Ardhasloki Devi Bhagwat(अर्धश्लोकी देवीभागवत)
[अर्धश्लोकी देवीभागवत]
जिस प्रकार सप्तश्लोकी दुर्गा, सप्तश्लोकी गीता, पंचश्लोकी गणेशपुराण, चतुःश्लोकी भागवत, एकश्लोकी भागवत, एकश्लोकी रामायण, एकश्लोकी योगवासिष्ठ,
सार्धश्लोकी दुर्गा तथा एकश्लोकी महाभारत प्राप्त होता है; उसी प्रकार अर्धश्लोकी देवीभागवत भी प्राप्त होता है,जो तात्त्विक दृष्टिसे बड़े ही महत्त्वका है। पुराण-वाङ्मयमें देवीभागवतका अत्यन्त महनीय स्थान है।
इसमें भगवती जगदम्बाका पराशक्तिके रूपमें निरूपण हुआ है। इस पुराणके प्राकट्यके विषयमें इसी पुराणमें बताया गया है कि जब भगवान् वेदव्यासने अपने पुत्र श्रीशुकदेवजीको गृहस्थाश्रम ग्रहण करनेका परामर्श दिया
तो ज्ञानमार्गके उपासक श्रीशुकदेवजीने प्रवृत्तिमार्गको स्वीकार नहीं किया,तब वेदव्यासजीने मोक्षमार्गाभिलाषी अपने पुत्रसे कहा-हे महाभाग ! तुम मेरे द्वारा रचित वेदतुल्य श्रीमद्देवी-भागवतपुराणको पढ़ो, इसमें बारह स्कन्ध हैं,
यह पुराण सभी पुराणोंका आभूषण है और इसके सुननेमात्रसे सत्औ र असत् वस्तुओंका यथार्थ ज्ञान हो जाता है-
‘सदसज्ज्ञानविज्ञानं श्रुतमात्रेण जायते।’ (श्रीमद्देवीभा०१।१५।४९)
व्यासजीने इस पुराणके प्राकट्यकी कथा बताते हुए आगे कहा- हे महामते ! एक समयकी बात है, जब महाप्रलयावस्थामें एकार्णवके मध्य वटपत्रपर भगवान्, विष्णु बालरूपमें शयन कर रहे थे और बड़े ही विचारमग्न थे कि किस चिदात्मा शक्तिने मुझे इस बालरूपमें उत्पन्न किया है, मैं उन्हें कैसे जानूँ ?
उसी समय आदिशक्ति भगवतीने आकाशवाणीके रूपमें आधे श्लोकमें ही सम्पूर्ण अर्थको प्रदान करनेवाले ज्ञानको बताते हुए कहा- ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् ॥'(श्रीमद्देवीभा० १।१५।५२)
अर्थात् सब कुछ मैं ही हूँ और दूसरा कोई भी सनातन नहीं है।
भगवान् बालमुकुन्द सोचने लगे कि इस सत्य वचनका उच्चारण किसने किया, उस कहनेवालेको मैं कैसे जानूँ, वह स्त्री है या पुरुष ?
तब उन्होंने उस श्लोकार्थरूपी भागवतको अपने हृदयमें धारण कर लिया। वे उसके अर्थपर चिन्तन करने लगे और बार- बार उसका उच्चारण करने लगे। बालमुकुन्दको चिन्तातुर देखकर उसी समय भगवती पराशक्ति शंख, चक्र धारण | किये चतुर्भुजा महादेवीके रूपमें अपनी सखियोंसहित
वहाँ प्रकट हो गयीं, वे दिव्य वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत थीं और उनका स्वरूप बड़ा ही शान्त था। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं।
उनका दर्शनकर भगवान् विष्णु बड़े ही विस्मयमें पड़ गये और उन्होंने पूछा हे देवि ! कुछ समय पूर्व मैंने जो आधा श्लोक सुना, वह परम रहस्यमय वचन किसने कहा था, मुझे बतानेकी कृपा करें। इसपर देवीने कहा- मैं सगुणरूपा चतुर्भुजा भगवती हूँ। सब गुणोंका आलय होते हुए मैं निर्गुणा भी हूँ। वह आधा श्लोक निर्गुणा पराशक्तिने ही कहा था, आप इसे सब वेदोंका तत्त्वस्वरूप, कल्याणकारी और पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवत समझिये। ‘पुण्यं भागवतं विद्धि वेदसारं शुभावहम्।’ (श्रीमद्देवीभा० १।१६।१५) आप इसे सदा अपने चित्तमें रखिये और कभी विस्मृत न कीजिये। यह सब शास्त्रोंका सार है तथा भगवती महाविद्याके द्वारा प्रकाशित किया गया है। तीनों लोकोंमें इससे बढ़कर अन्य कुछ भी ज्ञातव्य नहीं है। ऐसा कहकर देवी अन्तर्धान हो गयीं और भगवान् विष्णुने वह श्लोकार्थ – देवीभागवतरूपी मन्त्र अपने हृदयदेशमें सदाके लिये धारण कर लिया। कुछ समय बाद जब ब्रह्माजी दैत्योंके भयसे डरकर भगवान् विष्णुकी शरणमें गये तो भगवान्को ध्यानमें स्थित होकर मन्त्र जप करते हुए देखकर ब्रह्माजी बोले- हे देवेश! आप किस देवताका जप कर रहे हैं, आपसे भी बढ़कर कोई है क्या ? तब विष्णुजी बोले- हे महाभाग ! हम सभीमें जो कार्यकारणरूपा शक्ति विद्यमान है, जिनके द्वारा यह संसार पालित-पोषित और तिरोहित किया जाता है, वे ही सनातनी पराविद्या हैं, वे ही सभी ईश्वरोंकी भी स्वामिनी हैं। उन भगवतीने आधे श्लोकमें जो कहा, वही वास्तविक श्रीमद्देवीभागवत है। प्रत्येक द्वापरयुगमें उसीका विस्तार होगा-
श्लोकार्थेन तया प्रोक्तं तद्वै भागवतं किल । विस्तरो भविता तस्य द्वापरादौ युगे तथा ॥(श्रीमद्देवीभा० १। १६ । २९)
इतना कहनेके अनन्तर व्यासजीने शुकदेवजीसे फिर कहा- हे महाभाग ! तब ब्रह्माजीने उस भागवतका संग्रह किया और उन्होंने इसे अपने पुत्र नारदजीको सुनाया। पूर्वकालमें वही भागवत देवर्षि नारदजीने मुझे दिया और फिर मैंने इसे बारह स्कन्धोंमें विस्तृत किया। हे पुत्र ! यह पुराण वेदतुल्य है; सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पाँच लक्षणोंसे युक्त है तथा भगवतीके उत्तम चरित्रोंसे ओत-प्रोत है। यह तत्त्वज्ञानके रससे परिपूर्ण, वेदार्थका उपबृंहण करनेवाला, ब्रह्मविद्याका निधान एवं भवसागरसे पार करनेवाला है। यह पुराण अत्यन्त पुण्यप्रद है। तुम इसके अठारह हजार श्लोकोंको हृदयंगम कर लो। यह पुराण पाठ तथा श्रवण करनेवालेके लिये अज्ञानका नाश करनेवाला, दिव्य, ज्ञानरूपी सूर्यका बोध करानेवाला, सुखप्रद, शान्तिदायक, धन्य, दीर्घ आयु प्रदान करनेवाला, कल्याणकारी तथा पुत्र-पौत्रकी वृद्धि करनेवाला है-
गृहाण त्वं महाभाग योग्योऽसि मतिमत्तरः । पुण्यं भागवतं नाम पुराणं पुरुषर्षभ ।। अष्टादशसहस्त्राणां श्लोकानां कुरु संग्रहम् । अज्ञाननाशनं दिव्यं ज्ञानभास्करबोधकम् ॥ सुखदं शान्तिदं धन्यं दीर्घायुष्यकरं शिवम् । शृण्वतां पठतां चेदं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥
(श्रीमद्देवीभा० १। १६ । ३५-३७) इस प्रकार वेदव्यासजीके द्वारा प्रेरित किये जानेपर व्यासजीके शिष्य सूतजीने तथा श्रीशुकदेवजीने श्लोकार्धसे विस्तृत हुए श्रीमद्देवीभागवतपुराणका अध्ययन किया।
भगवतीकी कृपासे भगवान् बालमुकुन्दको जो आधे श्लोकमें देवीभागवत प्राप्त हुआ, उसे ब्रह्माजीने ग्रहण किया और फिर उसीको व्यासजीने बारह स्कन्धोंमें विस्तृत किया, वही देवीभागवत हम सबको प्राप्त हुआ। यह भगवती आदिशक्ति तथा भगवान् वेदव्यासजीका जीवोंपर महान् अनुग्रह है।
(संस्कृत श्लोक: -)
[१. ‘ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि०’ इत्यादि सात श्लोक ।
२. ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म०’ इत्यादि सात श्लोक।
३. श्रीविघ्नेशपुराणसारमुदितम्० इत्यादि पाँच श्लोक।
४. अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम् । पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि । तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽ भासो यथा तमः ॥ यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु । प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥]
(श्रीमद्भा० २।९।३२-३५)
५. आदौ देवकिदेवगर्भजननं गोपीगृहे वर्धनम् मायापूतनजीवतापहरणं गोवर्धनोद्धारणम् । कंसच्छेदनकौरवादिहननं कुन्तीसुतापालनम् एतद् भागवतं पुराणकथितं श्रीकृष्णलीलामृतम् ॥
६. आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं काञ्चनं वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम् । वालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लङ्कापुरीदाहनं पश्चाद् रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ॥
७. तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः । स जीवति मनो यस्य मननेनोपजीवति ॥ ८. मधुकैटभनाशं च महिषासुरघातनम् । शक्रादिस्तुतिकं चैव दूतसंवाद एव च ॥ नारायणीस्तुतिस्तथा । सार्धपाठमिदं प्रोक्तं नवपाठफलप्रदम् ॥ शुम्भराजवधश्चैव
९. आदौ पाण्डवधार्तराष्ट्रजननं लाक्षागृहे दाहनं द्यूते श्रीहरणं वने विचरणं मत्स्यालये वर्तनम् । लीलागोग्रहणं रणे विहरणं सन्धिक्रियाजृम्भणं पश्चाद् भीष्मसुयोधनादिहननं चैतन्महाभारतम् ॥