Devi bhagwat puran skandh 3 chapter 3(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण तृतीयः स्कन्धःतृतीयोऽध्यायः ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन)
[अथ तृतीयोऽध्यायः]
:-ब्रह्माजी बोले – मनके समान वेगसे उड़नेवाला वह विमान जिस स्थानपर पहुँचा, वहाँ जब हमने जल नहीं देखा तब हमलोगोंको महान् आश्चर्य हुआ ॥ १ ॥
उस स्थानके वृक्ष सभी प्रकारके फलोंसे लदे हुए और कोकिलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजायमान थे। वहाँकी भूमि, पर्वत, वन और उपवन – ये सभी सुरम्य दृष्टिगोचर हो रहे थे ॥ २॥
उस स्थानपर स्त्रियाँ, पुरुष, पशु, बड़ी नदियाँ, बावलियाँ, कुएँ, तालाब, पोखरे तथा झरने इत्यादि विद्यमान थे ॥ ३॥
वहाँ भव्य चहारदीवारीसे घिरा हुआ एक मनोहर नगर था, जो यज्ञशालाओं तथा अनेक प्रकारके दिव्य महलोंसे सुशोभित था ॥ ४॥
तब उस नगरको देखकर हमलोगोंको ऐसी प्रतीति हुई, मानो यही स्वर्ग है और फिर हम लोगोंकी यह जिज्ञासा हुई कि इस अद्भुत नगरका निर्माण किसने किया है, उस समय हमलोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ! ॥ ५ ॥
हमलोगोंने आखेटके उद्देश्यसे वनमें जाते हुए एक देवतुल्य राजाको देखा। उसी समय हमलोगोंको जगदम्बा भगवती भी विमानपर स्थित दिखायी पड़ीं ॥ ६ ॥
थोड़ी ही देर बाद हमारा विमान वायुसे प्रेरित होकर आकाशमें पुनः उड़ने लगा और मुहूर्तभरमें वह पुनः एक अन्य सुरम्य देशमें पहुँच गया ॥ ७॥
वहाँपर हमलोगोंको अत्यन्त रमणीक नन्दनवन दृष्टिगत हुआ, जिसमें पारिजातवृक्षकी छायाका आश्रय लिये हुए कामधेनु स्थित थी ॥ ८ ॥
कामधेनुके समीप ही चार दाँतोंवाला ऐरावत हाथी विद्यमान था और वहाँ मेनका आदि अप्सराओंके समूह अपने नृत्यों तथा गानोंमें विविध भाव-भंगिमाओंका प्रदर्शन करते हुए अनेक प्रकारकी क्रीडाएँ कर रहे थे।
वहाँ मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंमें सैकड़ों गन्धर्व, यक्ष और विद्याधर गा रहे थे और रमण कर रहे थे। वहाँपर इन्द्रभगवान् भी इन्द्राणीके साथ दृष्टिगोचर हुए ॥ ९-११ ॥
स्वर्गमें निवास करनेवाले देवताओंको देखकर हमें परम विस्मय हुआ। वहाँपर वरुण, कुबेर, यम, सूर्य, अग्नि तथा अन्य देवताओंको स्थित देखकर हम आश्चर्यचकित हुए। उसी समय उस सुसज्जित नगरसे वह राजा निकला ॥ १२-१३ ॥
देवताओंके राजा इन्द्रकी भाँति पराक्रमी वह राजा धरातलपर पालकीमें बैठा था। वह विमान हमलोगोंको लेकर द्रुत गतिसे आगे बढ़ा ॥ १४॥
तदनन्तर हमलोग अलौकिक ब्रह्मलोकमें पहुँच गये। वहाँपर सभी देवताओंसे नमस्कृत ब्रह्माजीको विद्यमान देखकर भगवान् शंकर एवं विष्णु विस्मयमें पड़ गये ॥ १५ ॥
वहाँ ब्रह्माजीकी सभामें सभी वेद अपने- अपने अंगोंसहित मूर्तरूपमें विराजमान थे। साथ ही समुद्र, नदियाँ, पर्वत, सर्प एवं नाग भी उपस्थित थे ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् भगवान् विष्णु और शंकरने मुझसे पूछा- हे चतुर्मुख ! ये दूसरे सनातन ब्रह्मा कौन हैं? तब मैंने उनसे कहा कि मैं सबके स्वामी तथा सृष्टिकर्ता इन ब्रह्माको नहीं जानता ॥ १७ ॥
हे ईश्वरो ! मैं कौन हूँ, ये कौन हैं और हम दोनोंका क्या प्रयोजन है? इसमें मैं भ्रमित हूँ। थोड़ी ही देरमें वह विमान पुनः मनके सदृश वेगसे आगेकी ओर बढ़ा ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् वह विमान यक्षगणोंसे सुशोभित, मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंके कारण अति सुरम्य, शुक और कोयलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजित, वीणा और मृदंग आदि वाद्य-यन्त्रोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित, सुखदायक तथा मंगलकारी कैलास-शिखरपर पहुँचा ॥ १९३ ॥
उस शिखरपर जब वह विमान पहुँचा; उसी समय वृषभपर आरूढ, पंचमुख, दस भुजाओंवाले, मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये हुए भगवान् शंकर अपने दिव्य भवनसे बाहर निकले ॥ २०-२१ ॥
उस समय वे व्याघ्रचर्म पहने हुए तथा गजचर्म ओढ़े हुए थे। महाबली गजानन (श्रीगणेश) तथा षडानन (कार्तिकेय) उनके अंगरक्षकके रूपमें विद्यमान थे ॥ २२ ॥
भगवान् शंकरके साथ चल रहे उनके दोनों पुत्र अतीव सुशोभित हो रहे थे। नन्दी आदि सभी प्रधान शिवगण जयघोष करते हुए भगवान् शिवके पीछे-पीछे चल रहे थे।
हे नारद ! वहाँ अन्य लोगों तथा शंकरको मातृकाओंसहित देखकर हमलोग विस्मयमें पड़ गये और हे मुने ! मैं संशयग्रस्त हो गया।
थोड़ी ही देरमें वह विमान उस कैलास- शिखरसे वायुगतिसे लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुके वैकुण्ठलोकमें जा पहुँचा। हे पुत्र ! मैंने वहाँ अद्भुत विभूतियाँ देखीं ॥ २३-२६ ॥
उस अति रमणीक नगरको देखकर भगवान् विष्णु विस्मयमें पड़ गये। उसी समय कमललोचन भगवान् विष्णु अपने भवनसे बाहर निकले ॥ २७ ॥
उनका वर्ण अलसीके पुष्पकी भाँति श्याम था, वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, उनकी चार भुजाएँ थीं, वे पक्षिराज गरुडपर आरूढ़ थे और दिव्य अलंकारोंसे विभूषित थे।
भगवती लक्ष्मी उन्हें शुभ चॅवर डुला रही थीं। उन सनातन भगवान् विष्णुजीको देखकर हम सभीको महान् आश्चर्य हुआ ॥ २८-२९ ॥
तदनन्तर परस्पर एक-दूसरेको देखते हुए • हमलोग अपने-अपने श्रेष्ठ आसनोंपर बैठे रहे। इसके बाद वह विमान वायुसदृश द्रुत गतिसे पुनः चल पड़ा।
कुछ ही क्षणोंमें वह विमान मधुर जलवाले, ऊँची- ऊँची लहरोंवाले, नानाविध जल-जन्तुओंसे युक्त तथा २ चंचल तरंगोंसे शोभायमान अमृत-सागरके तटपर पहुँच गया ॥ ३०-३१ ॥
उस सागरके तटपर विभिन्न पंक्तियोंमें नाना प्रकारके विचित्र रंगोंवाले मन्दार एवं पारिजात आदि वृक्ष शोभायमान थे। वहाँ मोतियोंकी झालरें तथा अनेक प्रकारके पुष्पहार शोभामें वृद्धि कर रहे थे।
समुद्रके सभी ओर अशोक, मौलसिरी, कुरबक आदि • वृक्ष विद्यमान थे। उसके चारों ओर चित्ताकर्षक केतकी तथा चम्पक पुष्पोंकी वाटिकाएँ थीं, जो कोयलोंकी मधुर ध्वनियोंसे गुंजित तथा नाना प्रकारकी दिव्य सुगन्धिसे परिपूर्ण थीं ॥ ३२-३४॥
उस स्थलपर भौरे गुंजार कर रहे थे। इस प्रकार वहाँका दृश्य परम अद्भुत था। उस द्वीपमें हमलोगोंने दूरसे ही विमानपर बैठे-बैठे शिवजीके आकारवाला एक मनोहर तथा अत्यन्त अद्भुत पलंग देखा, जो रत्नमालाओंसे जड़ा हुआ था और नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित था ॥ ३५-३६ ॥
उस पलंगपर अनेक प्रकारके रंगोंवाली आकर्षक चादरें बिछी थीं, जिससे वह पलंग इन्द्रधनुषके समान सुशोभित हो रहा था। उस भव्य पलंगपर एक दिव्यांगना बैठी हुई थी ॥ ३७ ॥
उस देवीने रक्तपुष्पोंकी माला तथा रक्ताम्बर धारण किया था। उसने अपने शरीरमें लाल चन्दनका लेप कर रखा था। लालिमापूर्ण नेत्रोंवाली वह देवी असंख्य विद्युत्की कान्तिसे सुशोभित हो रही थी।
सुन्दर मुखवाली, रक्तिम अधरसे सुशोभित, लक्ष्मीसे करोड़ोंगुना अधिक सौन्दर्यशालिनी वह स्त्री अपनी कान्तिसे सूर्यमण्डलकी दीप्तिको भी मानो तिरस्कृत कर रही थी ॥ ३८-३९ ॥
वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्राको धारण करनेवाली तथा मधुर मुसकानयुक्त वे भगवती भुवनेश्वरी हमें दृष्टिगोचर हुईं; जिन्हें पहले कभी नहीं देखा गया था ॥ ४०
ह्रींकार बीजमन्त्रका जप करनेवाले पक्षियोंका समुदाय उनकी सेवामें निरन्तर रत था। नवयौवनसे सम्पन्न तथा अरुण आभावाली वे कुमारी साक्षात् करुणाकी मूर्ति थीं ॥ ४१ ॥
वे सभी प्रकारके श्रृंगार एवं परिधानोंसे सुसज्जित थीं और उनके मुखारविन्दपर मन्द मुसकान विराजमान थी। उनके उन्नत वक्षःस्थल कमलकी कलियोंसे भी बढ़कर शोभायमान हो रहे थे।
नानाविध मणियोंसे जटित आभूषणोंसे वे अलंकृत थीं। स्वर्णनिर्मित कंकण, केयूर और मुकुट आदिसे वे सुशोभित थीं। स्वर्णनिर्मित श्रीचक्राकार कर्णफूलसे सुशोभित उनका मुखारविन्द अतीव दीप्तिमान् था।
उनकी सखियोंका समुदाय ‘हृल्लेखा’ तथा ‘भुवनेशी’ नामोंका सतत जप कर रहा था और अन्य सखियाँ उन भुवनेशी महेश्वरीकी अनवरत स्तुति कर रही थीं। ‘हृल्लेखा’ आदि देवकन्याओं तथा ‘अनंगकुसुमा’ आदि देवियोंसे वे घिरी हुई थीं। वे षट्कोणके मध्यमें यन्त्रराजके ऊपर विराजमान थीं ॥ ४२-४६ ॥
उन भगवतीको देखकर वहाँ स्थित हम सभी आश्चर्यचकित हो गये और कुछ देरतक वहीं ठहरे रहे। हमलोग यह नहीं जान पाये कि वे सुन्दरी कौन हैं और उनका क्या नाम है ? ॥ ४७ ॥
दूरसे देखनेपर वे भगवती हजार नेत्र, हजार मुख और हजार हाथोंसे युक्त अति सुन्दर लग रही थीं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ॥ ४८ ॥
हे नारद ! हम सोचने लगे कि ये न तो अप्सरा, न गन्धर्वी और न देवांगना ही दीखती हैं, तो फिर ये कौन हो सकती हैं ? हम इसी संशयमें पड़कर वहाँ खड़े रहे ॥ ४९ ॥
तब उन सुन्दर हासवाली देवीको देखकर भगवान् विष्णुने अपने अनुभवसे मनमें निश्चित करके हमसे कहा- ये साक्षात् भगवती जगदम्बा हम सबकी कारणस्वरूपा हैं। ये ही महाविद्या, महामाया, पूर्णा तथा शाश्वत प्रकृतिरूपा हैं ॥ ५०-५१ ॥
अल्प बुद्धिवाले गम्भीर आशयवाली इन भगवतीको सम्यक् रूपसे नहीं जान सकते, केवल योगमार्गसे ही ये ज्ञेय हैं। ये देवी परमात्माकी इच्छास्वरूपा तथा नित्यानित्य-स्वरूपिणी हैं ॥ ५२ ॥
ये विश्वेश्वरी कल्याणी भगवती अल्पभाग्यवाले प्राणियोंके लिये दुराराध्य हैं। ये वेदजननी विशालनयना जगदम्बा सबकी आदिस्वरूपा ईश्वरी हैं ॥ ५३ ॥
ये भगवती प्रलयावस्थामें समग्र विश्वका संहार करके सभी प्राणियोंके लिंगरूप शरीरको अपने शरीरमें समाविष्ट करके विहार करती हैं ॥ ५४ ॥
हे देवो! ये भगवती इस समय सर्वबीजमयी देवीके रूपमें विराजमान हैं। देखिये, इनके समीप करोड़ों विभूतियाँ क्रमसे स्थित हैं ॥ ५५ ॥
हे ब्रह्मा एवं शंकरजी ! देखिये, दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत तथा दिव्य गन्धानुलेपसे युक्त ये सभी विभूतियाँ इन भगवतीकी सेवामें मनोयोगसे संलग्न हैं ॥ ५६ ॥
हमलोग धन्य, सौभाग्यशाली तथा कृतकृत्य हैं, जो कि हमें इस समय यहाँ भगवतीका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ५७ ॥
पूर्वकालमें हमलोगोंने बड़े प्रयत्नसे जो तपस्या की थी, उसीका यह उत्तम परिणाम है; अन्यथा भगवती हमलोगोंको स्नेहपूर्वक दर्शन कैसे देतीं ? ॥ ५८ ॥
जो उदार हृदयवाले पुण्यात्मा तथा तपस्वीलोग हैं, वे ही इनके दर्शन प्राप्त करते हैं, किंतु विषयासक्तलोग इन कल्याणमयी भगवतीके दर्शनसे सर्वथा वंचित रहते हैं ॥ ५९ ॥
ये ही मूलप्रकृतिस्वरूपा भगवती परमपुरुषके सहयोगसे ब्रह्माण्डकी रचना करके परमात्माके समक्ष उसे उपस्थित करती हैं ॥ ६० ॥
हे देवो! यह पुरुष द्रष्टामात्र है और समस्त ब्रह्माण्ड तथा देवतागण दृश्यस्वरूप हैं। महामाया, कल्याणमयी, सर्वव्यापिनी सर्वेश्वरी ये भगवती ही इन सबका मूल कारण हैं ॥ ६१ ॥
कहाँ मैं, कहाँ सभी देवता और कहाँ रम्भा आदि देवांगनाएँ! हम सभी इन भगवतीकी तुलनामें उनके लक्षांशके बराबर भी नहीं हैं ॥ ६२ ॥
ये वे ही महादेवी जगदम्बा हैं, जिन्हें हमलोगोंने प्रलयसागरमें देखा था और जो बाल्यावस्थामें मुझे प्रसन्नतापूर्वक पालनेमें झुला रही थीं ॥ ६३ ॥
उस समय मैं एक सुस्थिर तथा दृढ़ वटपत्ररूपी पलंगपर सोया हुआ था और अपने पैरका अँगूठा अपने मुखारविन्दमें डालकर चूस रहा था। अत्यन्त कोमल अंगोंवाला मैं उस समय अनेक बालसुलभ चेष्टाएँ करता हुआ उसी वटपत्रके दोनेमें पड़े-पड़े खेल रहा था ॥ ६४-६५ ॥
उस समय गाती हुई ये भगवती बालभावमें स्थित मुझे झूला झुलाती थीं। इन्हें देखकर मुझे यह सुनिश्चित ज्ञान हो गया है कि वे ही यहाँ विराजमान हैं ॥ ६६ ॥
निश्चितरूपसे ये भगवती मेरी जननी हैं। आप सुनें, मुझे पूर्व अनुभवकी स्मृति जग गयी है, जो मैं आपसे कहता हूँ ॥ ६७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विमानस्थैर्हरादिभिर्देवीदर्शनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥