष्णु प्रकट हुए हैं अथवा दो सूर्य उदित हो गये हैं? धर्मके ये दोनों पुत्र अपने तपद्वारा न जाने क्या कर देंगे?

 

ऐसा विचार करके शचीपति इन्द्रने नर-नारायणकी ओर देखकर उनसे कहा- हे महाभाग धर्मनन्दन ! आपलोगोंका क्या कार्य है, बताइये। मैं श्रेष्ठ वर अभी प्रदान करता हूँ। हे ऋषियो! मैं वर देनेके लिये ही आया हूँ। वर अदेय हो तो भी मैं दूंगा; क्योंकि मैं आप लोगोंकी तपस्यासे परम प्रसन्न हूँ ॥ २१-२३३ ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार उनके सामने खड़े होकर इन्द्रने बार-बार उनसे [वरदान माँगनेको] कहा, किंतु ध्यानमग्न तथा दृढ़चित्त वे दोनों ऋषि नहीं बोले। तब इन्द्रने अपनी भयदायिनी मोहिनी माया प्रकट की।

 

उन्होंने भेड़िये, सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओंको उत्पन्न करके उन्हें भयभीत किया। इसी प्रकार वर्षा, वायु तथा अग्नि उत्पन्न करके इन्द्रने अपनी मोहिनी माया रचकर उन दोनोंको भयभीत करनेकी चेष्टा की किंतु धर्मपुत्र वे दोनों मुनि इस भयसे भी वशमें नहीं किये जा सके।

 

ऐसे उन नर- नारायणको देखकर इन्द्र अपने भवन चले गये। वे नर-नारायण वरदानके लोभमें नहीं आये और अग्नि तथा वायुसे भयभीत नहीं हुए। व्याघ्र, सिंह आदिके आक्रमण करनेपर भी वे दोनों अपने आसनसे हिलेतक नहीं।

 

उन दोनोंके ध्यानको भंग करनेमें उस समय कोई भी समर्थ नहीं हो सका ॥ २४-२९ ॥

इन्द्र भी अपने घर पहुँचकर दुःखित होकर विचार करने लगे कि मुनिवरोंमें उत्तम ये दोनों ऋषि भय तथा लोभसे विचलित नहीं हुए।

 

वे तो महाविद्या,आदिशक्ति, सनातनी, सब लोकोंकी स्वामिनी औन अद्भुत परा-प्रकृतिका ध्यान कर रहे थे। देवता तथा असुरोंके द्वारा रची गयी सारी माया जिन् भगवतीसे ही उत्पन्न होती है, उनका ध्यान करनेवालेक विचलित करनेमें कौन समर्थ है, चाहे वह कितना ह बड़ा मायाविज्ञ क्यों न हो?

 

जो लोग कल्मषरहिन् होकर भगवतीका ध्यान करते हैं, वे भला कैसे विचलित किये जा सकते हैं? देवीका वाग्बीज. कामबीज और मायाबीज- यह जिसके हृदयमें विद्यमान है, उसे विचलित करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ३०-३३३ ॥

अब मायासे मोहित इन्द्रने पुनः उनका प्रतीकार करनेहेतु कामदेव तथा वसन्तको बुलाकर यह वचन कहा- हे कामदेव ! तुम वसन्त और रतिको लेकर अनेक अप्सराओंके साथ उस गन्धमादनपर्वतपर अर्भ शीघ्रतापूर्वक जाओ।

 

वहाँ ‘नर-नारायण’ नामक दो प्राचीन श्रेष्ठ ऋषि बदरिकाश्रमके एकान्त स्थानमें स्थित होकर तपस्या कर रहे हैं। हे मन्मथ ! उनके पास जाकर तुम अपने बाणोंसे उनके चित्तको कामासक्त कर दो। उनका मोहन तथा उच्चाटन करके तुम अपने बाणोंसे उन्हें शीघ्र आहत कर डालो: मेरा यह कार्य अभी सिद्ध करो ॥ ३४-३८॥

इस प्रकार हे महाभाग ! धर्मके पुत्र उन दोनों मुनियोंको वशीभूत कर लो। इस सम्पूर्ण संसारमें देवता. दैत्य या मनुष्य कौन ऐसा है, जो तुम्हारे बाणके वशीभूत होकर अत्यन्त कामासक्त न हो जाय ? हे कामदेव ! जब ब्रह्मा, मैं (इन्द्र), शिव, चन्द्रमा या अग्नि भी मोहित हो जाते हैं तब तुम्हारे बाणोंके पराक्रमके सामने उन दोनोंकी क्या गणना है ? ॥ ३९-४०३ ॥

तुम्हारी सहायताके लिये मेरे द्वारा यह रम्भा आदि अप्सराओंका समूह भेजा जा रहा है, जो वहाँ पहुँच जायगा। अकेली तिलोत्तमा या रम्भा ही इस कार्यको करनेमें समर्थ है अथवा तुम अकेले भी इसे करनेमें समर्थ हो, तब सभी सम्मिलित रूपसे कार्य सिद्ध कर लेंगे; इसमें सन्देहकी बात ही क्या ? हे महाभाग ! तुम मेरे इस कार्यको सम्पन्न करो, मैं तुम्हें वांछित वस्तु प्रदान करूँगा ॥ ४१-४३ ॥

 

मैंने उन दोनों तपस्वियोंको वरदानोंके द्वारा बहुत प्रलोभन दिया, किंतु वे अपने स्थानसे विचलित नहीं हुए, बल्कि शान्त बैठे रहे। मेरा यह परिश्रम व्यर्थ चला गया। मैंने माया रचकर उन तपस्वियोंको बहुत डराया, फिर भी वे अपने आसनसे नहीं उठे। वे दोनों शरीररक्षाके लिये जरा भी चिन्तित नहीं हैं ॥ ४४-४५ ॥

व्यासजी बोले- इन्द्रका यह वचन सुनकर कामदेवने उनसे कहा- हे इन्द्र ! मैं अभी आपका मनोवांछित कार्य करूँगा। यदि वे दोनों मुनि विष्णु, शिव, ब्रह्मा अथवा सूर्य किसीका ध्यान करते होंगे, तो वे हमारे वशमें हो जायँगे।

 

मैं केवल कामराज महाबीज ‘क्लीं’ का अपने मनमें चिन्तन करनेवाले देवीभक्तको वशमें करनेमें किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हूँ। यदि वे भक्ति-भावसे महाशक्तिस्वरूपा देवीकी उपासनामें लगे होंगे, तो मेरे बाणोंका प्रभाव उन तपस्वियोंपर नहीं पड़ेगा ॥ ४६-४९ ॥

इन्द्र बोले – हे महाभाग ! जानेके लिये उद्यत इन सभीके साथ तुम वहाँ जाओ। यद्यपि मेरा यह कार्य अत्यन्त दुःसाध्य है, फिर भी तुम इस हितकर तथा उत्तम कार्यको पूर्ण कर ही लोगे ॥ ५० ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार इन्द्रका आदेश पाकर वे लोग पूरी तैयारीके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ वे धर्मपुत्र नर-नारायण कठोर तपस्या कर रहे थे ॥ ५१ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां चतुर्थस्कन्धे नरनारायणकथावर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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