Devi Bhagwat importance (श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य)

[श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य]

(Devi Bhagwat importance )

 

श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण सभी पुराणोंमें अतिश्रेष्ठ है, जिसमें तीनों लोकोंकी जननी साक्षात् सनातनी भगवतीकी महिमा गायी गयी है। जो श्रीमद्देवीभागवतके आधे श्लोक या चौथाई श्लोकको भी प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।

जिस घरमें नित्य श्रीमद्देवीभागवतग्रन्थका पूजन किया जाता है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है तथा उसमें निवास करनेवाले लोगोंके पापोंका नाश हो जाता है।

जो व्यक्ति भक्ति-भावसे देवीके इस भागवतपुराणका पाठ अथवा श्रवण करता है; वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

अमृतके पानसे तो केवल एक ही मनुष्य अजर-अमर होता है, किंतु भगवतीका कथारूप अमृत सम्पूर्ण कुलको ही अजर- अमर बना देता है।

सभी अठारह पुराणोंमें यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षको प्रदान करनेवाला है।

जो लोग सदा भक्ति- श्रद्धापूर्वक श्रीमद्देवीभागवतकी कथा सुनते हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होनेमें रंचमात्र भी विलम्ब नहीं होता, इसलिये मनुष्योंको इस पुराणका सदा पठन-श्रवण करना चाहिये।

पूरे दिन, दिनके आधे समयतक, चौथाई समयतक, मुहूर्तभर अथवा एक क्षण भी जो लोग भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, उनकी कभी भी दुर्गति नहीं होती।

समस्त तीर्थ, पुराण और व्रत [अपनी श्रेष्ठताका वर्णन करते हुए] तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक मनुष्य श्रीमद्देवीभागवतका सम्यक् रूपसे श्रवण नहीं कर लेते।

मनुष्योंके लिये पापरूपी अरण्य तभीतक दुःखप्रद एवं कंटकमय रहता है, जबतक श्रीमद्देवीभागवतरूपी परशु (कुठार) उपलब्ध नहीं हो जाता।

मनुष्योंको उपसर्ग (ग्रहण)-रूपी घोर अन्धकार तभीतक कष्ट पहुँचाता है, जबतक श्रीमद्देवीभागवतरूपी सूर्य उनके सम्मुख उदित नहीं हो जाता।

इस संसारमें जो मनुष्य विशेष श्रद्धाके साथ उच्च विचारोंसे युक्त होकर सम्पूर्ण पुराणोंके सारस्वरूप, समस्त वेदोंकी तुलना करनेवाले तथा नानाविध प्रमाणोंसे परिपूर्ण इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका पाठ करता है तथा इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह ऐश्वर्य तथा ज्ञानसे सम्पन्न हो जाता है।१४

[ महर्षि व्यासने राजा जनमेजयसे कहा – ]

महादेवीका यह परम अद्भुत पुराण सुनकर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और वह भगवतीका प्रियतम हो जाता है। हे नृपश्रेष्ठ ! जिस देवीभागवतमें साक्षात् मूलप्रकृतिका ही प्रतिपादन किया गया है, उसके समान अन्य कोई पुराण भला कैसे हो सकता है?

हे जनमेजय ! जिस देवीभागवतपुराणका पाठ करनेसे वेद पाठके समान पुण्य प्राप्त होता है, उसका पाठ श्रेष्ठ विद्वानोंको प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ।

[ श्रीसूतजी मुनियोंसे बोले- जो इस श्रेष्ठ श्रीमद्देवीभागवतका नित्य भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, उसके लिये कुछ भी कहीं और कभी दुर्लभ नहीं है।

इसके श्रवणसे पुत्रहीन व्यक्तिको पुत्र, धन चाहनेवालेको धन और विद्याके अभिलाषीको विद्याकी प्राप्ति हो जाती है, साथ ही सम्पूर्ण पृथ्वीलोकमें वह कीर्तिमान् हो जाता है।

जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या अथवा मृतवन्ध्या हो; वह इस पुराणके श्रवणसे उस दोषसे मुक्त हो जाती है; इसमें सन्देह नहीं है।

यह पुराण जिस घरमें विधिपूर्वक पूजित होकर स्थित रहता है, उस घरको लक्ष्मी तथा सरस्वती कभी नहीं छोड़तीं और वेताल, डाकिनी तथा राक्षस आदि वहाँ झाँकतेतक नहीं।

यदि ज्वरग्रस्त मनुष्यको स्पर्श करके एकाग्रचित्त होकर इस पुराणका पाठ किया जाय तो दाहक ज्वर उसके मण्डलको छोड़कर भाग जाता है। इसकी एक सौ आवृत्तिके पाठसे क्षयरोग समाप्त हो जाता है।

जो मनुष्य प्रत्येक सन्ध्याके अवसरपर दत्तचित्त होकर सन्ध्या-विधि सम्पन्न करके इस पुराणके एक-एक अध्यायका पाठ करता है, वह ज्ञानवान् हो जाता है।

शारदीय नवरात्रमें परम भक्तिसे इस पुराणका नित्य पाठ करना चाहिये। इससे जगदम्बा उस व्यक्तिपर प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषासे भी अधिक फल प्रदान करती हैं।

वैष्णव, शैव, सौर तथा गाणपत्यजनोंको अपने-अपने इष्टदेवकी शक्तिकी सन्तुष्टिके लिये चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ- इन मासोंके चारों नवरात्रोंमें इस पुराणका प्रयत्नपूर्वक पाठ करना चाहिये; इससे रमा, उमा आदि शक्तियाँ उसपर सदा प्रसन्न रहती हैं।

हे मुने ! इसी प्रकार वैदिकोंको भी अपनी गायत्रीकी प्रसन्नताके लिये इसका नित्य पाठ करना चाहिये। हे श्रेष्ठ मुनियो ! यह पुराण परम पवित्र तथा वेदोंका सारस्वरूप है। इसके पढ़ने तथा सुननेसे वेदपाठके समान फल प्राप्त होताहै। [ श्रीमद्देवीभागवत ]



[श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य संस्कृत ]

(Devi Bhagwat importance in sanskrit)



(संस्कृत श्लोक: -)

देवीभागवतं नाम पुराणं परमोत्तमम् । त्रैलोक्यजननी साक्षाद् गीयते यत्र शाश्वती ।।

श्रीमद्भागवतं यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि । श्लोकार्थं श्लोकपादं वा स याति परमां गतिम् ॥

पूजितं यद्गृहे नित्यं श्रीभागवतपुस्तकम् । तद्गृहं तीर्थभूतं हि वसतां पापनाशकम् ।।

यस्तु भागवतं देव्याः पठेद् भक्त्या शृणोति वा । धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं च लभते नरः ॥

सुधां पिबन्नेक एव नरः स्यादजरामरः । देव्याः कथामृतं कुर्यात् कुलमेवाजरामरम् ॥

अष्टादशपुराणानां मध्ये सर्वोत्तमं परम् । देवीभागवतं नाम धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥

ये शृण्वन्ति सदा भक्त्या देव्या भागवतीं कथाम् । तेषां सिद्धिर्न दूरस्था तस्मात् सेव्या सदा नृभिः ॥

दिनमर्धं तदर्थं वा मुहूर्तं क्षणमेव वा। ये शृण्वन्ति नरा भक्त्या न तेषां दुर्गतिः क्वचित् ॥

तावद् गर्जन्ति तीर्थानि पुराणानि व्रतानि च। यावन्न श्रूयते सम्यग् देवीभागवतं नरैः ॥

तावत् पापाटवी नृणां क्लेशदादभ्रकण्टका। यावन्न परशुः प्राप्तो देवीभागवताभिधः ॥

तावत् क्लेशावहं नृणामुपसर्गमहातमः । यावन्नैवोदयं प्राप्तो देवीभागवतोष्णगुः ॥

इदमखिलकथानां सारभूतं पुराणं निखिलनिगमतुल्यं सप्रमाणानुविद्धम् ।पठति परमभावाद्यः शृणोतीह भक्त्या स भवति धनवान्वै ज्ञानवान्मानवोऽत्र ।

श्रीमद्देवी

श्रुत्वैतत्तु महादेव्याः पुराणं परमाद्भुतम् । कृतकृत्यो भवेन्मर्यो देव्याः प्रियतमो हि सः ॥

मूलप्रकृतिरेवैषा यत्र तु प्रतिपाद्यते । समं तेन पुराणं स्यात्कथमन्यन्नृपोत्तम ।

पाठे वेदसमं पुण्यं यस्य स्याज्जनमेजय । पठितव्यं प्रयत्नेन तदेव विबुधोत्तमैः ॥

नित्यं यः शृणुयाद्भक्त्या देवीभागवतं परम् । न तस्य दुर्लभं किञ्चित्कदाचित्क्वचिदस्ति हि ॥

अपुत्रो लभते पुत्रान्धनार्थी धनमाप्नुयात् । विद्यार्थी प्राप्नुयाद्विद्यां कीर्तिमण्डितभूतलः ॥

वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवन्ध्या च याङ्गना । श्रवणादस्य तद्दोषान्निवर्तेत न संशयः ॥

यद्गेहे पुस्तकं चैतत्पूजितं यदि तिष्ठति । तद्गेहं न त्यजेन्नित्यं रमा चैव सरस्वती ।।

नेक्षन्ते तत्र वेतालडाकिनीराक्षसादयः । ज्वरितं तु नरं स्पृष्ट्वा पठेदेतत्समाहितः ॥

मण्डलान्नाशमाप्नोति ज्वरो दाहसमन्वितः । शतावृत्त्यास्य पठनात्क्षयरोगो विनश्यति ।।

प्रतिसन्ध्यं पठेद्यस्तु सन्ध्यां कृत्वा समाहितः । एकैकमस्य चाध्यायं स नरो ज्ञानवान्भवेत् ।।

नवरात्रे पठेन्नित्यं शारदीयेऽतिभक्तितः । तस्याम्बिका तु सन्तुष्टा ददातीच्छाधिकं फलम् ॥

वैष्णवैश्चैव शैवैश्च रमोमा प्रीयते सदा। सौरैश्च गाणपत्यैश्च स्वेष्टशक्तेश्च तुष्टये ॥

पठितव्यं प्रयत्नेन नवरात्रचतुष्टये । वैदिकैर्निजगायत्रीप्रीतये नित्यशो मुने ॥

वेदसारमिदं पुण्यं पुराणं द्विजसत्तमाः ।वेदपाठसमं पाठे श्रवणे च तथैव हि ॥

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