Bhagwat puran skandh 5 chapter 24(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध:अध्याय 24 राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्णन)

Bhagwat puran skandh 5 chapter 24(भागवत पुराण पञ्चमः स्कन्ध:अध्याय 24 राहु आदिकी स्थिति, अतलादि नीचेके लोकोंका वर्णन)

संस्कृत श्लोक: –

 

श्रीशुक उवाच

अधस्तात्सवितुर्योजनायुते स्वर्भानु-र्नक्षत्रवच्चरतीत्येके योऽसावमरत्वं ग्रहत्वं चालभत भगवदनुकम्पया स्वयमसुरापसदः सैंहिकेयो ह्यतदर्हस्तस्य तात जन्म कर्माणि चोपरिष्टाद्वक्ष्यामः ।।१।।

यददस्तरणेर्मण्डलं प्रतपतस्तद्विस्तरतो योजनायुतमाचक्षते द्वादशसहस्त्रं सोमस्य त्रयोदशसहस्रं राहोर्यः पर्वणि तद्व्यवधानद्वैरानुबन्धः सूर्याचन्द्रमसावभि- धावति ।।२।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! कुछ लोगोंका कथन है कि सूर्यसे दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रोंके समान घूमता है। इसने भगवान्‌की कृपासे ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होनेके कारण किसी प्रकार इस पदके योग्य नहीं है। इसके जन्म और कर्मोंका हम आगे वर्णन करेंगे ।।१।।

सूर्यका जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डलका विस्तार बारह हजार योजन है और राहुका तेरह हजार योजन।

अमृतपानके समय राहु देवताके वेषमें सूर्य और चन्द्रमाके बीचमें आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमाने इसका भेद खोल दिया था; उस वैरको याद करके यह अमावास्या और पूर्णिमाके दिन उनपर आक्रमण करता है ।।२।।

संस्कृत श्लोक: –

 

तन्निशम्योभयत्रापि भगवता रक्षणाय प्रयुक्तं सुदर्शनं नाम भागवतं दयितमस्त्रं तत्तेजसा दुर्विषहं मुहुः परिवर्तमानमभ्यवस्थितो मुहूर्तमुद्विजमानश्चकितहृदय आरादेव निवर्तते तदुपरागमिति वदन्ति लोकाः ।।३।। ततोऽधस्तात्सिद्धचारणविद्याधराणां सदनानि तावन्मात्र एव ।।४।। ततोऽधस्ताद्यक्षरक्षः-पिशाचप्रेतभूतगणानां विहाराजिरमन्तरिक्षं यावद्वायुः प्रवाति यावन्मेघा उपलभ्यन्ते ।।५।। ततोऽधस्ताच्छतयोजनान्तर इयं पृथिवी यावद्धंसभासश्येनसुपर्णादयः पतत्त्रिप्रवरा उत्पतन्तीति ।।६।। उपवर्णितं भूमेर्यथासंनिवेशाव-स्थानमवनेरप्यधस्तात् सप्त भूविवरा एकैकशो योजनायुतान्तरेणायामविस्तारेणोपक्लृप्ता अतलं वितलं सुतलं तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति ।।७।। एतेषु हि बिलस्वर्गेषु स्वर्गादप्यधिककाम भोगौश्वर्यानन्द भूतिविभूतिभिः सुसमृद्धभवनोद्यानाक्रीडविहारेषु दैत्यदानव-काद्रवेया नित्यप्रमुदितानुरक्तकलत्रापत्यबन्धु-सुहृदनुचरा गृहपतय ईश्वरादप्यप्रतिहतकामा मायाविनोदा निवसन्ति ।।८।। येषु महाराज मयेन मायाविना विनिर्मिताः पुरो नानामणिप्रवर-प्रवेकविरचितविचित्र भवनप्राकारगोपुरसभाचैत्य- चत्वरायतनादिभिर्नागासुरमिथुनपारावत शुक- सारिकाकीर्णकृत्रिमभूमिभिर्विवरेश्वरगृहोत्तमैः समलङ्कृताश्चकासति ।।९।।

यह देखकर भगवान्ने सूर्य और चन्द्रमाकी रक्षाके लिये उन दोनोंके पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर दिया है।

वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेजसे उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है।

उसके उतनी देर उनके सामने ठहरनेको ही लोग ‘ग्रहण’ कहते हैं ।। ३ ।। राहुसे दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदिके स्थान हैं ।।४।।

उनके नीचे जहाँतक वायुकी गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतोंका विहारस्थल है ।।५।।

उससे नीचे सौ योजनकी दूरीपर यह पृथ्वी है। जहाँतक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहींतक इसकी सीमा है ।।६।।

पृथ्वीके विस्तार और स्थिति आदिका वर्णन तो हो ही चुका है। इसके भी नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नामके सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं।

ये एकके नीचे एक दस-दस दजार योजनकी दूरीपर स्थित हैं और इनमेंसे प्रत्येककी लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है ।।७।।

ये भूमिके बिल भी एक प्रकारके स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्गसे भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान- सुख और धन-सम्पत्ति है।

यहाँके वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीडास्थलोंमें दैत्य, दानव और नाग तरह-तरहकी मायामयी क्रीडाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गार्हस्थ्यधर्मका पालन करनेवाले हैं।

उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवकलोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगोंमें बाधा डालनेकी इन्द्रादिमें भी सामर्थ्य नहीं है ।।८।।

महाराज! इन बिलोंमें मायावी मयदानवकी बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभासे जगमगा रही हैं, जो अनेक जातिकी सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियोंसे रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगरद्वार, सभाभवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहोंसे सुशोभित हैं;

तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों (फर्शों)-पर नाग और असुरोंके जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालाधिपतियोंके भव्य भवन उन पुरियोंकी शोभा बढ़ाते हैं ।।९।।

वहाँके बगीचे भी अपनी शोभासे देवलोकके उद्यानोंकी शोभाको मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलोंके गुच्छों और कोमल कोंपलोंके भारसे झुकी रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरहकी लताओंने अपने अंगपाशसे बाँध रखा है।

वहाँ जो निर्मल जलसे भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगोंके जोड़े विलास करते रहते हैं। इन वृक्षों और जलाशयोंकी सुषमासे वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयोंमें रहनेवाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है।

साथ ही जलके ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कह्लार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदिके समुदाय भी हिलने लगते हैं। इन कमलोंके वनोंमें रहनेवाले पक्षी अविराम क्रीडा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँतिकी बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं,जिसे सुनकर मन और इन्द्रियोंको बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियोंमें उत्सव-सा छा जाता है ।।१०।।

वहाँ सूर्यका प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि कालविभागका भी कोई खटका नहीं देखा जाता ।।११।। वहाँके सम्पूर्ण अन्धकारको बड़े-बड़े नागोंके मस्तकोंकी मणियाँ ही दूर करती हैं ।।१२।।

इन लोकोंके निवासी जन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादिका सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओंके सेवनसे उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते तथा झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देहका कान्तिहीन हो जाना, शरीरमेंसे दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयुके साथ शरीरकी अवस्थाओंका बदलना – ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं ।।१३।।

संस्कृत श्लोक: –

 

उद्यानानि चातितरां मनइन्द्रियानन्दिभिः कुसुमफलस्तबकसुभगकिसलयावनतरुचिर-विटपविटपिनां लताङ्गालिङ्गितानां श्रीभिः समिथुनविविधविहङ्गमजलाशयानाममलजल-पूर्णानां झषकुलोल्लङ्घनक्षुभितनीरनीरजकुमुद- कुवलयकलारनीलोत्पललोहितशतपत्रादिवनेषु दिभिरिन्द्रियोत्सवैरमरलोकश्रियमतिशयितानि कृतनिकेतनानामेकविहाराकुलमधुरविविधस्वना- ।।१०।। यत्र ह वाव न भयमहोरात्रादिभिः कालविभागैरुपलक्ष्यते ।।११।।

यत्र हि महाहिप्रवरशिरोमणयः सर्वं तमः प्रबाधन्ते ।।१२।।

न वा एतेषु वसतां दिव्यौषधिरसरसायनान्नपानस्नानादिभिराधयो व्याधयो देहवैवर्ण्यदौर्गन्ध्यस्वेदक्लमग्लानिरिति वयोऽव-स्थाश्च वलीपलितजरादयश्च भवन्ति ।।१३।।

न हि तेषां कल्याणानां प्रभवति कुतश्चन मृत्युर्विना

भगवत्तेजसश्चक्रापदेशात् ।।१४।। यस्मिन् प्रविष्टेऽसुरवधूनां प्रायः पुंसवनानि भयादेव स्रवन्ति पतन्ति च ।।१५।।

अथातले मयपुत्रोऽसुरो बलो निवसति येन ह वा इह सृष्टाः षण्णवतिर्मायाः काश्चनाद्यापि मायाविनो धारयन्ति यस्य च जृम्भमाणस्य मुखतस्त्रयः स्त्रीगणा उदपद्यन्त स्वैरिण्यः कामिन्यः पुंश्चल्य इति या वै विलायनं प्रविष्टं पुरुषं रसेन हाटकाख्येन साधयित्वा स्वविलासावलोकनानुरागस्मितसंलापोपगूहनादिभिः स्वैर किल ईश्वरोऽहं रमयन्ति यस्मिन्नुपयुक्ते पुरुष सिद्धोऽहमित्ययुतमहागजबलमात्मानमभिमन्यमानः कत्थते मदान्ध इव ।।१६।।

ततोऽधस्ताद्वितले हरो भगवान् हाटकेश्वरः स्वपार्षदभूतगणावृतः १

प्रजापतिसर्गोपबृंहणाय भवो भवान्या सह मिथुनीभूत आस्ते यतः प्रवृत्ता सरित्प्रवरा हाटकी नाम भवयोर्वीर्येण यत्र चित्रभानुर्मातरिश्वना समिध्यमान ओजसा पिबति तन्निष्यूतं हाटकाख्यं सुवर्णं भूषणेनासुरेन्द्रावरोधेषु पुरुषाः सह पुरुषीभिर्धारयन्ति ।।१७।।

उन पुण्यपुरुषोंकी भगवान्‌के तेजरूप सुदर्शन चक्रके सिवा और किसी साधनसे मृत्यु नहीं हो सकती ।।१४।। सुदर्शन चक्रके तो आते ही भयके कारण असुररमणियोंका गर्भस्राव और गर्भपात हो जाता है ।।१५।।

अतल लोकमें मयदानवका पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानबे प्रकारकी माया रची है। उनमेंसे कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषोंमें पायी जाती हैं।

उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुखसे स्वैरिणी (केवल अपने वर्णके पुरुषोंसे रमण करनेवाली), कामिनी (अन्य वर्णोंके पुरुषोंसे भी समागम करनेवाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चंचल स्वभाववाली) – तीन प्रकारकी स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं।

ये उस लोकमें रहनेवाले पुरुषोंको हाटक नामका रस पिलाकर सम्भोग करनेमें समर्थ बना लेती हैं और फिर उनके साथ अपनी हाव- भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिंगनादिके द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रसको पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपनेको दस हजार हाथियोंके समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ,’ इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करने लगता है ।।१६।।

उसके नीचे वितल लोकमें भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणोंके सहित रहते हैं। वे प्रजापतिकी सृष्टिकी वृद्धिके लिये भवानीके साथ विहार करते रहते हैं।

उन दोनोंके तेजसे वहाँ हाटकी नामकी एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जलको वायुसे प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साहसे पीता है। वह जो हाटक नामका सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणोंको दैत्यराजोंके अन्तः पुरोंमें स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं ।।१७।।

संस्कृत श्लोक: –

 

ततोऽधस्तात्सुतले उदारश्रवाः पुण्यश्लोको विरोचनात्मजो बलिर्भगवता महेन्द्रस्य प्रियं चिकीर्षमाणेनादितेर्लब्धकायो भूत्वा वटुवामनरूपेण पराक्षिप्तलोकत्रयो भगवदनुकम्पयैव पुनः प्रवेशित इन्द्रादिष्वविद्यमानया सुसमृद्धया श्रियाभिजुष्टः स्वधर्मेणाराधयंस्तमेव भगवन्तमाराधनीयमपगत-साध्वस आस्तेऽधुनापि ।।१८।। नो एवैतत्साक्षात्कारो भूमिदानस्य यत्तद्भगवत्यशेषजीवनिकायानां जीवभूतात्मभूते परमात्मनि वासुदेव तीर्थतमे पात्र उपपन्ने परया श्रद्धया परमादरसमाहितमनसा सम्प्रतिपादितस्य साक्षादपवर्गद्वारस्य यद्विलनिलयैश्वर्यम् ।।१९।। यस्य ह वाव क्षुत्पतनप्रस्खलनादिषु विवशः सकृन्नामाभिगृणन् पुरुषः कर्मबन्धनमञ्जसा विधुनोति यस्य हैव प्रतिबाधनं मुमुक्षवोऽन्यथैवोपलभन्ते ।।२०।। तद्भक्ता-नामात्मवतां सर्वेषामात्मन्यात्मद आत्मतयैव ।।२१।। न वै भगवान्नूनममुष्या-नुजग्राह यदुत पुनरात्मानुस्मृतिमोषणं भगवतानधिगतान्योपायेन याच्ञाच्छलेनापहृत-स्वशरीरावशेषितलोकत्रयो वरुणपाशैश्च सम्प्रतिमुक्तो गिरिदर्यां चापविद्ध इति होवाच ।।२३।।

मायामयभोगैश्वर्यमेवातनुतेति

यत्तद्-

वितलके नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्रकीर्ति विरोचनपुत्र बलि रहते हैं। भगवान्ने इन्द्रका प्रिय करनेके लिये अदितिके गर्भसे वटु-वामनरूपमें अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे।

फिर भगवान्‌की कृपासे ही उनका इस लोकमें प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादिके पास भी नहीं है। अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभुकी अपने धर्माचरणद्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं ।।१८।।

राजन् ! सम्पूर्ण जीवोंके नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवीत्रतम पात्रके आनेपर उन्हें परम श्रद्धा और आदरके साथ स्थिर चित्तसे दिये हुए भूमिदानका यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलिको सुतल लोकका ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्षका ही द्वार है ।।१९।।

भगवान्‌का तो छींकने, गिरने और फिसलनेके समय विवश होकर एक बार नाम लेनेसे भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धनको काट देता है, जब कि मुमुक्षुलोग इस कर्मबन्धनको योगसाधन आदि अन्य अनेकों उपायोंका आश्रय लेनेपर बड़े कष्टसे कहीं काट पाते हैं ।।२०।।

अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियोंको स्वस्वरूप प्रदान करनेवाले और समस्त प्राणियोंके आत्मा श्रीभगवान्‌को आत्मभावसे किये हुए भूमिदानका यह फल नहीं हो सकता ।। २१ ।।

भगवान्ने यदि बलिको उसके सर्वस्वदानके बदले अपनी विस्मृति करानेवाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उसपर यह कोई अनुग्रह नहीं किया ।। २२।।

जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान्ने याचनाके छलसे उसका त्रिलोकीका राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुणके पाशोंमें बाँधकर पर्वतकी गुफामें डाल दिये जानेपर उसने कहा था ।।२३।।

संस्कृत श्लोक: –

 

नूनं बतायं भगवानर्थेषु न निष्णातो योऽसाविन्द्रो यस्य सचिवो मन्त्राय वृत एकान्ततो बृहस्पतिस्तमतिहाय स्वयमुपेन्द्रेणात्मानमयाचतात्मनश्चाशिषो नो एव तद्दास्यमतिगम्भीरवयसः कालस्य मन्वन्तरपरिवृत्तं कियल्लोकत्रयमिदम् ।।२४।। यस्यानुदास्यमेवा-स्मत्पितामहः किल वने न तु स्वपित्र्यं यदुताकुतोभयं पदं दीयमानं भगवतः परमिति भगवतोपरते खलु स्वपितरि ।।२५।। तस्य महानुभावस्यानुपथममृजितकषायः को वास्मद्विधः परिहीणभगवदनुग्रह उपजिगमिष-तीति ।।२६।। तस्यानुचरितमुपरिष्टाद्विस्तरिष्यते यस्य भगवान् स्वयमखिलजगद्‌गुरुर्नारायणो द्वारि गदापाणिरवतिष्ठते निजजनानुकम्पितहृदयो येनाङ्गुष्ठेन पदा दशकन्धरो योजनायुतायुतं दिग्विजय उच्चाटितः ।।२७।।

ततोऽधस्तात्तलातले मयो नाम दानवेन्द्र-स्त्रिपुराधिपतिर्भगवता पुरारिणा त्रिलोकीशं चिकीर्षुणा निर्दग्धस्वपुरत्रयस्तत्प्रसादाल्लब्धपदो मायाविनामाचार्यो महादेवेन परिरक्षितो विगतसुदर्शनभयो महीयते ।।२८।।

‘खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करनेमें कुशल नहीं है। इसने सम्मति लेनेके लिये अनन्यभावसे बृहस्पतिजीको अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णुभगवान्से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे।

ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तरतक ही रहते हैं, जो अनन्त कालका एक अवयवमात्र है। भगवान्‌के कैंकर्यके आगे भला, इन तुच्छ भोगोंका क्या मूल्य है ।।२४।।

हमारे पितामह प्रह्लादजीने- भगवान्‌के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपुके मारे जानेपर-प्रभुकी सेवाका ही वर माँगा था। भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करनेवाला समझकर उन्होंने अपने पिताका निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया ।। २५।।

वे बड़े महानुभाव थे। मुझपर तो न भगवान्‌की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं; फिर मेरे जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँचनेका साहस कर सकता है? ।।२६।।

राजन् ! इस बलिका चरित हम आगे (अष्टम स्कन्धमें) विस्तारसे कहेंगे। अपने भक्तोंके प्रति भगवान्‌का हृदय दयासे भरा रहता है। इसीसे अखिल जगत्‌के परम पूजनीय गुरु भगवान् नारायण हाथमें गदा लिये सुतल लोकमें राजा बलिके द्वारपर सदा उपस्थित रहते हैं।

एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुँचा, तब उसे भगवान्ने अपने पैरके अँगूठेकी ठोकरसे ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था ।। २७।।

सुतललोकसे नीचे तलातल है। वहाँ त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। पहले तीनों लोकोंको शान्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् शंकरने उसके तीनों पुर भस्म कर दिये थे।

फिर उन्हींकी कृपासे उसे यह स्थान मिला। वह मायावियोंका परम गुरु है और महादेवजीके द्वारा सुरक्षित है, इसलिये उसे सुदर्शन चक्रसे भी कोई भय नहीं है। वहाँके निवासी उसका बहुत आदर करते हैं ।। २८।।

संस्कृत श्लोक: –

 

ततोऽधस्तान्महातले काद्रवेयाणां सर्पाणां नैकशिरसां क्रोधवशो नाम गणः कुहकतक्षक-कालियसुषेणादिप्रधाना पुरुषवाहादनवरतमुद्विजमानाः विहरन्ति ।। २९।। महाभोगवन्तः पतत्त्रिराजाधिपतेः स्वकलत्रापत्यसुहृत्कुटुम्बसङ्गेन क्वचित्प्रमत्ता

ततोऽधस्ताद्रसातले दैतेया दानवाः पणयो नाम निवातकवचाः कालेया हिरण्यपुरवासिन इति विबुधप्रत्यनीका उत्पत्त्या महौजसो महासाहसिनो भगवतः सकललोकानुभावस्य हरेरेव तेजसा प्रतिहतबलावलेपा बिलेशया इव वसन्ति ये वै सरमयेन्द्रदूत्या वाग्भिर्मन्त्रवर्णा-भिरिन्द्राद्विभ्यति ।। ३० ।।

ततोऽधस्तात्पाताले नागलोकपतयो वासुकिप्रमुखाः शङ्खकुलिकमहाशङ्खश्वेत-धनञ्जयधृतराष्ट्रशङ्खचूडकम्बलाश्वतरदेवदत्तादयो

महाभोगिनो महामर्षा निवसन्ति येषामु ह वै पञ्चसप्तदशशतसहस्रशीर्षाणां फणासु विरचिता महामणयो रोचिष्णवः पातालविवरतिमिरनिकरं स्वरोचिषा विधमन्ति ।। ३१।।

उसके नीचे महातलमें कद्रूसे उत्पन्न हुए अनेक सिरोंवाले सर्पोंका क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं।

वे सदा भगवान्‌के वाहन पक्षिराज गरुडजीसे डरते रहते हैं; तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्बके संगसे प्रमत्त होकर विहार करने लगते हैं ।। २९।।

उसके नीचे रसातलमें पणि नामके दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओंसे विरोध है।

ये जन्मसे ही बड़े बलवान् और महान् साहसी होते हैं। किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकोंमें फैला हुआ है, उन श्रीहरिके तेजसे बलाभिमान चूर्ण हो जानेके कारण ये सर्पोंके समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्रकी दूती सरमाके कहे हुए मन्त्रवर्णरूप वाक्यके कारण सर्वदा इन्द्रसे डरते रहते हैं ।। ३० ।।

रसातलके नीचे पाताल है। वहाँ शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनोंवाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान हैं।

उनमेंसे किसीके पाँच, किसीके सात, किसीके दस, किसीके सौ और किसीके हजार सिर हैं। उनके फनोंकी दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाशसे पाताल-लोकका सारा अन्धकार नष्ट कर देती हैं ।। ३१।।

इति श्रीम‌द्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे राह्वादिस्थितिबिलस्वर्गमर्यादा निरूपणं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ।।२४।।

१. प्रा० पा०- पारिषदभू०। २. प्रा० पा०- भूय। ३. प्रा० पा० – तयोर्वीर्येण । * ‘आचतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पंचमषष्ठयोः’ अर्थात् चौथे मासतक जो गर्भ गिरता है,

उसे ‘गर्भस्राव’ कहते हैं तथा पाँचवें और छठे मासमें गिरनेसे वह ‘गर्भपात’ कहलाता है। १. प्रा० पा०-परिक्षिप्तस्वर्लोकत्रयो। २. प्रा० पा० – यद्येतत्साक्षात्कारो। ३. प्रा० पा० – ऽन्यथेवेहोप०।

१. प्रा० पा०- मन्त्राय एकान्ततो वृतो बृह०। २. प्रा० पा०- हायोपेन्द्रेणात्मान् माशिषो नो एव तदनुदास्यमति०। ३. प्रा० पा०- ग्रहमुपजि० । ४. प्रा० पा०- मुत्तरस्माद्विस्तरिष्यते यद्भगवान्। ५. प्रा० पा०- त्रिपुरारिणा त्रिलोक्यर्थं। ६. प्रा० पा०- मायानामाचार्यो।

१. प्रा० पा०- मुद्विग्नमनसा स्वक० ।

२. प्रा० पा०-हरेरिव ।

३. प्रा० पा०-हतावलेपा बिलशया इव वसन्ति ये वै सुरमये० ।

४. प्रा० पा०- मर्षाः सन्ति ।

* एक कथा आती है कि जब पणि नामक दैत्योंने पृथ्वीको रसातलमें छिपा लिया, तबइन्द्रने उसे ढूँढ़नेके लिये सरमा नामकी एक दूतीको भेजा था। सरमासे दैत्योंने सन्धि करनी चाही, परन्तु सरमाने सन्धि न करके इन्द्रकी स्तुति करते हुए कहा था- ‘हता इन्द्रेण पणयः शयध्वम्’ (हे पणिगण! तुम इन्द्रके हाथसे मरकर पृथ्वीपर सो जाओ, इसी शापके कारण उन्हें सदा इन्द्रका डर लगा रहता है।

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