Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 5 (श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धः पञ्चमोऽध्यायः ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना)
[अथ पञ्चमोऽध्यायः]
:-ब्रह्माजी बोले – [हे नारद !] इस प्रकार देवदेव जनार्दन भगवान् विष्णुके स्तुति कर लेनेके उपरान्त भगवान् शिवशंकर विनीतभावसे देवीके सम्मुख स्थित होकर कहने लगे ॥ १ ॥
शिवजी बोले- हे देवि ! यदि भगवान् विष्णु आपके प्रभावसे प्रादुर्भूत हुए तथा उनके बाद ब्रह्माजी भी आपसे उत्पन्न हुए तो क्या मुझ तमोगुणीकी आपसे उत्पत्ति नहीं हुई है ? हे शिवे ! आप तो समग्र | लोककी रचनामें चतुर हैं ॥ २ ॥
पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आप ही हैं। हे माता! आप ही इन्द्रियरूपिणी तथा आप ही बुद्धि, मन और अहंकारस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शंकरने अखिल जगत्की रचना की है-ऐसा जो लोग अन्यथा बोलते हैं, वे कुछ भी नहीं जानते। आपने ही सदासे इन तीनोंकी सृष्टि की है, जो [आपकी ही प्रेरणासे] चराचर जगत्का सृजन-पालन-संहार करते हैं ॥ ४ ॥
यदि पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि, जल आदि महाभूतोंके गुणों तथा विषयोंसे ही जगत्का निर्माण सम्भव हो तो भी हे अम्ब! आपकी [चिन्मयी] कलाके बिना वह कैसे व्यक्त हो सकता है ? ॥ ५ ॥
हे अम्ब ! आपने ब्रह्मा, विष्णु और महेशद्वारा निर्मित इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है। आप अनेक प्रकारके वेष धारण करके कुतूहलपूर्ण क्रीड़ाएँ करती हुई यथेच्छ विहार करती हैं और पुनः शान्त भी हो जाती हैं ॥ ६ ॥
हे अम्बिके ! जब मैं (शिव), विष्णु और ब्रह्मा सृष्टिकालमें इस ब्रह्माण्डकी रचना करनेकी इच्छा करते हैं, तब निश्चित ही आपके चरणकमलोंका रजकण प्राप्त करके ही हमलोग अपने-अपने कार्य करनेमें समर्थ होते हैं ॥ ७ ॥
हे अम्बिके ! यदि आप सदा दयालु चित्तवाली न होतीं तो मैं तमोगुणयुक्त, ब्रह्मा रजोगुणसम्पन्न और विष्णु सत्त्वगुणयुक्त कैसे बनते ? ॥ ८ ॥
हे अम्बिके ! यदि आपकी वैविध्यपूर्ण बुद्धि न होती तो यह संसार इतना विविधतापूर्ण कैसे होता, जिसमें मन्त्री, राजा, सेवक, धनी और निर्धन भरे पड़े हैं ॥ ९ ॥
इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि, स्थिति और संहार करनेमें आपके तीनों गुण (सत्-रज-तम) ही सर्वथा समर्थ हैं; फिर भी आपने हम ब्रह्मा, विष्णु और महेशको क्रमशः इन कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये तीनों लोकोंके कारणरूपमें उत्पन्न किया है ॥ १० ॥
विमानमें बैठा हुआ मैं, ब्रह्मा तथा विष्णु – हमलोग इन भुवनोंसे पूर्णरूपेण परिचित हो गये हैं। हे भवानि ! मार्गमें स्थित इन नवीन भुवनोंको किसने बनाया ? इसे आप बतायें ॥ ११ ॥
हे जगदम्बिके! आप अपनी कलासे जगत्की रचना तथा पालन करती हैं और जब चाहती हैं तब उसका संहार कर देती हैं। आप सदा अपने पति परमपुरुषको रमण कराती रहती हैं। हे शिवे! आपकी इस लीलाको हम नहीं जान सकते ॥ १२॥
हे जननि ! नारीभावको प्राप्त हमलोगोंको सदा अपने चरणकमलोंकी सेवा करनेका अवसर दें; क्योंकि कालान्तरमें पुनः पुंस्त्व प्राप्त होनेपर आपके चरणकमलोंसे पृथक् रहकर हमलोगोंको वह प्रत्यक्ष सुख कहाँ प्राप्त होगा ! ॥ १३ ॥
हे अम्ब ! हे शिवे ! आपके चरणकमलोंको त्यागकर यह नरदेह प्राप्त करके तीनों लोकोंका स्वामित्व प्राप्त करके भी समस्त लोकोंमें कहीं भी रहनेकी मेरी रुचि नहीं है- चाहे मुझे त्रिभुवनका स्वामित्व ही क्यों न मिल जाय ॥ १४ ॥
हे सुदति ! आपके सांनिध्यमें स्त्रीभावको प्राप्त कर लेनेपर अब पुरुषभावमें मेरी थोड़ी भी रुचि नहीं है। जिसे पाकर आपके चरणारविन्दके दर्शनका सौभाग्य न मिले, वह पुरुषता कैसे सुख प्रदान कर सकती है ? ॥ १५ ॥
हे अम्बिके ! स्त्रीका रूप पाकर मैं भवबन्धनसे मुक्त करनेवाले आपके चरणकमलोंसे परिचित हो गया हूँ। आपकी कृपासे तीनों लोकोंमें मेरा सुयश स्थिर रहे ॥ १६ ॥
इस संसारमें ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके सांनिध्यका सेवन छोड़कर निष्कण्टक राज्य करना चाहेगा? क्योंकि जिसे आपके चरणकमलका सांनिध्य प्राप्त नहीं होता, उसके लिये क्षणांश भी युगके समान प्रतीत होता है ॥ १७ ॥
हे जननि ! जो शुद्ध चित्तवाले मुनि आपके चरण-कमलकी सेवा त्यागकर केवल तपश्चर्यामें लगे रहते हैं, वे निश्चितरूपसे विधाताके द्वारा ठगे गये हैं और अपनी हानिको ही लाभ समझते हैं ॥ १८ ॥
हे अजे ! आपके पदारविन्दके परागकी सेवासे जैसी मुक्ति इस संसार-सागरसे प्राप्त होती है, वैसी मुक्ति तपस्या, इन्द्रियदमन, समाधि तथा विभिन्न वेदविहित यज्ञोंसे भी नहीं होती ॥ १९ ॥
हे देवि ! यदि आप मेरे प्रति दयालु हैं तो मुझपर दया कीजिये और अपना निर्मल, अद्भुत, सर्वश्रेष्ठ एवं विशद नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) मुझे प्रदान कीजिये, जिससे उसका निरन्तर जप करके मैं सर्वदाके लिये सुखी हो जाऊँ ॥ २० ॥
पूर्वजन्ममें मैंने नवार्ण मन्त्रकी दीक्षा पायी थी; परंतु वह मुझे अब स्मरण नहीं रह गया है। इसलिये हे तारके! हे जननि ! आज पुनः वह मन्त्र मुझे प्रदान कीजिये और भवसागरसे मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद !] अद्भुत तेजस्वी शिवजीके ऐसा कहनेपर जगदम्बाने स्पष्ट शब्दोंमें नवाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया। उस मन्त्रको ग्रहण करके शिवजी बहुत प्रसन्न हो गये और भगवतीके चरणोंमें प्रणाम करके वहींपर स्थित हो गये ॥ २२-२३ ॥
उस समय सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ, मुक्तिप्रदायक तथा शुभ उच्चारणसे सम्पन्न उस बीजयुक्त नवाक्षर मन्त्रका जप करते हुए शंकरजी वहाँ विराजमान रहे ॥ २४ ॥
संसारका कल्याण करनेवाले शिवजीको इस प्रकार बैठा देखकर मैं उन महामायाके चरणोंके समीप बैठ गया और उनसे कहने लगा ॥ २५ ॥
हे जननि ! वेद सभी लोगोंको धारण करनेवाली तथा सनातनी आप भगवतीकी कल्पना करनेमें अकुशल हैं-ऐसी बात नहीं है; क्योंकि साधारण कार्योंमें उन्होंने आप भगवतीकी चर्चा नहीं की है।
यदि वे आपको न जानते तो सभी यज्ञों तथा हवन- कार्योंमें आपको ही स्वाहादेवीके रूपमें प्रतिष्ठित कैसे करते ? इसलिये आप तीनों लोकोंमें सर्वज्ञाके रूपमें विख्यात हुईं ॥ २६ ॥
मैं स्रष्टा हूँ, मैं अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका निर्माण करता हूँ, इस चराचर त्रिभुवनमें मुझसे बढ़कर समर्थ दूसरा पुरुष कौन है, मैं निस्सन्देह धन्य हूँ, मैं लोकोत्तर ब्रह्मा हूँ-इस मिथ्या अहंकारके कारण मैं सर्वदा इस विस्तृत संसारसागरमें निमग्न रहता हूँ; |
तथापि आज आपके चरण कमलोंकी पराग-प्राप्तिके गर्वसे मैं वस्तुतः धन्य हो गया हूँ और आपकी कृपासे ही आज मैं यथातथ्यके ज्ञानमें निपुण हो गया हूँ। सांसारिक भयका नाश करनेमें दक्ष, मुक्तिदायिनी आप परमेश्वरीसे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मोहनिर्मित महादुःखदायी भवबन्धनसे मुक्त करके आप मुझे अपनी भक्तिसे समन्वित कीजिये ॥ २७-२८ ॥
आपसे ही निर्मित अद्भुत कमलसे मैं आविर्भूत हुआ हूँ और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ, अतः मैं कैसे मुक्त हो सकूँगा ? हे शिवे ! इस भवसागरमें पड़े हुए मुझ मोहमग्नकी रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥
इस संसारमें जो लोग आपके सनातन पवित्र चरित्रको नहीं जानते, वे लोग मुझे ही ईश्वर कहते हैं और जो यज्ञकर्ता स्वर्गकी इच्छासे [इन्द्र आदि देवताओंका] यजन करते हैं, वे भी सर्वथा आपके प्रभावको नहीं जानते ॥ ३० ॥
हे आदिमाये ! सर्वप्रथम सृष्टिको चार भागों [अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और पिण्डज – जरायुज ] – में विभक्त करनेके लिये ही आपने मुझे ब्रह्माके पदपर बैठाया, परंतु [मैंने यह समझ लिया कि मैं ही सब कुछ जानता हूँ, दूसरा कौन जान सकता है- मेरे इस अहंकारजन्य अपराधको आप क्षमा कीजिये ॥ ३१ ॥
जो लोग अष्टांगयोगका आश्रय लेते हैं और समाधि लगाकर व्यर्थ श्रम करते हैं, वे अज्ञानी हैं। हे माता! वे यह नहीं जानते कि किसी भी बहाने आपके नामोच्चारणमात्रसे ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है ॥ ३२ ॥
कुछ लोग (सांख्यवादी) तो आपके नामका आश्रय छोड़कर विमोहित हो तत्त्वोंकी संख्याके फेरमें पड़ जाते हैं; क्या वे इस भवसागरमें मूर्ख नहीं हैं ? हे भवानि ! संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाली तो आप ही हैं ॥ ३३ ॥
हे अजे ! जिन विष्णु-शिव आदिने परम तत्त्वज्ञानका अनुभव कर लिया है, वे क्या आधे निमेषमात्रके लिये भी आपके पवित्र चरित्र तथा शिवा, अम्बिका, शक्ति, ईश्वरी आदि नामोंको विस्मृत करते हैं ? ॥ ३४ ॥
क्या आप विश्वकी रचना करनेमें समर्थ नहीं हैं ? हे आदिसर्गे ! आपके दृष्टिनिक्षेपमात्रसे ही यह सम्पूर्ण विश्व चार प्रकारके (अंडज, स्वेदज, उद्भिज्ज, पिण्डज-जरायुज) जीवोंके रूपमें शीघ्र ही विभक्त हुआ है। इस प्रकार मुझ ब्रह्माकी सृष्टि तो आप अपने मनोविनोदके लिये करके पुनः स्वतन्त्र भावसे जो चाहती हैं, वह करती हैं ॥ ३५ ॥
[ महाप्रलयकी स्थितिमें] यदि महासागरमें आप मधु-कैटभसे विष्णुकी रक्षा न करतीं तो वे सृष्टि- पालक कैसे बन पाते और यदि आप सबके संहारक शिवका संहार न करतीं तो वे मेरे भ्रूमध्यसे कैसे प्रकट होते ? ॥ ३६ ॥
आपका जन्म कहाँ हुआ-इसे न तो किसीने देखा और न सुना और कोई यह भी नहीं जान पाया कि आपकी उत्पत्ति कहाँ हुई? हे भवानि ! एकमात्र • आप ही आद्या शक्ति हैं, अतएव वेदोंने इसी रूपमें आपका वर्णन किया है ॥ ३७ ॥
हे अम्ब! आपकी ही शक्तिसे प्रेरित होकर मैं सृष्टि करनेमें, विष्णु पालन करनेमें तथा शिव संहार करनेमें समर्थ होते हैं। आपकी शक्तिसे विलग रहकर अब हमलोग कुछ भी करनेमें सक्षम नहीं हैं ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार मैं (ब्रह्मा), विष्णु और शिव उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार क्या अन्य प्राणी उत्पन्न नहीं हुए, अथवा विद्यमान नहीं हैं या उत्पन्न नहीं होंगे ? किंतु अल्प बुद्धिवाले प्राणियोंके लिये विवादास्पद २ तथा अत्यन्त विचित्र आपके इस लीलाविनोदसे कौन भ्रमित नहीं हो जाते ? ॥ ३९ ॥
वे आदिदेव ईश्वर अकर्ता, गुणोंसे स्फुट होनेवाले, निष्काम, उपाधिरहित तथा निर्गुण हैं, फिर भी वे आपके विस्तृत लीला-विनोदको भलीभाँति देखते रहते हैं- ज्ञानीजन ऐसा ही कहते हैं ॥ ४० ॥
मूर्त और अमूर्त भेदोंसे युक्त इस संसारमें आपसे पूर्व वे ही परमपुरुष थे; ज्ञान-तत्त्वपर सम्यक् प्रकारसे विचार करनेपर यह सर्वथा सिद्ध होता है कि अन्य तीसरा कोई भी नहीं है ॥ ४१ ॥
[यह सिद्धान्त है कि ] वेद-वाक्यको कभी मिथ्या नहीं समझना चाहिये। वेद ब्रह्मको अद्वितीय और एक बताते हैं; तो फिर आप क्या हैं और वह ब्रह्म क्या है ? यह विरोध मेरे हृदयमें महान् शंका उत्पन्न करता है। आप मेरे इस सन्देहका निवारण करें ॥ ४२-४३ ॥
इस प्रकार द्वैत-अद्वैतके इस विचारमें डूबा हुआ मेरा क्षुद्र मन निश्चितरूपसे शंकारहित नहीं हो पा रहा है ॥ ४४ ॥
अब आप ही स्वयं अपने मुखसे मेरी इस शंकाका निवारण करनेकी कृपा करें; क्योंकि [ अनेक जन्मोंके] पुण्ययोगसे ही आपके चरणोंका यह सांनिध्य मुझे प्राप्त हुआ है ॥ ४५ ॥
आप पुरुष हैं अथवा स्त्री- यह मुझे विस्तारपूर्वक बतायें, जिससे मैं आप परम शक्तिको जानकर भवसागरसे मुक्त हो जाऊँ ॥ ४६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे हरब्रह्मकृतस्तुतिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥