Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 22(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयःस्कन्ध:द्वाविंशोऽध्यायःशशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना)
[अथ द्वाविंशोऽध्यायः]
:-व्यासजी बोले- पवित्र अन्तःकरणवाले राजा सुबाहु कन्याकी बात सुनकर राजाओंके पास जाकर बोले- हे महाराजाओ ! आपलोग इस समय अपने- अपने शिविरमें जायें, मैं कन्याका विवाह कल करूँगा ॥ १ ॥
आपलोग मुझपर कृपा करके मेरे द्वारा अर्पित की गयी भोज्य वस्तुएँ स्वीकार करें। अब यह विवाहकार्य कल पुनः इसी स्वयंवर-मण्डपमें होगा। हम सब मिलकर उसे सम्पन्न करेंगे ॥ २ ॥
हे नृपतिगण ! आज मेरी पुत्री मण्डपमें नहीं आ रही है। मैं क्या करूँ ? कल प्रातः पुत्रीको समझा- बुझाकर अवश्य लाऊँगा। अब सभी राजागण अपने- अपने शिविरमें चलें।
बुद्धिमानोंको अपने आश्रितजनोंके प्रति विरोधभाव नहीं रखना चाहिये और अपनी सन्तानपर तो निरन्तर विशेष कृपा करनी चाहिये। हे नृपगण ! प्रातःकाल समझा-बुझाकर मैं अपनी पुत्रीको यहाँ ले आऊँगा; इस समय आपलोग जायँ ॥ ३-४ ॥
मैं इच्छास्वयंवरकी बातको भलीभाँति सोचकर प्रातः कन्याका विवाह कर दूँगा। एक साथ सभी राजाओंके उपस्थित हो जानेपर सबकी सम्मतिसे स्वयंवरका कार्य सम्पन्न होगा ॥ ५॥
सुबाहुकी वाणी सुनकर सभी राजागण उसे सच मानकर अपने-अपने शिविरमें चले गये और नगरके आस-पास रक्षाका सम्यक् प्रबन्ध करके वे मध्याह्नकालकी क्रियाओंमें संलग्न हो गये ॥ ६ ॥
उधर राजा सुबाहु भी श्रेष्ठजनोंके साथ अपने अन्तःपुरके एक गुप्त स्थानमें अपनी पुत्रीको बुलाकर वरिष्ठ वैदिक पुरोहितोंद्वारा विवाह-कृत्य सम्पन्न करनेका प्रयत्न करने लगे ॥ ७॥
वरको स्नानादि कर्म कराकर उसे विवाहके योग्य वस्त्राभूषण पहनाकर और उसे वेदीरचित गृहमें ले आकर राजा सुबाहुने उसका पूजन किया ॥ ८ ॥
वरको विष्टर, आचमन, अर्घ्य, दो वस्त्र, गौ और दो कुण्डल विधिवत् प्रदान करके महामनस्वी राजा सुबाहुने कन्यादान कर दिया ॥ ९ ॥
उदार हृदयवाले सुदर्शनने भी सभी वस्तुएँ स्वीकार कर लीं। अब मनोरमाकी चिन्ता दूर हो गयी। उस समय कुबेरपुत्रीके समान उस सुन्दर केशोंवाली शशिकलाको पाकर सुदर्शनने अपने आपको परम धन्य समझा ॥ १० ॥
उस समय आनन्दित एवं निर्भीक सभी मन्त्री राजाद्वारा आभूषण तथा वस्त्र देकर सम्यक् रूपसे पूजित श्रेष्ठ वर सुदर्शनको कौतुकमण्डपमें ले गये ॥ ११ ॥
तदनन्तर विधिकी जानकार स्त्रियाँ राजकुमारीको वस्त्राभूषणोंसे विधिवत् सुसज्जित करके उसे सुन्दर पालकीमें बिठाकर चौकोर वेदीसे युक्त मण्डपमें वरके पास ले गयीं ॥ १२ ॥
उस वेदीपर पुरोहितने अग्नि-स्थापन करके और विधिवत् घृताहुति देकर कौतुकागारमें कौतुक किये हुए प्रेमरससे अत्यन्त सिक्त वर-वधूको बुलाया। उन दोनोंने विधिवत् लाजाहोम करनेके बाद अग्निकी प्रदक्षिणा करके अपने-अपने कुल तथा गोत्रकी समस्त रीतियाँ सम्पन्न कीं ॥ १३-१४॥
महाराज सुबाहुने घोड़ोंसे जुते तथा अत्यधिक बाणोंसे लदे हुए दो सौ सुसज्जित रथ सुदर्शनको विवाहमें उपहारस्वरूप दिये। उन्होंने मदमत्त, सुवर्णके भूषणोंसे विभूषित तथा पर्वतके शिखरके समान शरीरवाले सवा सौ हाथी राजकुमार सुदर्शनको प्रेमपूर्वक प्रदान किये ॥ १५-१६ ॥
विवाहके समय राजाने स्वर्णाभूषणोंसे अलंकृत सौ दासियाँ और सुन्दर-सुन्दर सौ हथिनियाँ प्रसन्नतापूर्वक बार-बार वरको समर्पित कीं। उन्होंने सब प्रकारके आयुधों और आभूषणोंसे सुसज्जित एक हजार सेवक. बहुत-से रत्न, रंग-बिरंगे दिव्य सूती तथा ऊनी वस्त्र यथोचित रूपसे दिये ॥ १७-१८ ॥
निवासके लिये रंग-बिरंगे, सुन्दर और विशाल भवन, सिन्धुदेशके उत्तम दो हजार घोड़े, भार ढोनेमें कुशल सुन्दर तीन सौ ऊँट, अन्न एवं रससे परिपूर्ण दो सौ उत्तम बैलगाड़ियाँ भी प्रदान कीं ॥ १९-२० ॥
तत्पश्चात् राजा सुबाहुने हाथ जोड़कर राजमाता मनोरमाको प्रणाम करके कहा- हे राजकुमारी ! मैं आपका सेवक हूँ, अतः आपका जो मनोवांछित हो उसे कहिये ॥ २१ ॥
तब उस मनोरमाने भी सुबाहुसे मधुर वाणीमें कहा- हे राजन् ! आपका कल्याण हो, आपके वंशकी वृद्धि हो। आपने मेरा बहुत सम्मान किया; क्योंकि आपने अपनी रत्नमयी कन्या मेरे पुत्रको प्रदान की है ॥ २२ ॥
हे राजन् ! मैं [यश गानेमें कुशल] बन्दीजन और मागधोंकी पुत्री नहीं हूँ, [जो भलीभाँति आपकी प्रशंसा कर सकूँ।] आप तो अपने ही हैं, अतः आप श्रेष्ठ स्वजनकी मैं क्या स्तुति करूँ? आप एक उत्तम नरेश हैं और मेरे सम्बन्धी हो गये हैं; आपने मेरे पुत्रको सुमेरुके समान बना दिया है।
अहो! महान् आश्चर्य है! आप-जैसे राजाके पवित्र चरित्रका वर्णन कहाँतक करूँ, जो कि आपने इन सभी राजाओंको छोड़कर राज्यसे च्युत, वनमें निवास करनेवाले, धनहीन, पिताविहीन, सेनारहित, फलके आहारपर ही रहनेवाले तथा सम्पत्तिहीन मेरे पुत्रको अपनी प्रिय | तथा कुलीन कन्या प्रदान कर दी ॥ २३-२५ ॥
अपने समान धन, कुल और बलवालेको ही कोई अपनी पुत्री प्रदान करता है। हे राजन् ! आपको छोड़कर कोई भी राजा मेरे धनहीन पुत्रको अपनी रूपगुणसम्पन्ना पुत्री नहीं दे सकता ॥ २६ ॥
सभी महान् तथा बलशाली राजाओंसे शत्रुता लेकर आपने मेरे सुदर्शनको अपनी कन्या अर्पित की है- हे राजन् ! मैं आपके इस धैर्यका वर्णन क्या करूँ ? ॥ २७ ॥
इस प्रकार मनोरमाके [कृतज्ञतापूर्ण] वचन सुनकर महाराज सुबाहुने प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़कर पुनः यह वचन कहा- मेरा यह अति प्रसिद्ध राज्य आप ले लीजिये और आजसे मैं आपका सेनापति हो जा रहा हूँ;
नहीं तो आप आधा राज्य ही ले लें और अपने पुत्रके साथ यहीं रहकर राजसी भोग भोगें; क्योंकि अब काशीमें निवास छोड़कर किसी वन या ग्राममें आपलोग रहें- ऐसा मेरा विचार नहीं है ॥ २८-२९ ॥
सभी उपस्थित भूपगण मुझपर अत्यन्त रुष्ट हैं। मैं जाकर पहले उन्हें शान्त करूँगा। इसके बाद दान एवं भेदनीतिका विधान करूँगा। यदि इसपर भी वे अनुकूल न होंगे तो उनसे युद्ध करूँगा ॥ ३० ॥
यद्यपि हार और जीत तो दैवाधीन हैं तथापि जिस पक्षमें धर्म रहता है, उसकी विजय होती है; अधर्मके पक्षवालेकी कभी नहीं। अतः अधर्मसे युक्त उन राजाओंका अपना सोचा हुआ कैसे हो सकता है ? ॥ ३१ ॥
उन सुबाहुसे सम्मान पाकर पूर्णरूपसे आनन्दमग्न मनोरमा उनकी सारगर्भित वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे हितकर वचन कहने लगी- हे राजन् !
आपका कल्याण हो। आप निर्भय होकर अपने पुत्रोंके साथ राज्य कीजिये। मेरा पुत्र भी निश्चय ही अपना राज्य पाकर साकेतपुरी अयोध्यामें शासन करेगा ॥ ३२-३३ ॥
हे राजन् ! अब आप हमलोगोंको अपने घर जानेके लिये आज्ञा दीजिये। भगवती दुर्गा आपका कल्याण करेंगी। हे राजन् ! मुझे अब कोई चिन्ता नहीं है; क्योंकि मैं पराम्बा भगवतीका भलीभाँति चिन्तन करती रहती हूँ ॥ ३४ ॥
इस प्रकार उन दोनोंमें विविध वाक्योंद्वारा अमृतके समान मधुर वार्तालापमें रात बीत गयी। प्रातःकाल होनेपर सभी राजा विवाह हो जानेकी बात जानकर कुपित हो उठे और नगरके बाहर निकलकर आपसमें कहने लगे – ॥ ३५ ॥
हम आज ही उस कलंकी राजा सुबाहु तथा विवाहकी योग्यता न रखनेवाले उस कुमार सुदर्शनको मारकर राज्यलक्ष्मीसहित उस शशिकलाको छीन लेंगे, अन्यथा लज्जित होकर हमलोग कैसे अपने घर जायँगे ? ॥ ३६ ॥
आप सब लोग बजायी जा रही तुरहियों तथा शंखोंके निनाद, गीतध्वनि तथा अनेक प्रकारकी वेद- ध्वनि सुन लें। मृदंगोंके भी शब्द हो रहे हैं। हमलोग तो ऐसा मानते हैं कि राजा सुबाहुने विवाह सम्पन्न कर दिया ॥ ३७ ॥
राजाने हमें बातोंसे ठगकर वैवाहिक विधिसे पाणिग्रहण-संस्कार अवश्य कर दिया। हे राजाओ ! अब हमलोगोंको क्या करना चाहिये, इस विषयमें आपलोग सोचें और आपसमें विचार करके एक निर्णय लें ॥ ३८ ॥
इस प्रकार राजाओंमें परस्पर बातचीत हो ही रही थी कि इतनेमें अप्रतिम प्रभाववाले काशीपति महाराज सुबाहु कन्याका पाणिग्रहण- संस्कार सम्पन्न करके प्रसिद्ध तेजवाले अपने मित्रोंको साथ लेकर उन राजाओंको निमन्त्रित करनेके लिये शीघ्र उनके पास गये ॥ ३९ ॥
काशीराज सुबाहुको आते देखकर उपस्थित नरेशोंने क्रोधके कारण कुछ नहीं कहा। वे मौन साधकर बैठे रहे ॥ ४० ॥
राजा सुबाहु उनके पास जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहने लगे कि सभी राजागण भोजन करनेके लिये मेरे घर आयें। कन्याने तो उस राजकुमार सुदर्शनका पतिरूपमें वरण कर लिया है।
मैं इस विषयमें अच्छा- बुरा क्या कर सकता हूँ ? अब आपलोग शान्त हो जायँ; क्योंकि महान् लोग दयालु होते हैं ॥ ४१-४२ ॥
राजा सुबाहुकी बात सुनकर सभी राजा क्रोधसे तमतमा उठे। उन्होंने कहा- राजन् ! हमलोग भोजन कर चुके, अब आप अपने घर जाइये।
आपको जो अच्छा लगा, उसे आपने कर लिया। जो कार्य शेष हों उन सबको भी जाकर कर लीजिये। अब सभी राजागण अपने-अपने घर चले जायँगे ॥ ४३-४४ ॥
सुबाहु भी यह सुनकर घर चले गये और शंका करने लगे कि ये क्षुब्ध तथा कुपित राजागण अब न जाने क्या कर डालेंगे ॥ ४५ ॥
राजा सुबाहुके चले जानेपर उन नरेशोंने यह निश्चय किया कि अब हमलोग मार्ग रोककर सुदर्शनको मारकर कन्याको छीन लेंगे ॥ ४६ ॥
उनमेंसे कुछ राजाओंने कहा- अरे ! उस राजकुमार सुदर्शनसे हमारा क्या वैर ? हमने यहाँका सब कौतुक देख लिया। अब हम जैसे आये थे, वैसे ही घर लौट चलें ॥ ४७ ॥
ऐसा कहकर वे सब [विरोधी] राजागण मार्ग रोककर खड़े हो गये और राजा सुबाहु अपने भवन पहुँचकर आगेके कृत्य सम्पादित करने लगे ॥ ४८ ॥