Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 12(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वादशोऽध्यायः राजा सुद्युम्नकी इला नामक स्त्रीके रूपमें परिणति, इलाका बुधसे विवाह और पुरूरवाकी उत्पत्ति, भगवतीकी स्तुति करनेसे इलारूपधारी राजा सुद्युम्नकी सायुज्यमुक्ति)

Devi bhagwat puran skandh 1 chapter 12(देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्ध:द्वादशोऽध्यायःराजा सुद्युम्नकी इला नामक स्त्रीके रूपमें परिणति, इलाका बुधसे विवाह और पुरूरवाकी उत्पत्ति, भगवतीकी स्तुति करनेसे इलारूपधारी राजा सुद्युम्नकी सायुज्यमुक्ति)

 

[अथ द्वादशोऽध्यायः]

:-सूतजी बोले – तदनन्तर इलाके गर्भसे पुरूरवाने जन्म लिया, यह प्रसंग मैं आपलोगोंसे कहता हूँ। वे बुधपुत्र पुरूरवा बड़े धर्मात्मा, यज्ञ करनेवाले एवं दानशील थे ॥ १ ॥

 

सुद्युम्न नामक एक राजा थे। वे बड़े ही सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। एक बार वे सैन्धव घोड़ेपर आरूढ़ होकर आखेटके लिये वनमें गये। उनके साथ कुछ मन्त्री भी थे।वे राजा कानोंमें कमनीय कुण्डल पहने थे।

 

आजगव नामक धनुष तथा बाणोंसे भरा अद्भुत तरकस धारण करके उस वनमें भ्रमण करते हुए रुरुमृग, हिरण, खरगोश, सूअर, गैंड़ों, गवय, साँभर, भैंसों, वन-मुर्गोंको मारते हुए तथा यज्ञोपयोगी अनेक वनपशुओंका वध करते हुए राजा सुद्युम्न ‘कुमार’ नामक वनमें प्रविष्ट हुए ॥ २-५ ॥

 

वह दिव्य वन सुमेरु पर्वतके निचले भागमें था, जो सुन्दर मन्दार-वृक्षोंसे सुशोभित था, वहाँ अशोक वृक्षकी लताएँ फैली हुई थीं तथा मौलसिरीकी सुगन्धि उसे सुरभित कर रही थी। वह वन साल, ताड़, तमाल, चम्पा, कटहल, आम, कदम्ब और महुएके पेड़ोंसे सुशोभित था तथा जहाँ-तहाँ माधवी लता मण्डपके समान छायी हुई थी ॥ ६-७ ॥

 

उस वनमें दाडिम, नारियल तथा केलेके वृक्ष भी शोभित हो रहे थे और वह वन जूही, मालती तथा कुन्दकी पुष्पित लताओंसे चारों ओरसे घिरा हुआ था। वहाँ हंस और बतख विचरण कर रहे थे, बाँस [एक दूसरेसे रगड़ खानेके कारण हवामें मधुर ध्वनि कर रहे थे तथा कहीं भ्रमरोंकी मधुर गुंजार वन-प्रान्तको गुंजित कर रही थी। इस प्रकार वह वन सब प्रकारसे सुखदायक था ॥ ८-९ ॥

 

कोयलोंकी ध्वनिसे मण्डित तथा पुष्पोंसे युक्त वृक्षोंको देखकर अनुचरोंके साथ राजा सुद्युम्न अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १० ॥

राजर्षि सुद्युम्नने वहाँ प्रवेश किया और उसी क्षण वे स्त्रीके रूपमें परिणत हो गये; उनका घोड़ा भी घोड़ीके रूपमें हो गया। इससे वे राजा चिन्तामें पड़ गये। [वे मनमें सोचने लगे] यह क्या हो गया ?

 

चिन्तासे व्याकुल वे राजा सुद्युम्न बार-बार सोचते हुए बहुत दुःखी तथा लज्जित हुए। [उन्होंने सोचा] अब मैं क्या करूँ और स्त्रीत्व भावसे युक्त मैं घर कैसे जाऊँ ? मैं अब कैसे राज्य संचालन करूँगा ? मैं इस प्रकार किससे ठगा गया ? ॥ ११-१३॥

 

ऋषिगण बोले- हे लोमहर्षण सूतजी ! आपने यह बड़ी आश्चर्यजनक बात कही है। देवताके समान तेजस्वी राजा सुद्युम्न स्त्रीत्वको प्राप्त हो गये- इसका क्या कारण है? उसे बताइये। उस रमणीय वनमें राजाने कौन-सा कार्य किया था? हे सुव्रत ! आप विस्तारपूर्वक हमें बताइये ॥ १४-१५ ॥

 

सूतजी बोले – एक समयकी बात है- सनकादिक ऋषिगण अपने तेजसे दसों दिशाओंको प्रकाशित करते हुए शंकरजीके दर्शनके लिये वहाँ गये थे ॥ १६ ॥

 

उस समय महादेव शिव पार्वतीके साथ विहार कर रहे थे, इसी बीच उन सनकादिक ऋषियोंको वहाँ देखकर पार्वती अत्यन्त लज्जित हो गयीं। वे अतिमानिनी पार्वती काँपती हुई लज्जित होकर अलग खड़ी हो गयीं ॥ १७-१९ ॥

 

सनकादिक मुनि भी शिव एवं पार्वतीको विहार करते देखकर वहाँसे तत्काल लौटकर नर- नारायणके आश्रममें चले गये ॥ २० ॥

 

भगवान् शिव अपनी प्रिय पत्नीको लज्जित देखकर कहने लगे-तुम इस प्रकार लज्जित क्यों हो रही हो ? तुम्हारे सुख का उपाय मैं अभी करता हूँ। हे वरानने ! आजसे जो कोई भी पुरुष इस वनमें भूलसे भी आयेगा, वह स्त्री हो जायगा ॥ २१-२२॥

 

उन शिवजीने वनको ऐसा शाप दे दिया है- इसे जो लोग जानते हैं, वे उस दोषपूर्ण वनका पूर्णतः परित्याग कर देते हैं ॥ २३ ॥

 

वे सुद्युम्न भी अज्ञानवश सचिवोंके साथ उस वनमें चले गये, जिससे वे अपने सचिव आदि सहित स्त्री हो गये; इसमें शंकाका कोई कारण नहीं है ॥ २४ ॥

 

चिन्ताकुल होनेके कारण राजा सुद्युम्न लज्जावश घर नहीं गये और उस वनप्रदेशसे बाहर इधर-उधर घूमने लगे ॥ २५ ॥

 

स्त्रीत्व प्राप्त होनेपर उन महात्माका नाम इला पड़ गया। इस प्रकार स्त्रीरूपमें घूमते हुए एक दिन चन्द्रमाके युवा पुत्र बुधसे उनकी भेंट हो गयी ॥ २६ ॥

 

अनेक स्त्रियोंके साथ भ्रमण करती हुई उस हाव-भावमयी युवती रमणीको देखकर चन्द्रमाके पुत्र भगवान् बुध उसपर मोहित हो गये। वह रमणी भी उन चन्द्रपुत्र बुधको अपना पति बनानेके लिये आकुल हो उठी। इस प्रकार परस्पर अनुरागके कारण कुछ दिनोंमें उन दोनोंका संयोग हो गया ॥ २७-२८ ॥

 

उस चन्द्रमापुत्र बुधने इलाके गर्भसे पुरूरवा नामक श्रेष्ठ चक्रवर्ती पुत्रको उत्पन्न किया। पुत्रको जन्म देकर वह इला वनमें ही रहने लगी तथा चिन्तातुर हो उसने अपने कुलाचार्य मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीका स्मरण किया ॥ २९-३०॥

 

[इलाके स्मरण करते ही वसिष्ठजी वहाँ आये।] सुद्युम्नकी यह दशा देखकर उन्हें बड़ी दया आयी। तब उन्होंने समस्त लोकका कल्याण करनेवाले महादेव शिवको प्रसन्न किया ॥ ३१ ॥

 

वसिष्ठजीपर प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने उन्हें मनोभिलषित वर प्रदान किया। वसिष्ठजीने प्रिय राजा सुद्युम्नके पुनः पुरुष होनेके लिये प्रार्थना की ॥ ३२ ॥

 

शिवजीने अपना वचन सत्य करते हुए कहा- ‘हे ऋषे ! आजसे राजा सुद्युम्न एक मास पुरुष और एक मास स्त्री बने रहेंगे ‘ ॥ ३३ ॥

 

इस प्रकार वरदान पाकर राजा सुद्युम्न पुनः अपने घर आ गये और वे धर्मात्मा वहाँ वसिष्ठजीकी | कृपासे राज्य करने लगे ॥ ३४ ॥

 

वे जब स्त्रीके रूपमें रहते थे, तब अन्तःपुरमें रहते थे और जब पुरुषरूपमें रहते थे, तब राज्य करते थे। परंतु इस कारण उनकी प्रजा उनसे उद्विग्न होकर राजाके रूपमें उनका अभिनन्दन नहीं करती थी ॥ ३५ ॥

 

कुछ समयके बाद जब राजकुमार पुरूरवा युवक हो गया तब महाराज सुद्युम्न उसे प्रतिष्ठानपुरका राज्य सौंपकर वनमें चले गये ॥ ३६ ॥

 

अनेक प्रकारके वृक्षोंसे सुन्दर लगनेवाले उस वनमें रहते हुए राजा सुद्युम्नने देवर्षि नारदजीसे सर्वोत्तम नवाक्षर (नवार्ण) मन्त्रकी दीक्षा ली और अत्यन्त श्रद्धा-भक्तिके साथ मन लगाकर वे उस मन्त्रका जप करने लगे।

 

तदनन्तर भक्तोंका उद्धार करनेवाली जगज्जननी भगवती शिवाने सगुणरूप धारण करके उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय मनोरम तथा दिव्य स्वरूपवाली भगवती सिंहपर सवार होकर उनके समक्ष खड़ी हो गयीं। उनके नेत्र मदसे परिपूर्ण थे ॥ ३७-३९ ॥

 

ऐसी दिव्य रूपधारिणी श्रीदुर्गादेवीको अपने सामने देखकर स्नेहभरे नेत्रोंवाले (इलारूपी) राजा सुद्युम्न प्रेमपूर्वक सिर नवाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥

 

इलाने कहा- हे भगवति ! आपका जगत्-प्रसिद्ध वह दिव्य रूप, जो संसारके लिये कल्याणकारी है- मैंने देखा। हे जननि ! सुरसमूहसे सेवित आपके भुक्ति-मुक्तिप्रदायक चरणकमलकी मैं वन्दना कर रही हूँ ॥ ४१ ॥

 

हे अम्ब ! इस संसारमें कौन मनुष्य आपको सम्पूर्ण रूपसे जान सकता है? जबकि मुनि एवं देवगण भी उसे देखकर विमोहित रहते हैं। हे देवि ! आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य तथा मुझ जैसी अकिंचनपर दया-यह सब देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है ॥ ४२ ॥

 

हे माता ! जब शिव, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, कुबेर, अग्नि, वरुण, वायु, चन्द्रमा और अष्टवसु भी आपके प्रभावको नहीं जानते हैं, तब भला गुणरहित | मनुष्य आपके गुणोंको कैसे जान सकता है ? ॥ ४३ ॥

 

हे अम्ब ! यद्यपि परम तेजस्वी भगवान् विष्णु आपको समुद्रसे उत्पन्न, सब प्रकारके मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली साक्षात् सात्त्विकी शक्तिस्वरूपा लक्ष्मीके रूपमें समझते हैं,

 

ब्रह्मा भी आपको राजसी शक्तिस्वरूपा सरस्वती तथा शिवजी आपको तामसी शक्तिस्वरूपा महाकालीके रूपमें जानते हैं, तथापि हे अम्बिके ! वे भी आपकी निर्गुणात्मिका दिव्य शक्तिको भलीभाँति नहीं जानते ॥ ४४ ॥

 

हे भवानि ! कहाँ तो अत्यन्त मन्दबुद्धि मैं और कहाँ मुझपर अमित महिमाशाली तथा अमोघ प्रभाववाला आपका अनुग्रह ! मैं आपके कारुणिक चरित्रको जानती हूँ जो कि आप भक्तिभावयुक्त सेवकोंपर सर्वदा दया करती हैं ॥ ४५ ॥

 

यद्यपि कमलवनमें वास करनेवाली कमला होकर आपने भगवान् विष्णुको पतिके रूपमें वरण किया है, तथापि वे मधुसूदन आनन्ददायक व्यवहार नहीं करते।

 

वे आदिपुरुष विष्णु आदिशक्तिस्वरूपा आपके पवित्र हाथोंसे अपना पादसंवाहन कराकर अपने चरणोंको शुभ तथा पवित्र करते हैं ॥ ४६ ॥

 

वे पुराणपुरुष भगवान् विष्णु भी प्रसन्न होकर आपके चरणोंका आघात वैसे ही चाहते हैं, जैसे अशोकवृक्ष अपनी वृद्धिके लिये चाहता है ॥ ४७ ॥

 

हे सुन्दर चरित्रवाली देवि ! आप विष्णुके विशाल, शान्त एवं भूषणोंसे विभूषित वक्षःस्थलरूपी शय्यापर सर्वदा निवास करती हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता है, मानो सुन्दर श्याम मेघमें बिजली चमक रही हो, तब वे जगदीश्वर होते हुए भी क्या आपके वाहन नहीं बन जाते ? ॥ ४८ ॥

 

हे अम्ब ! यदि क्रोधित होकर आप उनको त्याग दें तो वे भगवान् विष्णु अपूजित और शक्तिहीन होकर कुछ नहीं कर पायेंगे; क्योंकि लोकमें भी देखा जाता है कि श्रीहीन, गुणरहित एवं उदासीन पुरुषको उनके कुटुम्बीजन भी त्याग देते हैं ॥ ४९ ॥

 

क्या ब्रह्मादि देवगण भी किसी समय युवतीरूपमें नहीं थे, जो दिन-रात आपके चरणकमलोंका ही आश्रय रखते हैं। मैं तो मानती हूँ कि आपने ही उन्हें पुंस्त्व प्रदान किया था। अतः हे अनन्त पराक्रमशालिनि ! मैं आपकी शक्तिका क्या वर्णन कर सकती हूँ ? ॥ ५०॥

 

‘आप न तो स्त्री हैं, न पुरुष; न निर्गुण हैं न सगुण’- ऐसी मेरी धारणा है। अतः आप जैसी भी हों-उन आपको मैं भक्तिपूर्वक बार-बार प्रणाम करती हूँ। आप मातासे मैं यही प्रार्थना करती हूँ कि आपमें मेरी अचल भक्ति बनी रहे ॥ ५१ ॥

 

सूतजी बोले- इस प्रकार स्तुति करके राजा सुद्युम्न उनके शरणागत हुए और भगवतीने भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें अपनी सायुज्य मुक्ति प्रदान की। तब उन देवीकी कृपासे सुद्युम्नने मुनियोंके लिये भी अति दुर्लभ शाश्वत परमपद प्राप्त किया ॥ ५२-५३॥

 

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे सुद्युम्नस्तुतिर्नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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