Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 4( श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धःचतुर्थोऽध्यायःभगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना)

Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 4(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धःचतुर्थोऽध्यायःभगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना)

[अथ चतुर्थोऽध्यायः]

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:-ब्रह्माजी बोले- हे नारद ! ऐसा कहकर जनार्दन भगवान् विष्णुने पुनः कहा- हमलोग बार-बार प्रणाम करते हुए उनके पास चलें। वे वरदायिनी महामाया हमें अवश्य वरदान देंगी।
अतः निर्भय होकर हमें उनके चरणोंके निकट चलकर उनकी स्तुति करनी चाहिये। यदि उनके द्वारपाल हमें वहाँ रोकेंगे तो हमलोग ध्यानपूर्वक वहीं बैठकर देवीकी स्तुति करने लगेंगे ॥ १-३ ॥
ब्रह्माजी बोले – भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर मैं तथा शिव-हम दोनों प्रसन्नतासे गद्गद होकर शीघ्र उनके निकट जानेको उत्सुक हो गये।
विष्णुसे ‘ठीक है’- ऐसा कहकर हम तीनों शीघ्रतापूर्वक विमानसे उतरकर मन-ही-मन अनेक तर्क-वितर्क करते हुए भगवतीके द्वारपर ज्यों ही पहुँचे, त्यों ही द्वारपर स्थित हम सभीको देखकर मन्द मुसकान करके उन भगवतीने हम तीनोंको स्त्रीरूपमें परिणत | कर दिया ॥ ४-६ ॥

 

हमलोग नाना प्रकारके भूषणोंसे अलंकृत रूपवती युवती बन गये और अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उन महामाया भगवतीके पास पुनः गये ॥ ७॥
स्त्रीके वेषमें हमलोगोंको अपने चरणोंके निकट • देखकर अत्यन्त मनोहर रूपवाली उन देवीने हमलोगोंके ऊपर कृपादृष्टि डाली ॥ ८ ॥
उस समय महामाया भगवतीको प्रणाम करके स्त्री-वेषधारी तथा दिव्य वस्त्राभरण धारण किये हम तीनों परस्पर एक दूसरेको देखते हुए उनके सामने खड़े रहे ॥ ९ ॥
विविध प्रकारके मणिजटित एवं करोड़ों सूर्यके समान देदीप्यमान देवीके पादपीठको देखते हुए हम तीनों वहीं स्थित रहे ॥ १० ॥
उन महादेवीकी हजारों सेविकाओंमेंसे कुछने रक्त वस्त्र, कुछने नीले वस्त्र और कुछने सुन्दर पीत वस्त्र धारण कर रखे थे ॥ ११ ॥
वहाँ उपस्थित सभी देवियाँ सुन्दर स्वरूपकी थीं और विचित्र वस्त्र एवं आभूषणोंसे सुसज्जित थीं। वे सब जगदम्बाकी विभिन्न सेवाओंमें तत्पर थीं ॥ १२ ॥
उनमेंसे कुछ गा रही थीं, कुछ नाच रही थीं और कुछ स्त्रियाँ हर्षके साथ वीणा तथा मुखवाद्य बजाती हुई अन्य सेवाओंमें संलग्न थीं ॥ १३ ॥
हे नारदजी ! वहाँ मैंने भगवतीके चरणकमलके नखरूपी दर्पणमें जो अद्भुत दृश्य देखा, उसे बताता हूँ, आप सुनें।
वहाँ मुझे समस्त स्थावर-जंगमात्मक ब्रह्माण्ड, मैं (ब्रह्मा), विष्णु, शिव, वायु, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, कुबेर, इन्द्र, पर्वत, समुद्र, नदियाँ, गन्धर्व, अप्सराएँ, विश्वावसु, चित्रकेतु, श्वेत, चित्रांगद, नारद, तुम्बुरु, हाहा-हूहू, दोनों अश्विनीकुमार, अष्टवसु, साध्य, सिद्धगण, पितर, शेष आदि नाग, सभी किन्नर, उरग और राक्षसगण दिखायी दे रहे थे ॥ १४-१८ ॥
वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक तथा पर्वतश्रेष्ठ कैलास-इन सबको हमने उनके पद-नखमें विराजमान देखा। उसीमें मेरा जन्मस्थान कमल भी था और मैं चतुरानन उस कमलकोशमें बैठा हुआ था। मधु-कैटभ नामके दोनों दानव तथा शेषशायी महाविष्णु भी उसीमें विराजमान थे ॥ १९-२०॥

 

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार परमेश्वरीके चरण- कमलके नखमें स्थित यह सारा दृश्य मुझे दिखायी दिया, जिसे देखकर मैं चकित रह गया और मन- ही-मन सोचने लगा- ‘यह क्या है?’ ॥ २१ ॥
मेरे ही समान विष्णु और शिव भी वहाँ आश्चर्य चकित होकर खड़े थे। उस समय हम तीनोंने समझ लिया कि समस्त जगत्‌की जननी ये ही महादेवी हैं ॥ २२ ॥
इस प्रकार अमृतमय एवं कल्याणमय उस द्वीपमें अनेक प्रकारके अद्भुत दृश्य देखते हुए हमारे सौ वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २३ ॥
वहाँकी प्रसन्नवदना एवं विचित्र अलंकारोंसे अलंकृत देवियाँ हम तीनोंको अपनी सखियाँ समझती थीं और हमलोग भी उनके स्नेहपूर्ण सद्व्यवहारसे मुग्ध थे तथा उनके मनोरम भावोंको देखकर अतीव प्रसन्न थे ॥ २४-२५ ॥
एक बार नारीरूपमें स्थित भगवान् विष्णु महादेवी भगवती श्रीभुवनेश्वरीकी स्तुति करने लगे – ॥ २६ ॥
श्रीभगवान् बोले – प्रकृति एवं विधात्रीदेवीको मेरा निरन्तर नमस्कार है। कल्याणी, कामप्रदा, वृद्धि तथा सिद्धिदेवीको बार-बार नमस्कार है।
सच्चिदानन्द- रूपिणी तथा संसारकी योनिस्वरूपा देवीको नमस्कार है। आप पंचकृत्य * विधात्री तथा श्रीभुवनेश्वरीदेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २७-२८ ॥
समस्त संसारकी एकमात्र अधिष्ठात्री तथा कूटस्थरूपा देवीको बार-बार नमस्कार है। अर्धमात्राकी अर्थभूता एवं हृल्लेखादेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २९ ॥
हे जननि ! आज मैंने जान लिया कि यह समस्त विश्व आपमें समाहित है तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकी सृष्टि एवं संहार भी आप ही करती हैं।
इस ब्रह्माण्डके निर्माणमें आपकी विस्तृत प्रभाववाली शक्ति ही मुख्य हेतु है, अतः मुझे यह ज्ञात हो गया कि आप ही सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं।
इस सत् एवं असत् सम्पूर्ण जगत्का विस्तार करके उस चिब्रह्म पुरुषको यथासमय आप इसे समग्ररूपसे प्रस्तुत करती हैं। अपनी प्रसन्नताके लिये सोलह तत्त्वों तथा महदादि अन्य सात तत्त्वोंके साथ आप हमें इन्द्रजालके समान प्रतीत होती हैं ॥ ३०-३१ ॥
हे जननि ! आपसे रहित यहाँ कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती, आप ही समस्त जगत्‌को व्याप्त करके स्थित रहती हैं। बुद्धिमान् पुरुषोंका कथन है कि आपकी शक्तिके बिना वह परमपुरुष कुछ भी – करनेमें असमर्थ है ॥ ३२ ॥
आप अपने कृपाप्रभावसे संसारका कल्याण करती हैं। हे देवि ! आप ही अपने तेजसे सृष्टिकालमें सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करती हैं तथा प्रलयकालमें इसका शीघ्र ही संहार कर डालती हैं। हे देवि ! आपके वैभवके लीला-चरित्रको भलीभाँति जाननेमें कौन समर्थ है ? ॥ ३३ ॥
हे जननि ! मधु-कैटभ नामक दोनों दानवोंसे आपने हमारी रक्षा की है, आपने ही हमलोगोंको अपने अनेक विस्तृत लोक दिखाये तथा अपने-अपने भवनमें हमें परमानन्दका अनुभव कराया। हे भवानि ! यह आपके दर्शनका ही महान् प्रभाव है ॥ ३४ ॥
हे माता ! जब मैं (विष्णु), शिव तथा ब्रह्मा भी आपके अपूर्व चरित्रको जाननेमें समर्थ नहीं हैं, तब अन्य कोई कैसे जान सकेगा ? हे महिमामयी भवानि ! आपके रचे हुए इस ब्रह्माण्ड प्रपंचमें न जाने कितने ब्रह्माण्ड भरे पड़े हैं ! ॥ ३५ ॥
हमलोगोंने आपके इस लोकमें अद्भुत प्रभाववाले दूसरे विष्णु, शिव तथा ब्रह्माको देखा है। हे देवि ! क्या वे देवता अन्यान्य लोकोंमें नहीं होंगे ? हमलोग आपकी इस अद्भुत महिमाको कैसे जान सकते हैं ? ॥ ३६ ॥
हे जगदम्ब ! हमलोग आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर यही याचना करते हैं कि आपका यह दिव्य स्वरूप हमारे हृदयमें सदा विराजमान रहे, हमारे मुखसे सदा आपका ही नाम निकले और हमारे नेत्र प्रतिदिन आपके चरणकमलोंके दर्शन पाते रहें ॥ ३७ ॥

 

हे माता ! आपकी यह भावना हमारे प्रति सर्वदा बनी रहे कि ये सब हमारे सेवक हैं और हम भी सर्वथा आपको मनसे अपनी स्वामिनी समझते रहें। हे आर्ये! इस प्रकार हमारा और आपका माता-पुत्रका अनन्य सम्बन्ध सर्वदा बना रहे ॥ ३८ ॥
हे जगदम्बिके! आप समस्त ब्रह्माण्ड-प्रपंचको पूर्ण रूपसे जानती हैं; क्योंकि जहाँ सर्वज्ञताकी समाप्ति होती है, उसकी अन्तिम सीमा आप ही हैं। हे भवानि ! मैं पामर कह ही क्या सकता हूँ? आपको जो उचित लगे, आप वह करें; क्योंकि सब कुछ तो आपहीके संकेतपर होता है ॥ ३९ ॥
जगत्में ऐसी प्रसिद्धि है कि ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं, किंतु हे देवि ! क्या यह बात सत्य है? हे अजे ! सच्चाई तो यह है कि आपकी इच्छासे तथा आपसे शक्ति प्राप्तकर हम अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ हो पाते हैं ॥ ४० ॥
हे गिरिजे ! यह पृथ्वी इस जगत्को धारण नहीं करती है अपितु आपकी आधारशक्ति ही इस समस्त जगत्को धारण करती है। हे वरदे ! भगवान् सूर्य भी आपके ही आलोकसे युक्त होकर प्रकाशमान हैं। इस प्रकार आप विरजारूपसे इस सम्पूर्ण जगत्के रूपमें सुशोभित हो रही हैं ॥ ४१ ॥
ब्रह्मा, मैं (विष्णु) तथा शंकर हम सब आपके ही प्रभावसे उत्पन्न होते हैं। जब हम नित्य नहीं हैं तो फिर इन्द्र आदि प्रमुख देवता कैसे नित्य हो सकते हैं? समस्त चराचर जगत्की जननी तथा सनातन प्रकृतिरूपा आप ही नित्य हैं ॥ ४२ ॥
हे भवानि ! आपकी सन्निधिमें आनेपर आज मुझे ज्ञात हो गया कि आप मुझ पुराणपुरुषपर सर्वदा दयाभाव बनाये रखती हैं; अन्यथा मैं अपनेको सर्वव्यापी, आदिरहित, निष्काम, ईश्वर तथा विश्वात्मा मान बैठता और अहंकारयुक्त होकर सदाके लिये तमोगुणी प्रकृतिवाला हो जाता ॥ ४३ ॥
आप निश्चय ही सदासे बुद्धिमान् पुरुषोंकी विद्या तथा शक्तिशाली पुरुषोंकी शक्ति हैं। आप इस मनुष्य-लोकमें कीर्ति, कान्ति, कमला, निर्मला तथा तुष्टिस्वरूपा हैं तथा प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली विरक्तिस्वरूपा हैं ॥ ४४ ॥
आप वेदोंकी प्रथम कला गायत्री हैं। आप ही स्वाहा, स्वधा, सगुणा तथा अर्धमात्रा भगवती हैं। आपने ही देवताओं और पूर्वजोंके संरक्षणके लिये आगम तथा निगमकी रचना की है ॥ ४५ ॥
जिस प्रकार पूर्ण महासमुद्रकी विस्तृत तरंगें उस समुद्रका ही अंश होती हैं, उसी प्रकार आदि-अन्तसे हीन निष्कलंक ब्रह्मके जीवरूपी अंशोंको मोक्ष प्राप्त करानेके उद्देश्यसे ही आपने सम्पूर्ण जगत्-प्रपंचका निर्माण किया है ॥ ४६ ॥
जीवको जब यह विदित हो जाता है कि सम्पूर्ण विश्वप्रपंच आपहीका कृत्य है, तब अमित प्रभाववाली आप उसका उपसंहार कर देती हैं और अपने द्वारा किये गये मिथ्या, किंतु रहस्यपूर्ण कार्यपर उसी प्रकार प्रमुदित होती हैं जिस प्रकार मनोहारी नाटककी रचनापर सफल नट सन्तुष्ट होता है ॥ ४७ ॥
हे अम्बिके ! आप ही इस मोहमय भव-सागरसे मेरी रक्षा कर सकती हैं। राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंके कारण अत्यन्त कष्टदायक तथा दुःखप्रद मिथ्या अन्तकालमें मेरी रक्षा कीजियेगा, मैं आपके शरणागत हूँ ॥ ४८ ॥
हे देवि ! आपको नमस्कार है। हे महाविद्ये ! मैं आपके चरणोंमें नमन करता हूँ। हे सर्वार्थदात्री शिवे ! आप ज्ञानरूपी प्रकाशसे मेरे हृदयको आलोक प्रदान कीजिये ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विष्णुना कृतं देवीस्तोत्रं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

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