Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 13(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:त्रयोदशोऽध्यायः राजा पुरूरवा और उर्वशीकी कथा)

Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 13(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:त्रयोदशोऽध्यायः राजा पुरूरवा और उर्वशीकी कथा)

[अथ त्रयोदशोऽध्यायः]

 

:-सूतजी बोले – सुद्युम्नके दिवंगत हो जानेपर प्रजानुरंजनमें तत्पर, गुणी एवं सुन्दर महाराज पुरूरवा राज्य करने लगे। उस रमणीय प्रतिष्ठानपुरमें सर्वधर्मज्ञ तथा प्रजाकी रक्षामें तत्पर राजा पुरूरवाने सभीके द्वारा आदरणीय राज्य किया ॥ १-२ ॥

उनकी राज्य-मन्त्रणा अच्छी तरहसे गुप्त रहती थी और उन्हें दूसरे राज्योंकी मन्त्रणाओंका भलीभाँति ज्ञान रहता था। उनमें सर्वदा उत्साहशक्ति एवं उत्तम प्रभुशक्ति विद्यमान थी।

 

साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों नीतियाँ उन राजाके वशीभूत थीं। वे चारों वर्णों तथा आश्रमोंके लोगोंसे अपने-अपने धर्मोंका आचरण कराते हुए राज्यका शासन-कार्य करते थे। वे राजा पुरूरवा विपुल दक्षिणावाले विविध यज्ञ करते थे और पवित्र दान किया करते थे ॥ ३-५॥

राजा पुरूरवाके रूप, गुण, उदारता, शील, ऐश्वर्य एवं वीरताकी प्रशंसा सुनकर उर्वशी उनके वशीभूत हो गयी; उन दिनों वह भी ब्रह्माके शापसे पृथ्वीपर मनुष्य-योनिमें आयी थी। अतः उस मानिनीने उन राजाको गुणी जानकर उन्हें पतिके रूपमें स्वीकार कर लिया ॥ ६-७ ॥

 

वह वरांगना इस प्रकारकी शर्त रखकर वहीं रहने लगी। [उसने कहा] – हे राजन् ! ये दोनों भेड़के बच्चे मैं आपके पास धरोहरके रूपमें रखती हूँ। हे मानद ! आप इनकी रक्षा करें।

हे नृप ! [दूसरी शर्त है कि] मैं केवल घी ही खाऊँगी और कुछ नहीं और हे महाराज ! [ तीसरी शर्त है कि] सहवासके अतिरिक्त किसी दूसरे समयमें मैं आपको कभी वस्त्रविहीन अवस्थामें न देखूँ।

 

हे राजन् ! यदि आप इन कही गयी शर्तोंको भंग करेंगे तो मैं उसी समय आपको छोड़कर चली जाऊँगी, यह मैं सत्य कह रही हूँ ॥ ८-१० ॥

इस प्रकार उस कामिनी उर्वशीने जो कहा था, उसे राजाने स्वीकार कर लिया और उर्वशी शापसे उद्धार पानेकी इच्छासे राजा पुरूरवाको प्रतिज्ञाबद्ध करके वहीं रहने लगी ॥ ११ ॥

उर्वशीके द्वारा मुग्ध किये गये राजा सब धर्म- कर्म त्यागकर अनेक वर्षांतक भोग-विलासमें पड़े रहे। उसपर आसक्त मनवाले वे सदा उसीका चिन्तन करते रहते थे और उसपर अत्यधिक मोहित होनेके कारण एक क्षण भी उस उर्वशीके बिना नहीं रह सकते थे ॥ १२-१३॥

इस प्रकार जब बहुत वर्ष बीत गये, तब देवलोकमें इन्द्रने अपनी सभामें उर्वशीको अनुपस्थित देखकर गन्धर्वोंसे पूछकर कहा- हे गन्धर्वगण !

 

तुम सब लोग वहाँ जाओ और प्रतिज्ञाबद्ध राजाके घरसे भेड़ोंको चुराकर उर्वशीको ले आओ; क्योंकि उर्वशीके बिना मुझे यह स्थान अच्छा नहीं लगता। अतः जिस किसी भी उपायसे उस कामिनीको तुमलोग लाओ ॥ १४-१६ ॥

तब इन्द्रके ऐसा कहनेपर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धर्वोंने वहाँसे जाकर रात्रिके घोर अन्धकारमें राजा पुरूरवाको विहार करते देख उन दोनों भेड़ोंको चुरा लिया। तब आकाशमार्गमें जाते हुए चुराये गये वे दोनों भेड़ जोरसे चिल्लाने लगे ॥ १७-१८ ॥

अपने पुत्रके समान पाले हुए भेड़ोंका क्रन्दन सुनते ही उर्वशीने क्रोधित होकर राजा पुरूरवासे कहा- हे राजन् ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गयी।

 

आपके विश्वासपर मैं धोखेमें पड़ी; क्योंकि पुत्रके समान मेरे प्रिय भेड़ोंको चोरोंने चुरा लिया फिर भी आप घरमें स्त्रीकी तरह शयन कर रहे हैं ॥ १९-२०॥

अपनेको वीर समझनेवाले नपुंसक इस अधम स्वामीके द्वारा मैं नष्ट कर दी गयी। सर्वदा प्राणोंके समान मेरे दोनों भेड़ अब चले गये। उर्वशीको इस प्रकार विलाप करती देख प्रेममें आसक्त राजा पुरूरवा चोरोंके पीछे नग्नावस्थामें ही तुरंत दौड़ पड़े ॥ २१-२२ ॥

उसी समय गन्धर्वोद्वारा वहाँ राजाके भवनमें बिजली चमका दी गयी, जिसके कारण वहाँसे जानेकी इच्छावाली उर्वशीने राजाको नग्न देख लिया ॥ २३ ॥

गन्धर्व उन दोनों भेड़ोंको वहीं मार्गमें छोड़कर भाग गये। थके एवं नग्न राजा भेड़ोंको लेकर अपने घर चले आये। तब वे उर्वशीको वहाँसे गयी हुई देखकर अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे एवं लज्जित हुए। पतिको नग्न देखकर वह सुन्दरी उर्वशी चली गयी थी ॥ २४-२५ ॥

व्याकुल, लाचार, कामसे मोहित तथा एकमात्र उर्वशीमें आसक्त चित्तवाले राजा शोक तथा क्रन्दन करते हुए देश-देशमें भ्रमण करने लगे ॥ २६ ॥

इस प्रकार समस्त भूमण्डलपर भ्रमण करते हुए उन्होंने उर्वशीको कुरुक्षेत्रमें देखा। उसे देखते ही प्रसन्न मुखवाले नृपश्रेष्ठ राजा पुरूरवाने मधुर वाणीमें कहा- हे प्रिये ! ठहरो-ठहरो। हे कठोरहृदये ! मैं अब भी तुमपर आसक्त हूँ, मैं तुम्हारे वशमें हूँ; अतः मुझ निरपराधी पतिको तुम मत छोड़ो ॥ २७-२८ ॥

हे देवि ! जिस शरीरसे तुमने इतना प्रेम किया था, जिसे तुमने यहाँतक खींच लिया, वह शरीर आज यहीं गिर जायगा। हे सुन्दरि ! तुम्हारे द्वारा त्यक्त इस देहको भेड़िये और कौए खा जायेंगे ॥ २९ ॥

इस प्रकार विलाप करते हुए दुःखित, दीन, थके, कामातुर और अत्यन्त लाचार राजा पुरूरवासे उर्वशी कहने लगी ॥ ३० ॥

 

उर्वशी बोली- हे राजेन्द्र ! आप मूर्ख हैं। आपका ज्ञान कहाँ चला गया ? हे पृथ्वीपते ! भेड़ियोंके समान स्त्रियोंकी किसीसे मित्रता नहीं होती।

 

अतः राजाओंको चाहिये कि वे स्त्रियों और चोरोंपर कभी भी विश्वास न करें। अब आप अपने घर जाइये, सुख भोगिये और मनमें किसी प्रकारकी चिन्ता मत कीजिये ॥ ३१-३२ ॥

इस प्रकार अत्यन्त विषयासक्त होनेके कारण उर्वशीके समझानेपर भी राजाको ज्ञान नहीं हुआ। उस स्वेच्छाचारिणी अप्सराके स्नेहमें जकड़े रहनेके कारण उन्हें अपार दुःख प्राप्त हुआ ॥ ३३ ॥

सूतजी बोले- [हे मुनिजन !] इस प्रकार मैंने उर्वशीके महान् चरित्रका वर्णन आपलोगोंसे संक्षेपमें | कर दिया, जो वेदमें विस्तारपूर्वक वर्णित है ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्रयां संहितायां प्रथमस्कन्धे पुरूरवस उर्वश्याश्च चरित्रवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

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